
मानवी पुरुषार्थ का पूरक दैवी अवलम्बन
Listen online
View page note
Please go to your device settings and ensure that the Text-to-Speech engine is configured properly. Download the language data for Hindi or any other languages you prefer for the best experience.
जब मनुष्य चारों ओर से अपने को असहाय पाता है, उसका स्वयं का पुरुषार्थ साथ नहीं देता तो एक ही अवलम्बन उसे शेष रहता है—परम सत्ता का। दैवी अनुदान सुपात्रों को संकटों से बचाते व प्रगति का पथ प्रशस्त करते हैं। मनुष्य का सहज स्वभाव है कि वह प्रतिकूलताओं के बीच अपनी मन:स्थिति को सन्तुलित नहीं रख पाता। ऐसी स्थिति में उसे जिस ढांढस—सहारे की आवश्यकता रहती है, उस दायित्व को सत्पुरुष सदा से निभाते आए हैं। सन्त एवं ऋषि परम्परा का यह एक अपरिहार्य अंग है। भगवत् सत्ता के अग्रदूतों ने सदा-सदा से यह दायित्व निभाया है कि जो दुःखी हैं, उनके आंसू पोंछे जायें, हिम्मत दिलायी जाय, जो अभावग्रस्त है उसे पुरुषार्थ हेतु सामर्थ्य प्रदान की जाय। बुन्देलखण्ड के छत्रसाल पर संत प्राणनाथ जी प्रसन्न हो गये थे। उन्होंने एक दिन प्रातःकाल उनसे कहा कि आज जितने क्षेत्र की परिक्रमा घोड़े पर चढ़कर लगा लोगे, उस भूमि में रत्नों की उपलब्धि होने लगेगी। मध्य प्रदेश का पन्ना क्षेत्र अभी भी हीरों का उत्पादक क्षेत्र बना हुआ है। वहां के निवासी इसे अपने राजा के गुरु की शक्ति का प्रताप ही मानते हैं। परमयोगी गोरखनाथ जी की सिद्धि कथाएं अभी भी लोकमानस में छाई हुई हैं। उन्होंने अपने योग एवं तप शक्ति का उपयोग सदैव लोकमंगल के लिए समर्पित प्रतिभाओं को खोजने और उन्हें दिशा देने के लिए किया है। कहा जाता है कि सियालकोट के राजा पूरण को उनकी विमाता ने हाथ पैर कटवा कर कुंए में फिकवा दिया था। गोरखनाथ ने उनका उद्धार किया और दीक्षा दी। कालांतर में चौरंगीनाथ के नाम से वे विख्यात संत हुए। मेवाड़ राज्य के संस्थापक बप्पा रावल को प्रसन्न होकर उन्होंने एक सिद्ध तलवार दी थी जिसके बल पर बप्पा रावल ने चित्तौड़ राज्य की स्थापना की। वह तलवार पीढ़ियों तक राज्य चिह्न के रूप में चलती रही। राजा भर्तृहरि भी उन्हीं के शिष्य थे। ऐसे अनेक पौराणिक आख्यान विभिन्न धर्मग्रन्थों में मिलते हैं, जो समय-समय पर सृष्टा के युवराज मनुष्य को दैवी सहायता मिलते रहने के रूप में प्रमाणित करते हैं कि आत्म-शक्ति के पूरक रूप में परमात्म शक्ति का अस्तित्व है। भले ही वह आंखों से दृष्टिगोचर न हो, उसकी अजस्र अनुकम्पा रूपी क्रिया-कलापों को ऐसे उदाहरणों में सहज ही देखा व उस सत्ता पर विश्वास किया जा सकता है। द्रौपदी निस्सहाय अबला के रूप में कौरवों की राज सभा में खड़ी थी। दुराचारी