
परिवर्तनों के मूल में क्रियाशील दैवी प्रेरणाएं
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संसार के महान् आन्दोलन या महाक्रान्तियां आरम्भिक रूप में बहुत छोटी थीं। उनके आरम्भिक स्वरूप को देखते हुए कोई यह अनुमान नहीं लगा सकता था कि कभी वे इतनी सुविस्तृत बनेंगी और संसार की इतनी सेवा कर सकेंगी। किन्तु अविज्ञात ने जहां उन आन्दोलनों को जन्म देने वाली प्रेरणा की निर्झरिणी का उद्गम उभारा, किसी परिष्कृत व्यक्ति के माध्यम से उसे विकसित किया, साथ ही इतनी व्यवस्था और भी बनाई कि उस उत्पादन को अग्रगामी बनाने के लिए सहयोगियों की श्रृंखला बनती बढ़ती चली जाय। ईसा, बुद्ध, गांधी आदि को सहायकों की कमी नहीं रही। वस्तुतः जब कभी दैवी प्रवाह प्रेरणा चलती है तो एक जैसे—विचार ही असंख्यों के मन में उठते हैं और उन सब की मिली जुली शक्ति से सृजन स्तर के कार्य इतने अधिक और इतने सफल होने लगते हैं कि दर्शकों को इसका अवलोकन करके आश्चर्यचकित रह जाना पड़ता है। उसे दैवी प्रेरणा कहने में कुछ अत्युक्ति नहीं है। विश्व इतिहास में कितनी ही ऐसी महाक्रान्तियां हुई हैं, जो चिरकाल तक स्मरण की जाती रहेंगी और लोकमानस को महत्वपूर्ण तथ्यों से अवगत कराती रहेंगी। छिटपुट उलट-पुलट तो सामयिक तथा क्षेत्रीय समस्याओं के समाधान हेतु होती ही रहती हैं, पर विश्लेषण और विवेचन उन्हीं का होता है जिनमें व्यापकता के साथ-साथ प्रवाह परिवर्तन भी जुड़ा होता है। ऐसी घटनायें ही महाक्रांतियां कहलाती हैं इनमें दैवी प्रवाह-प्रेरणा ही प्रमुख रूप से कार्य कर रही होती है। पौराणिक काल का समुद्र मंथन, वृत्तासुर वध, गंगावतरण, हिरण्याक्ष के बन्धनों से पृथ्वी की मुक्ति, परशुराम द्वारा कुपथगामियों का ब्रेन-वाशिंग आदि ऐसी ही महान घटनाओं को प्रमुख माना जाता है, जिनने कालचक्र के परिवर्तन में महान भूमिका निभाई, ऐसा कहा जा सकता है। अन्य देशों के मिथकों में भी ऐसे ही मिलते-जुलते अलंकारिक वर्णन हैं। यदि वे सब सही हैं तो मानना होगा कि महाक्रान्तियों का सिलसिला चिरपुरातन है। इतिहास काल में भी कुछ बड़े शक्तिशाली परिवर्तन हुए हैं, जिनमें रामायण प्रसंग, महाभारत आयोजन और बुद्ध का धर्मचक्र प्रवर्तन प्रमुख हैं। लंकाकाण्ड के उपरान्त रामराज्य के साथ सतयुग की वापसी संभव हुई। महाभारत काल के उपरान्त भारत को विशाल भारत-महान भारत बनाने का लक्ष पूरा हुआ। बुद्ध के धर्मचक्र प्रवर्तन से तत्कालीन वह विचारक्रान्ति सम्पन्न हुई जिसकी चिनगारियों ने अगणित क्षेत्रों के अगणित प्रसंगों को ऊर्जा और आभा से भर दिया। वह दावानल अनेक मंचों, धर्म सम्प्रदायों, सन्त, समाज सुधारकों और शहीदों के रूप में पिछली शताब्दी तक अपनी परम्परा को विभिन्न रूपों में कायम