कौरवों द्वारा चीर-हरण किए जाने पर किसी मानव ने नहीं, ईश्वरीय सत्ता ने उसकी लाज बचाई। दमयन्ती का बीहड़ वन में कोई सहायक नहीं था। सतीत्व पर आंच आने पर स्वयं भगवत् सत्ता उसके नेत्रों से ज्वाला रूप में प्रकट हुई और उसने व्याध को जलाकर भस्म कर दिया। प्रहलाद को दुष्ट पिता से मुक्ति दिलाने एवं ग्राह के मुख से गज को छुड़ाने स्वयं भगवान आगे आए थे। निर्वासित पाण्डवों की रक्षा स्वयं भगवान् ने की। अपने प्रिय सखा अर्जुन का रथ जोता एवं गीता का उपदेश देकर धर्म दर्शन का निचोड़ मार्गदर्शन हेतु प्रस्तुत किया, साथ ही महाभारत भूमिका बनाकर सतयुग की स्थापना हेतु स्वयं भूमिका निभाई। नरसी भगत के सम्मान की रक्षा व मीरा को विष के प्याले से बचाने हेतु स्वयं भगवत् सत्ता ही आगे आई थी। भागीरथ के तप को सफल बनाने एवं पवन पुत्र हनुमान को उनकी शक्ति का बोध कराकर असम्भव पुरुषार्थ सम्भव कर दिखाने में परमात्म सत्ता ही मुख्य भूमिका निभा रही थी। हिरण्यकश्यपु की बहिन होलिका को अग्नि में न जलने की सिद्धि प्राप्त थी। प्रहलाद को लेकर लकड़ियों के ढेर पर बैठ गई। प्रज्ज्वलित अग्नि में वह भस्म हो गई, पर प्रहलाद बच गये। सिद्धियां एक ओर रखी रह गयीं। दुर्वासा ने अहंकार से प्रेरित होकर तप शक्ति से कृत्या पैदा की और बदले की भावना से राजा अम्बरीष पर छोड़ी। इस पर उन्होंने सदाशयता से भगवान का स्मरण किया तो चक्र सुदर्शन प्रकट हुआ। कृत्या पराजित हुई तथा दुर्वासा को अम्बरीष से क्षमा मांगनी पड़ी। इसी तरह कणाद ऋषि को नीचा दिखाने की इच्छा से वे एक बार उनके यहां भोजन करने जा पहुंचे और असाधारण क्षुधा बढ़ा ली। कणाद ने सहज आतिथ्य भाव से कण-कण एकत्र किये गये अन्न को अक्षर बना दिया। दुर्वासा का पेट भर गया पर अन्न समाप्त नहीं हुआ। वस्तुतः यही अनुशासित व्यवस्था परम सत्ता की रही है। देवपक्ष जहां असंयम से, विलासिता से समय-समय पर अपनी क्षमताएं नष्ट करता रहा है, वहां असुर पक्ष ने सिद्धियों का दुरुपयोग मात्र किया है। दोनों को ही ऐसी दशा में पतन पराभव का मुख देखना पड़ा है। संयम की प्रेरणा देकर अवतार सत्ता ने स्वयं अवतरित होकर देवों का मनोबल बढ़ाया एवं उन्हें विजय के लक्ष्य तक पहुंचाया है। साथ ही जिन असुरों ने विद्वता में, शक्ति-संचय में, सिद्धि सामर्थ्य में महारत हासिल की किन्तु दुर्मतिवश पथभ्रष्ट हो गये, उन्हें नष्ट करने का प्रयोजन भी उसी परमसत्ता ने पूरा किया है जिसने वरदान दिया था। रावण महापण्डित था एवं असीम क्षमता सम्पन्न भी। किन्तु जब उसने अनाचार की अति कर दी, अपनी सामर्थ्य से ऋषियों तपस्वियों का जीना दूभर कर दिया तो ऋषि रक्त को संचित कर स्वयं शक्ति ने सीता के रूप में अवतरित होने का निश्चय किया। इन्हीं सीता का रावण ने दुर्बुद्धिवश अपहरण किया एवं राम के रूप में बारह कलाओं से सम्पन्न भगवत् सत्ता ने उस रावण के सारे वंश को समूल नष्ट कर दिया। अनीति देर तक टिक नहीं पाती। अन्याय का प्रतिकार भी करती है परोक्ष सत्ता— ब्रह्माण्डव्यापी समर्थ चेतन-सत्ता अपनी सूक्ष्म-शक्तियों का प्रयोग—कुतूहल-वर्धन और चमत्कार-प्रदर्शन के लिए भले ही कभी भी न करें, किन्तु अत्याचार-अन्याय के विरोध में वह निश्चय ही आगे आती है। ऐसे अनेक संत-महात्मा हुए हैं जिन्हें अपने सुधारवादी दृष्टिकोण या आन्दोलन के कारण तत्कालीन शासकों एवं प्रशासकों के कोप का शिकार होना पड़ा। पर वे उनका कुछ न बिगाड़ सके। अधर्म के उन्मूलन एवं धर्म के संस्थापन में लगे महामानवों की रक्षा स्वयं परमात्म सत्ता करती है। बहाई धर्म के, संस्थापक महात्मा बाव को प्राचीन परम्पराओं से भिन्न स्थापनाएं करने के कारण तत्कालीन शासन ने मृत्यु दण्ड सुनाया, उन्हें 9 जुलाई 1850 को प्रातः 10 बजे सरेआम तवरीज के मैदान में गोली से उड़ाया जाना था। दस हजार दर्शक उपस्थित थे। महात्मा बाव और उनके एक अनुयायी को रस्सों से कसकर अधर में लटकाया गया और ढाई-ढाई सौ सैनिकों की तीन टुकड़ियां भरी हुई बन्दूकें लेकर खड़ी की गईं। एक टुकड़ी एक साथ ढाई सौ गोली दागी, यदि फिर भी अपराधी बच जाय तो दूसरी टुकड़ी अपनी वारी पर गोलियां चलाये और इस पर भी कोई कमी रह जाये तो तीसरी टुकड़ी भी अपने निशाने लगाये। 750 गोलियों में से एक भी न लगे ऐसा नहीं हो सकता था। उन दिनों मृत्यु दण्ड का प्रायः यही रिवाज था। व्यवस्था के अनुसार गोलियां बराबर दागी गईं पर 750 में एक भी निशाना नहीं लगा और महात्मा बाव अपने अनुयायी सहित साफ बच गये। यह घटना वैसी किम्वदन्ती नहीं है जैसी कि आमतौर से लोग अपने प्रिय देवता या गुरु का महत्व बढ़ाने के लिए गढ़ लिया करते हैं और उसे फैलाकर अन्य लोगों को आकर्षित करते हैं। इंगलैण्ड की सरकार के विदेशी विभाग में सार्वजनिक दफ्तर में इस घटना की साक्षी में एक महत्वपूर्ण दस्तावेज मौजूद है। यह 22 जुलाई 1850 का लिखा हुआ है और इसका रिकार्ड नम्बर F.O. 60।153।88 है। यह महारानी विक्टोरिया के विशेष प्रतिनिधि प्लेनीपोन्टेन्शियरी के प्रधान सर जस्टिनशील का लिखा हुआ है। उसमें इस घटना की प्रत्यक्षदर्शी पुष्टि की गई है। मैसूर के राजा ने नई तोप के उद्घाटन के अवसर पर उस क्षेत्र के एक प्रख्यात साधु से आशीर्वाद मांगा। इनकार किये जाने पर राजा बहुत क्रुद्ध हुआ और साधु को उसी तोप की नली से बांधकर उड़ा देने का हुक्म दिया। वैसा ही किया भी गया। पर साधु मरा नहीं। पहली बार जब उसे बारूद भरी नली ने उड़ाया तो 800 फुट ऊंचाई पर उछलकर वह दूर खड़े हाथी की अम्बी