रखे रहा। प्रजातन्त्र और साम्यवाद की सशक्त नई विचारणा इस प्रकार उभरी जिसने लगभग समूची विश्ववसुधा को आन्दोलित करके रख दिया। पिछली क्रान्तियों के संदर्भ में इतने ही संकेत पर्याप्त होने चाहिए, जिनसे सिद्ध होता है कि मनीषा जब भी आदर्शवादी ऊर्जा से अनुप्राणित होती है, तो अनेक सहचरों को खींच बुलाती है और वह कार्य कर दिखाती है जिसे देवी अनुग्रह की संज्ञा दी जाती है। अपने समय का युग परिवर्तन— अपने समय का महा-परिवर्तन ‘‘युगान्तर’’ के नाम से जाना जा सकता है। युग परिवर्तन की प्रस्तुत प्रक्रिया का एक ज्वलन्त पक्ष तब देखने में आया, जब प्रायः दो हजार वर्षों से चले आ रहे आक्रमणों-अनाचारों से छुटकारा मिला। शक, हूण, कोल, किरात, यवन लगातार इस देश पर आक्रमण करते रहे हैं। यहां का वैभव बुरी तरह लुटता रहा है। विपन्नता ने इतना पराक्रम भी शेष नहीं रहने दिया था कि आक्रान्ताओं को उल्टे पैर लौटाया जा सके। फिर भी महा-क्रान्ति ने अपना स्वरूप प्रकट किया। दो विश्व युद्धों ने अहंकारियों की कमर तोड़ दी और दिखा दिया कि विनाश पर उतारू होने वाली कोई भी शक्ति नफे में नहीं रह सकती। दोनों महायुद्धों का विनाश-विवरण सामने है, पर उससे भी बढ़ कर विधेयक पक्ष उभर कर ऊपर आया। भारत ने लम्बे समय से चली आ रही राजनैतिक पराधीनता का जुआ देखते-देखते उतार फेंका। दावानल इतने तक ही रुका नहीं। अफ्रीका महाद्वीप के अधिकांश देश साधारण से प्रयत्नों के सहारे स्वतंत्र हो गये। इसके अतिरिक्त छोटे-छोटे द्वीपों तक ने राजनैतिक स्वतंत्रता प्राप्त कर ली। इसी तरह उन दिनों राजतंत्र का संसार भर में बोल-बाला था। सामंतों की सर्वत्र तूती बोलती थी। अमीर उमराव और जमींदार ही छत्रप बने हुए थे। वे न जाने किस हवा के झोंके के साथ टूटी पतंग की तरह उड़ गये। इसी बीच सामाजिक क्रान्ति का किसी क्षेत्र विशेष तक सीमित परिवर्तन नहीं हुआ। वरन् उसने समस्त विश्व को प्रभावित किया। दास-दासियों की लूट-खसोट और खरीद फरोख्त बन्द हुई। इतने पुराने प्रचलन को इतनी तेजी से उखाड़ना संभव हुआ, मानो किसी बड़े तूफान ने सब कुछ उलट-पुलट कर रख दिया हो। अग्रगामियों को सदैव दैवी प्रवाह प्रेरणा में बहते देखा जाता है। दास प्रथा के उन्मूलन में हैरियट स्टो, अब्राहम लिंकन जैसी आत्माओं को दैवी प्रेरणा ने झकझोरा और अग्रिम मोर्चे पर ला खड़ा किया था। सर ओलविर लॉज ने भी अपनी पुस्तक ‘‘सरवाइवल आफ मैन’’ में इस तथ्य को स्वीकार किया है कि अमेरिका के राष्ट्रपति अब्राहम लिंकन को अपने अधिकांश कार्यों की प्रेरणा अदृश्य सहायक के माध्यम से मिला करती थी, जिस समय दास प्रथा के उन्मूलन का उनका आन्दोलन तीव्र हो रहा था और उन पर उसे बंद कर देने का चारों ओर से दबाव डाला जा रहा था, उन्हें बार-बार एक ही स्वप्न दिखाई देता, जिसमें उन्हें यही सन्देश मिलता कि अपने दास प्रथा उन्मूलन के निश्चय को वे न बदलें। यह कुप्रथा अवश्य समाप्त होकर रहेगी। इसकी पुष्टि लेखक राबर्ट जेम्स लीज ने भी अपनी कृति में की है। दैवी प्रेरणा से मिली स्वतन्त्रता— बेनेजुएला एक दक्षिण अमेरिकी देश है जो कभी स्पेनी उपनिवेश था। उसकी प्रजा में कुसमुसाहट तो थी पर तीखे आन्दोलन के लिए कोई आगे न बढ़ रहा था। असंगठित प्रजा बेचारी करती क्या? उन्हीं दिनों फ्रांस को नेपोलियन के नेतृत्व में आजादी मिली थी। उस विजयोत्सव में वेनेजुएला का एक युवक भी था। उसे देवी प्रेरणा मिली कि वह भी आजादी की मशाल जलाये और अपने देश को मुक्त कराये। इससे प्रेरित हो उसने रोम की एक पहाड़ी पर खड़े होकर एकाकी प्रतिज्ञा की कि वह अपने देश को आजाद करा के रहेगा। उसकी घोषणा मात्र पहाड़ी के पत्थरों ने सुनी। वेनेजुएला की एक बड़ी नगरी केराकश के एक धन कुबेर का सबसे छोटा लड़का था वह प्रतिज्ञा ठानने वाला, नाम था उसका—‘‘बोलियर’’। उसे स्वयं कुछ कठिनाई न थी। शासन की ओर से सम्पन्नों को सब प्रकार की सुविधा दी जाती थी ताकि वे प्रजा पर अंकुश रखें और कोई गड़बड़ी न उत्पन्न होने दें। युवक के पिता ही नहीं बड़े भाई भी शासन के खैरख्वाह थे। ऐसी दशा में कोई विद्रोही आन्दोलन करना अति कठिन था। विशेषतया तब जबकि प्रजाजनों में से मुट्ठी भर साथी वह ढूंढ़ सका और शासन तो दूर उसका निज का परिवार ही राजभक्ति का प्रतिनिधि बना बैठा था। उन दिनों अमरीका महाद्वीप के अधिकांश दक्षिणी भाग पर स्पेन का कब्जा था। एक नहीं, छोटे बड़े कितनेक देश स्पेन के शासन में थे। सम्पन्न जागीरदारों की मार्फत राज-काज चलता था। स्पेन को इस क्षेत्र से भारी धनराशि मिलती थी। बोलियर स्पेन में पढ़ा। वहां शासन की ओर से उसे ‘प्रिंस’ का खिताब मिला। उससे उसका रुतवा और भी बढ़ गया। घर में कुछ कमी न थी। वह घुड़सवारी में ही नहीं अय्याशी में भी मशहूर था। किन्तु उसे मिली दैवी प्रेरणा, फ्रांस की राजक्रान्ति और रोम की पहाड़ी पर एकान्त में ऊंचे स्वर से की गई प्रतिज्ञा याद थी कि देश को आजाद करा के रहेगा। कार्य कैसे आगे बढ़ाया जाय? वह अकेला क्या करे? यह ताना-बाना बुनने में उसे अपना सहपाठी फ्रांसिस्को मिराण्डा याद आया, जिसने कुछ दिन पहले आजादी की लड़ाई लड़ी थी किन्तु उसे हार के फलस्वरूप निर्वासन मिला। इन दिनों वह इंगलैण्ड में दिन गुजार रहा था। बोलियर ने अपने दोस्त मिराण्डा को इंगलैण्ड से गुपचुप बुला लिया। दोनों ने मिलकर जनता से सम्पर्क किया और उसके प्रतिनिधियों की एक सभा बुलाकर अपने देश को स्वतन्त्र घोषित कर दिया। घोषणा मौखिक थी। स्पेन वाले बिना लड़े उसे सहज स्वतन्त्र करने वाले न