पर जा गिरा। पकड़कर लाया गया और दुबारा फिर उसे उसी प्रकार तोप से कसा और उड़ाया गया। इस बार वह एक दूरस्थ झोंपड़ी के छप्पर पर जा गिरा और साधु बच गया। तीसरी बार उसे फिर नहीं बांधा गया। संत कबीर के जीवन की एक घटना है। तत्कालीन बनारस के मुगल शासक से कट्टर पंथी मुल्लाओं ने संत कबीर की शिकायत कर दी। उससे कहा गया कि वे अल्लाह के नाम पर लोगों को बरगलाते हैं। शासक ने उन्हें हथकड़ी डालकर गंगा में फेंक देने का आदेश दिया। विज्ञ समुदाय ने जब ऐसा करने से उसे रोकना चाहा तो कहा गया कि यदि इसका भगवान या अल्लाह कोई सगा होगा तो नदी में डूबने से इसे बचा लेगा। अन्ततः उसके आदेशानुसार संत कबीर को नदी में फेंक दिया गया। थोड़ी ही देर में वे आराम से किनारे पर आकर बैठ गये। उन्हें देखकर अनाचारी नतमस्तक हो गये। इसी तरह प्रसिद्ध योगी तैलंग स्वामी को भी अपने अवधूतपन के कारण एक अंग्रेज अधिकारी का कोपभाजन बनना पड़ा। उसने अपनी देख-रेख में उन्हें जेल की एक कोठरी में बन्द करा दिया और चारों ओर पुलिस का पहरा बिठा दिया। कुछ देर पश्चात् देखा तो वे छत पर टहलते नजर आये। उन्हें पकड़ कर जब दुबारा काल कोठरी में ठूंस दिया गया तो इस बार वे बाहर मैदान में टहलते पाये गये। पूछे जाने पर उनने कहा ‘‘ईश्वर की इच्छा को ताले चाबी द्वारा नहीं रोका जा सकता। यदि ऐसा सम्भव होता तो मृत्यु के पूर्व प्रियजनों को ताले में बन्द करके बचाया जा सकता था।’’ इस घटना से प्रभावित होकर वह अंग्रेज जिलाधीश उनका भक्त बन गया। आचार्य शंकर को बलि चढ़ाने की इच्छा से एक तांत्रिक धोखे से उन्हें वधस्थल पर ले गया। आचार्य मुस्कराते हुए खड़े रहे और वह उनके शरीर पर अपना खड़ग चलाता रहा। प्रत्येक बार खड़ग शरीर के आर-पार यों निकलता रहा मानो हवा में घूम रहा हो। इस दृश्य को देखकर तांत्रिक घबरा गया और उनके चरणों में गिर पड़ा। मुस्लिम संतों में दिल्ली के निजामुद्दीन औलिया और लेख सलीम चिश्ती अधिक प्रसिद्ध हैं। उन दिनों संत निजामुद्दीन की सिद्धि गाथाएं दूर-दूर तक फैली हुई थीं, जिससे कुपित होकर एक बार तत्कालीन शासक ने उन्हें फरेबी समझकर उनके जहां भेजे जाने वाले तेल पर रोक लगा दी। इस तेल से दीपक जलाये जाते थे। जब इस स्थिति की जानकारी संत को हुई तो उन्होंने शिष्यों से कुएं का पानी भर कर दीपकों में डालने को कहा। उनके आदेश का पालन हुआ और पानी तेल की तरह दीपकों में जलने लगा। दिल्ली का वही क्षेत्र आज ‘‘चिराग दिल्ली’’ के नाम से विख्यात है। इसी तरह बादशाह गयासुद्दीन एक बार उन्हें दण्डित करने की घोषणा करके चला था। बल्लभगढ़ के पास शाही लश्कर पहुंच चुका था। लोगों ने संत को इसकी सूचना दी तो वे बोले ‘अभी दिल्ली दूर है।’’ और दिल्ली पहुंचने के पहले ही गयासुद्दीन अपने ही बन्धु बान्धवों के षड़यंत्रों के कारण जान खो बैठा। उसके लिए दिल्ली दूर ही रही। दृश्य जगत की तरह दूसरा सटा हुआ या घुला हुआ अदृश्य जगत भी है, जिसका आभास हम साधारणतया स्वप्नावस्था में तथा विशेष अनुभूति निर्विकल्प समाधि तक पहुंचने पर करते हैं। शास्त्रकारों ने उन्हें लोक लोकान्तर कहा है। वे सूक्ष्म स्तर के हैं। अदृश्य स्तर के हैं। आकाशीय ग्रह नक्षत्रों में कहीं कोई वैसा लोक नहीं है, जैसा कि स्वर्ग, नरक, ब्रह्मलोक, शिवलोक आदि के रूप में वर्णन किया जाता है। सप्त लोकों की ब्रह्माण्डीय स्थिति अदृश्य है। उन्हें नेत्रों या उपकरणों से नहीं पकड़ सकते। इन अदृश्य लोकों में अदृश्य स्तर के देव, पितर, सिद्ध, मुक्त स्तर के जीव निवास करते हैं। वहां की परिस्थिति पदार्थपरक नहीं संवेदनपरक है। उस वातावरण में रहने वाले आनन्द, उल्लास, उमंग, तृप्ति, तुष्टि, शान्ति का हर घड़ी अनुभव करते रहते हैं। इन अदृश्य लोकों में ही वे पार्षद रहते हैं जिन्हें जीवन मुक्त कहा जाता है। जो ब्रह्म प्रेरणा से प्रेरित होकर संसार के असंतुलन को संतुलन में बदलने के लिए नियत समय तक महापुरुष, उद्धारक, सुधारक, अवतार आदि बन कर रहते हैं। उनका दृश्यमान शरीर अभीष्ट आयोजन पूरा होने तक ही कार्यरत रहता है, इसके बाद वह पूर्ववत् अदृश्य हो जाता है। यह परिकर भी छोटा नहीं है। पृथ्वी पर जितने मनुष्य रहते हैं, उसकी तुलना में अदृश्य लोकों के निवासी अदृश्य जीवन मुक्तों की संख्या कम नहीं है। जिस प्रकार संसारी लेागों में अपने-अपने ढंग की अनेक प्रतिभाएं और सम्पदायें होती हैं, उसी प्रकार अदृश्य लोकों की अदृश्य आत्माओं में अपने-अपने स्तर की अगणित विभूतियां, प्रमुख सिद्धियां, विशेषताएं दिव्य सम्पदाएं होती हैं। यह वैभव उनके पास संचित ही नहीं बना रहता, वरन् वे सत्पात्रों को सत्प्रयोजनों के लिए उदारतापूर्वक वितरित भी करती रहती है। नरसी मेहता को परमार्थ के लिए धन की जरूरत पड़ी। उनके पास कुछ साधु पहुंचे, कहा हमें गांव वालों ने आपके पास भेजा है। हम द्वारिकाजी जा रहे हैं। आप सात सौ रुपये रखकर हमें हुण्डी दे दें ताकि रास्ते का खतरा न रहे और द्वारिका जी में हमें धन प्राप्त हो जाय। नरसी ने प्रभु की भेजी सहायता समझकर वह रुपये ले लिए। अपने इष्ट सांवलिया जी के नाम हुण्डी लिख दी। द्वारिका जी में सांवलिया शाह के रूप में प्रभु ने वह हुण्डी लेकर साधुओं को 700 रु. दे दिए। वस्तुतः भगवान ही सूक्ष्म शरीर धारी आत्माओं द्वारा—दिशा निर्देशन-दिग्दर्शन द्वारा उच्चस्तरीय साधकों में प्रेरणा का संचार करते एवं दुःखी पीड़ितों का दुःख मिटाते हैं। लुम्का में जबर्दस्त बाढ़ आई हुई थी। सारा नगर कुछ ही