थे। लड़ाई चालू हो गई। छापामारों के संगठित दल ने स्पेन सेना की छावनियों पर हमला बोलना शुरू कर दिया। सेना इसके लिए तैयार न थी। अचानक छापों से उसे कई जगह पराजय का मुंह देखना पड़ा। कुछ दिन की लड़ाई के बाद एक दिन ऐसा आया कि राजधानी काराकस पर हमला बोल दिया गया जिससे उन्हें बहुत मात्रा में गोला, बारूद और हथियार हाथ लगे। फिर भी लड़ाई चलती रही। मिराण्डा और बोलियर घायल होकर एक छोटे द्वीप में अपना इलाज कराने चले गये। यद्यपि इन दोनों की बाद में मृत्यु हो गई, किन्तु विद्रोहियों की लड़ाई जारी रही। कई वर्षों से जमे स्पेनी शासकों के पैर उखड़ गये और विद्रोहियों ने शासन की बागडोर अपने हाथ में ली। नींव के पत्थर के रूप में बोलियर एवं मिराण्डा की भूमिका को सबने सराहा व स्मृति स्वरूप सारे देश में कीर्ति स्तम्भ बनाये गए। इस सफलता के बाद दूसरे उपनिवेशों की भी हिम्मत बढ़ी और उनने भी अपने-अपने देशों में आजादी की लड़ाई छेड़ दी। स्पेन बहुत दूर था। जिन सामन्तों के सहारे उसका शासन चल रहा था उनने भी साथ छोड़ दिया। इस प्रकार दक्षिणी अमेरिका में फैले हुए स्पेनी शासन का अन्त हो गया और वे सभी राज्य स्वतन्त्र जनतन्त्र बनकर अपनी पसन्दगी का शासन चलाने लगे। फ्रान्स की राज्यक्रान्ति की सफल संचालिका ‘जोन ऑफ आर्क’ एक मामूली से किसान के घर में जन्मी थी। अपने पिता के घर ही उसने स्वप्न देखा कि आसमान से कोई फरिश्ता उतर कर आया है तथा उससे कह रहा है कि अपने को पहचान। समय की पुकार सुन और स्वतन्त्रता की मशाल जला। उस फरिश्ते ने जोन के हाथों में एक जलती हुई मशाल भी दी। नींद खुलने पर जोन ने इन बातों को गांठ बांध लिया और उसी समय से फ्रांस को स्वतंत्र कराने के लिए उत्साह के साथ काम करने लगी। इतिहास साक्षी है कि जोन ने कितनी वीरता के साथ स्वतन्त्रता संग्राम लड़ा और अपने प्राणों की बाजी लगा कर सफलता प्राप्त की, साथ ही वह अपने आपको अमर कर गयी। जब भी जोन ऑफ अर्क का नाम लिया जाता है, उसे दैवी फरिश्ता कहकर अभिनन्दित किया जाता है क्योंकि उसने वह कार्य कर दिखाया जो मानवी पुरुषार्थ से परे था। देवी सहायता सत्परायणों के लिए हो— यदा-कदा सूक्ष्म लोकों से दैवी चेतना उतरती और लोगों को महत्वपूर्ण सूचनाएं दे जाती है, पर देखा गया है कि यह सूक्ष्म संदेश हर कोई ग्रहण नहीं कर पाता। वही व्यक्ति इन तरंगों को पकड़ पाता है, जिसका अन्त:करण निर्मल हो, विचारणाएं, भावनाएं पवित्र हों, जो लोकमंगल के लिए जीता और परमार्थ के लिए मरता हो। ऐसे व्यक्ति इन सूक्ष्म सूचनाओं के माध्यम से अपना और समाज दोनों का कल्याण करते देखे जाते हैं। पिछले दिनों ऐसी अनेक घटनाएं घटी हैं। एक घटना इजरायल की है। वहां के निवासियों को 45 वर्षों तक गुलामी की जंजीरों में जकड़े रहने और स्वाधीनता प्राप्ति के लिए अथक प्रयास करने के बावजूद भी जब मुक्ति के कोई आसार नजर नहीं आये तो उन्होंने धार्मिक कृत्यों का सहारा लिया और धर्मानुष्ठानों की एक लम्बी शृंखला चलायी। इसी मध्य उन्हें ‘‘माउण्ट सिनाई’’ से एक दिन एक दिव्य संदेश मिला, जिसमें कहा गया कि ‘‘तुम्हारी खुशियां वापस लौटेगी और तुम जल्दी ही स्वतन्त्र होगे।’’ इस ईश्वरीय सूचना के मिलते ही लोगों की उद्विग्नता समाप्त हो गयी और सभी ने चैन की सांस ली। इसी के फलस्वरूप न्यायनिष्ठ सम्राट सोलोमन का अवतरण हुआ था, जिनने इजरायल की स्थिति सुधारने और स्वतंत्रता दिलाने में महत्वपूर्ण भूमिका निभायी थी। ग्रीक पौराणिक उपाख्यानों के अनुसार रोम की स्थापना का श्रेय रोमुलस और रैमस नामक जुड़वां भाइयों को है। वे मार्स की सन्तान थे। रैमस उग्र प्रकृति का था, जबकि रोमुलस शान्त सात्विक स्वभाव का। शासन काल के दौरान एक दिन रोमुलस ने अपने सिर के ऊपर एक अलौकिक प्रकाश देखा और एक दिव्य ध्वनि सुनी, जिसमें उसकी सत्ता के अवसान का संकेत था। बाद में ऐसा ही हुआ। सुप्रसिद्ध ग्रीक इतिहासकार, जिन्होंने ग्रीक परशियन युद्ध के कारणों का बड़ी गहनता से अध्ययन किया है का कहना है कि एथेना प्रोनोइया के मंदिर में एक बार ऐसी दिव्य आवाज गूंजी, जिसमें अनाचार के विरुद्ध मुहिम शुरू करने का स्पष्ट आदेश था। एसक्यूलेपस को रोम में चिकित्सा का देव कहा जाता है। एक दिन उनने अनुभव किया, मानो कोई अदृश्य शक्ति उससे कह रही हो कि ‘‘रुग्ण और बीमार व्यक्तियों की सहायता करो।’’ तभी से रोगियों की सेवा-परिचर्या में जुट पड़े और आजीवन इसी काम में निरत रहे। इसी कारण रोम वासी उन्हें श्रद्धा की दृष्टि से देखते हैं। कभी-कभी सूक्ष्म प्रेरणाएं इतनी सशक्त होती हैं कि बड़े समुदाय भी उन के प्रभाव में आये बिना नहीं रहते। 13 मई से अक्टूबर 1917 के अन्त तक कुछ व्यक्तियों ने पुर्तगाल के एक गांव में लेडी फातिमा को ‘‘डिवाइन मदर ऑफ रोजरी’’ के रूप में महीने की हर 13 तारीख को दिव्य संदेश के साथ अवतरित होते देखा। इस घटना की जब स्थानीय लोगों को जानकारी मिली तो 13 अक्टूबर 1917 को बड़ी संख्या में लोग इस अभूतपूर्व दृश्य को देखने के लिए एकत्रित हो गये। उपस्थित लोगों का कहना था कि इसी बीच वहां का सूक्ष्म वातावरण कुछ ऐसा बना, जो लोगों की धर्म-भावना को झकझोर रहा था। लोगों ने अपने भीतर उत्कृष्ट विचारणाएं और विलक्षण परिवर्तन अनुभव किये। इस घटना को अविस्मरणीय बनाने के लिए उस स्थान को ‘‘फातिमा उद्यान’’ नाम दे दिया गया, जो अब एक तीर्थ स्थल है। जब-तब ऐसे संदेश मूर्त माध्यमों से भी मिल जाते हैं। इन अवसरों पर अचानक कुछ ऐसे दृश्य आंखों के सामने उपस्थित होते हैं, जिन पर सहसा विश्वास नहीं होता और मतिभ्रम-सा प्रतीत होता है, पर वस्तुतः होते ये वास्तविक ही हैं। बवेरिया के हैरोल्डबैक गांव में ऐसी ही एक घटना 1949 में घटी। ग्राम में एक धार्मिक आयोजन हो रहा था, जिसमें बड़ी तादाद में ग्रामवासी उपस्थित थे। कार्यक्रम के मध्य अकस्मात् एक श्वेत वस्त्रधारी प्रतिमा लोगों के समक्ष प्रकट हुई और कुछ क्षण रुककर अंतर्ध्यान हो गई। वहां एकत्रित अधिकांश लोगों ने इसे आंखों का विभ्रम माना, पर कुछ धर्मप्राण सतोगुणी सन्तों का कहना था कि उनने एक विशेष प्रकार की प्रेरणा अनुभव की, मानो मूर्ति कह रही हो कि शासन तंत्र पर धर्म तंत्र का अंकुश होना चाहिए तभी राज्य में सुव्यवस्था और शान्ति बनी रह सकती है। ज्ञातव्य है, तब वहां चारों ओर अराजकता और अव्यवस्था फैली हुई थी। अशान्ति के दम घोंटू वातावरण से लोग परेशान थे। अमन-चैन का कहीं नामो-निशान नहीं था। लोग शान्ति की तलाश में मृग-तृष्णा की तरह भटक रहे थे। प्रेरणा के अनुरूप चलने पर ही शांति वापस लौट सकी। इसी प्रकार की एक घटना विवेकानन्द के बचपन की है। एक दिन वे अपने कमरे में ध्यानस्थ थे, तभी अचानक उनका ध्यान उचट गया। आंखें खोलीं तो देखा कि एक चीवरधारी विग्रह हाथ में कमण्डलु लिए कक्ष की दीवार को फोड़ते हुए प्रकट हो रहा है। मूर्ति उनके सम्मुख आकर खड़ी हो गयी। यह सब देख वे भयभीत हो उठे किन्तु थोड़ी देर पश्चात् जब भय कुछ घटा तो उन्होंने प्रतिमा को परावाणी में कुछ कहते पाया। थोड़ी देर बाद प्रतिमा गायब हो गयी। उन्होंने दीवारों का निरीक्षण किया तो सुरक्षित थीं, बाद में जब उनसे लोगों ने इस अद्भुत घटना की जानकारी चाही, तो उनने कहा कि वे साक्षात् भगवान बुद्ध थे, जो ज्ञानक्रांति का एक विशेष संदेश देने के लिए प्रकट हुए थे। चौदहवीं शताब्दी में इटली में राजनैतिक कमजोरियों के कारण अराजकता का विष पूरे देश में फैलता चला गया। पड़ौसी राष्ट्र भी इटली वासियों की इस कमजोरी का लाभ उठाने की कोशिश करने लगे। इन्हीं परिस्थितियों में सन् 1347 में इटली के ‘‘साहना’’ ग्राम में कैथरीन नामक एक कन्या का जन्म हुआ। जब वह 17 वर्ष की हुई, तभी उसके जीवन में एक आकस्मिक मोड़ आया। एक दिन रात में वह सोने का उपक्रम कर रही थी कि उसके कर्ण-कुहरों से कुछ अस्फुट शब्द टकराये। कोई कह रहा था कि ‘‘तुम लोगों में धार्मिक चेतना फैलाओ तभी देश इस दलदल से निकल सकता है।’’ उसने अविलम्ब उठकर कमरे में तथा कमरे के बाहर चारों ओर काफी खोजबीन की, पर कोई व्यक्ति नहीं दीखा। तब उसने इसे कानों का भ्रम मान लिया और सो गयी, किन्तु उस दिन के बाद से यह दैनन्दिन घटना बन गयी। उसे बराबर इस प्रकार के सूक्ष्म संदेश प्राप्त होने लगे। अन्ततः कैथरीन ने उन्हीं संदेशों को अपना आदर्श और आधार मानकर कार्यक्रम शुरू किया और लोगों का चिन्तन-तंत्र और जीवनक्रम बदलने का अभियान आरम्भ किया, जिसमें उसे काफी सफलता मिली तथा देश की स्थिति में भी उत्तरोत्तर सुधार होता चला गया। स्वतन्त्रता संग्राम के दिनों महर्षि अरविंद जब अलीपुर जेल में थे तो उन्हें भी ऐसे ही दिव्य व सूक्ष्म संदेश नियमित रूप से मिलते रहते थे, जिनमें भावी कार्यक्रमों की रूपरेखा और इनसे सम्बन्धित निर्देश होते थे। इन्हीं संदेशों के आधार पर महर्षि अपनी योजना बनाते और क्रियान्वित करते थे। ब्राह्मी चेतना के संकेत पर ही वे स्वाधीनता-संग्राम के सक्रिय जीवन से संन्यास लेकर पाण्डिचेरी चले गये और समिष्ट साधना में निरत हुए। चेतावनी भी देती हैं देवी सत्ताएं— देवदूत अनेक बार मनुष्यों को चेतावनी, सत्परामर्श, भविष्यवाणी बताते एवं मनुष्यों को अपने अदृश्य रूप का प्रत्यक्ष दर्शन कराते हैं। उनके बताये संकेतों पर चलकर कितने ही धर्मप्रेमी लाभ भी उठाते हैं। ऐसे घटनाक्रमों में एक घटना 1947 की है। ब्रेसिया (इटली) से पांच किलोमीटर दक्षिण में ‘मौन्टीकियारी’ नगर में पैरिनागिली नाम की एक परिचारिका (नर्स) रहती थी। अचानक ही पैरिना की दृष्टि एक हवा में तैरती हुई महिला पर पड़ी। अस्पताल के प्रार्थना स्थल की ओर से आती इस अजनबी महिला की छाती पर तीन तलवारें गढ़ी हुई थीं लेकिन खून का नामो निशान तक नहीं था। इस भयावह दृश्य को देखकर साथ चल रहे अनेक व्यक्ति चीख उठे और चीत्कार करते हुये इधर-उधर दौड़ते बने। पैरिना नहीं घबराई। अपने सत्साहस का परिचय देते हुये उस दिव्य प्रतिमा से उसके प्रकटीकरण का कारण पूछने लगी। प्रत्युत्तर में उस विलक्षण प्रतिमा ने बड़े ही दुःखद शब्दों में कहा कि तप, त्याग और प्रार्थना का व्रत जीवन में निरन्तर बना रहना चाहिए। इसका अभाव ही आज की विपन्न परिस्थितियों का मूल कारण है। 13 जुलाई, 1947 को यह घटना पुनः घटी। अबकी बार तलवार के स्थान पर तीन फूल उसके पास थे जिनका रंग सफेद, लाल और पीला था। पैरिना ने जब इस देवात्मा से इस रहस्य के विषय में पूछा तो श्वेत वस्त्रधारी महिला ने बताया कि ‘‘मैं ईसा मसीह की ही नहीं वरन् जगत जननी हूं 13 जुलाई को हर वर्ष ‘रोजा मिस्टिका’ के रूप में मनाया जाना चाहिए जिससे लोगों में धार्मिकता की भावनाएं जग सके।’’ तब से निरन्तर यह दिन उसी रूप में मनाया जाता है। अपर ऐल्सेक (फ्रांस) में ट्रोइस-एपिस के निकट एक धार्मिक प्रवृत्ति के किसान की बड़े ही दर्दनाक ढंग से हत्या कर दी गयी। 3 मई 1491 को डेटर स्कोर नाम का एक लुहार वहां से गुजरा तो उसे नारी स्वरूप शक्ति का दिव्य दर्शन हुआ जिसके एक हाथ में श्वेत हिम वर्त्तिका तथा दूसरे हाथ में हरीतिमा का प्रतीक अनाज की तीन बालियां थीं। उसका कहना था कि यदि अपराधों की गति ऐसी ही रही तो लोगों को प्राकृतिक प्रकोपों का शिकार बनना पड़ेगा। दुर्भिक्ष से लेकर अनेकानेक बीमारियां फैलेगी। ट्रोइसऐपिस में ऐसा ही हुआ और वहां के लोगों को बड़ी ही मुसीबतों का सामना करना पड़ा। तभी से एल्सेक को वहां के एक सुप्रसिद्ध धर्म स्थल के स्वरूप में माना जाने लगा है। भारत की ही तरह वहां भी वार्षिक मेले लगते हैं एवं नित्य लोग दर्शन कर देवदूतों के सन्देश को दुहराते हुए संकल्प लेकर जाते हैं। धार्मिक भावनाओं से ओत-प्रोत लोगों को ईश्वर ने प्रत्यक्ष रूप से अनुगृहीत किया है। जैसा कि अनेक उदाहरणों से प्रकट होता है। फ्रांस में बैसंकन नाम का एक नगर है। 3 दिसम्बर, 1712 को वहां के मेगाफोलिस नामक मन्दिर में एक घटना घटी। उस समय पुजारी के अतिरिक्त स्थानीय लोग भी 10 हजार की संख्या में उपस्थित थे। उपस्थित जन समुदाय ने प्रातःकाल 9 बजे एक विशालकाय आकृति वाले मनुष्य को हवा में तैरते हुये देखा। उसने बड़ी तेजी के साथ तीन आवाजें निकालीं ‘‘मनुष्यो, मनुष्यो, मनुष्यो’’! तुम्हें अपनी रीति-नीतियों को सही ढंग से निर्धारित करना चाहिए अन्यथा विपत्तियों का सामना करना पड़ सकता है।’’ दृश्य को देखने वालों का ऐसा विश्वास है कि यह दिव्य ज्योति कोई दिव्य चेतना का ही सन्देश पहुंचाने आई है। अपराधों में वृद्धि के परिणाम स्वरूप ही ऐसा हुआ है। भय से आक्रान्त होकर कुछ की मृत्यु तो तत्काल हो गयी। कुछेक ने अपनी सूझ-बूझ का परिचय देते हुए धार्मिक कृत्यों की परम्परा को पुनः आरम्भ कर दिया। घनघोर वर्षा तथा भूकम्प के कारण पूरा नगर नष्ट हो चुका था, लेकिन तीन इमारतें सुरक्षित बच गयीं, जहां पर उक्त धर्मकृत्यों को पूरा किया गया। बैकन में उस समय से ही अपनी चिर पुरातन मान्यताओं को पुनः स्थापित करने हेतु उत्साहवर्धक प्रयास जारी हैं। उपरोक्त उदाहरण दैवी सत्ता के अस्तित्व के परिचायक तो हैं ही, यह भी प्रमाणित करते हैं कि समय-समय पर परम सत्ता इनके माध्यम से जन जन को चेतावनी देती है। यदि समय रहते अपनी जीवन पद्धति बदल ली जाय, आचरण में परिवर्तन लाया जा सके तो दैवी प्रकोपों से बचा एवं अन्यों को बचाया जा सकता है। परिवर्तन चाहे समष्टिगत हो अथवा व्यष्टिगत सदैव सत्प्रयोजनों के निमित्त होता है एवं दैवी सत्ताएं इस परमार्थ में एक प्रमुख भूमिका निभाती हैं। वे जनमानस को झकझोरती हैं, चिन्तन मथ डालती हैं। यह सोचने को विवश कर देती हैं कि मनुष्य को अपनी चाल बदलनी चाहिए एवं अनुशासित विधि-व्यवस्था का एक अंग बनकर जीना चाहिए। यह एक शाश्वत एवं सनातन तंत्र है जो युगों-युगों से निरन्तर चलता आया है व आगे भी सक्रिय बना रहेगा। आगामी बारह वर्ष इन्हीं चेतावनियों व पूर्वानुमानों से भरे पड़े हैं।