क्षणों में जलमग्न हो जाने वाला था। इन्जीनियरों की सारी शक्ति निष्क्रिय हो गई, सब पाताल समाधि की प्रतीक्षा कर रहे थे। उसी समय कुछ व्यक्तियों ने फ्रीडियन नामक साधु से जाकर प्रार्थना की—महात्मन्! इस दैवी प्रकोप से बचाव का कुछ उपाय आप ही कीजिये। कहते हैं, महात्मा फ्रीडियन ने ओसर नदी की धारा प्रार्थना के बल से मोड़ दी और नगर को डूबने से बचा लिया। ये सभी उदाहरण प्राचीन पौराणिक गाथाएं कहकर झुठलाये जा सकते हैं और उनकी सत्यता से इनकार किया जा सकता है। हमारा देश सदियों से भाव प्रधान और आस्तिक-आध्यात्मिक विचारों की जन्मभूमि रहा है अतएव इन घटनाओं को किंवदन्तियों की भी संज्ञा दी जा सकती है। किन्तु सनातन सत्ता तो काल गति और ब्रह्माण्ड से सर्वथा परे है। जिस तरह वह प्राचीन काल में थी, आज भी है और उसकी अदृश्य सहायताएं पूर्व से पश्चिम, उत्तर से दक्षिण तक आज भी श्रद्धालु जन प्राप्त करते रहते हैं। टंग्स्टन तार पर धन व ऋण विद्युत धाराओं के अभिव्यक्त होने की तरह यह ईश्वरीय अनुदान जिन दो धाराओं के सम्मिश्रण से किसी भी काल में प्रकट होते रहते हैं वह हैं श्रद्धा और विश्वास। यह सत्ताएं जहां कहीं जब कभी हार्दिक अभिव्यक्ति पाती हैं परमेश्वर की अदृश्य सहायता वहां उभरे बिना नहीं रह सकती। इस तरह के सैकड़ों उदाहरण थियोसॉफी के विद्वान सी.डब्लू. लेडबीटर ने अपनी पुस्तक ‘‘इनविजिबल हेल्पर्स’’ नामक पुस्तक में दिये हैं जिनसे इस युग में भी अदृश्य देवी सत्ता के अस्तित्व पर विश्वास हुए बिना नहीं रहता। दैवी संकेतों से प्रेरणा लें प्रत्यक्षवाद को ही प्रमुख मानने वाले अन्य वैज्ञानिकों के परिहास की उपेक्षा कर कतिपय परामनोवैज्ञानिकों एवं भौतिकीविदों ने ऐसी घटनाओं का संकलन कर विश्लेषण किया व पाया कि कोई अदृश्य शक्ति जिसकी अभी तक खोज नहीं हो पायी है, ऐसे प्रसंगों का कारण बनता है जिन्हें परोक्ष अनुदान-सहायता के रूप में देखा जाता है लेकिन संयोग का अपवाद करार कर दिया जाता है। ब्रिटेन के भौतिकशास्त्री एवं सुप्रसिद्ध गणितज्ञ एड्रियन डॉब्स ने विभिन्न परीक्षणों के उपरान्त निष्कर्ष निकाला है कि ‘इस विश्व-ब्रह्माण्ड में ऐसी सूक्ष्म सन्देशवाहक शक्ति धाराएं निरन्तर प्रवाहित होती रहती हैं जो मानवी ज्ञानेन्द्रियों से सम्पर्क करती हैं। इन तरंगों की वेव-लेंग्थ लगभग एक समान होती है।’ अपनी पुस्तक ‘रुट्स ऑफ कॉइन्सीडेन्स’ में डॉ. डॉब्स की इन खोजों पर टिप्पणी करते हुए आर्थर कोसलर ने लिखा है कि इस माध्यम से ब्रह्माण्डव्यापी अदृश्य शक्तियां शरीरधारी मनुष्यों से सम्पर्क साधतीं, उन्हें पूर्वाभास कराती एवं संकट के समय मनोबल बढ़ाने वाला उत्कृष्ट चिन्तन देती हैं। पुराणों की कथाओं के अनुसार देवता और मनुष्य इसी लोक में घुल मिलकर रहते थे, एक दूसरे का सहयोग भी करते थे और विग्रह भी खड़े करते थे। अर्जुन एवं दशरथ देवताओं के पक्ष में लड़ने के लिए गये थे और रावण मेघनाद ने कुबेर का वैभव छीन लिया था, काल को खाट की पाटी से बांध लिया था। नारद जब चाहते थे तव विष्णु जी से वार्ता समाधान करने के लिए देव लोक जा पहुंचते थे। देवर्षि जब भी विष्णु भगवान के पास जाते थे तब एक ही प्रश्न करते थे कि विश्व की अस्त-व्यस्त व्यवस्था में सुधार कैसे हो? ऋषियों की आकांक्षा ‘काम ये दुःख तप्तानां प्राणिना, आर्त्तनाशनम्' में केन्द्रीभूत रहती रही है। उदारचेताओं का योग-तप भी इसी प्रयोजन के निमित्त होता रहा है। एक प्रकरण ऐसा भी आता है कि गुरु वृहस्पति ने देवताओं की विलास प्रियता से रुष्ट होकर उन्हें शाप दिया था कि तुम लोग अमर तो रहोगे पर देवलोक में सन्तानोत्पादन न कर सकोगे। फलतः किसी देवता की उसके बाद कोई संतान नहीं हुई। मेनका को विश्वामित्र से सम्पर्क साधने जाना पड़ा और उनसे उसे शकुन्तला पुत्री प्राप्त हुई जो कण्व ऋषि के आश्रम में पली। उर्वशी अर्जुन से विवाह करना चाहती थी पर अर्जुन की संयमशीलता के कारण बात बनी नहीं। कुन्ती को इस विषय में सफलता मिल गई। उसने पांचों पांडव देवाराधन के आधार पर तीन अपने और दो माद्री के गर्भ से प्राप्त किये। वे देवताओं की संतान माने गये हैं। एक उपाख्यान ऐसा भी आता है कि दिति और अदिति नामक महिलाओं से देव और दैत्य उत्पन्न हुए। ईसा का जन्म तो कुमारी मरियम के पेट से हुआ था पर उनके पिता स्वर्गस्थ परमात्मा थे। देवताओं को जब सन्तानोत्पादन की आवश्यकता हुई तब उन्हें मनुष्य लोकवासियों के साथ ही सम्पर्क साधना पड़ा है। शिवजी पृथ्वी पर आये, कैलाश पर्वत पर रहे। राजा हिमांचल की कन्या पार्वती के साथ उनका विवाह हुआ और उन्हीं से दो पुत्र प्राप्त हुए। अवतारों को जन्म धारण करने के लिए पृथ्वी पर ही आना पड़ा है। उनमें से अधिकांश मनुष्य माता-पिता के संयोग से ही जन्मे हैं। राम के अनन्य सहायक हनुमान को पवन पुत्र माना जाता है। जर्मनी के वैज्ञानिक ‘‘ऐरिकवान डैनिकेन’’ ने अपनी शोध पुस्तकों में विश्व भ्रमण के वर्णनों का उल्लेख करते हुए यह सिद्ध किया है कि मनुष्यों और देवताओं के बीच ईसा से 134 वर्ष पूर्व तक घनिष्ठ संबंध रहे हैं और वे इस धरती को अधिक सुसम्पन्न बनाने के लिए ऐसे काम करते रहे हैं, जो केवल मनुष्यों के तत्कालीन ज्ञान और साधनों के अनुसार किसी प्रकार संभव नहीं थे। इस बात को अब प्रायः 2000 वर्ष होने को आये हैं, जिसमें देवता और मनुष्यों के संबंध शिथिल हो गये। इसका कारण धरती निवासी मनुष्यों के आचार, व्यवहार एवं विश्वास में निकृष्टता की मात्रा बढ़ जाना है। डेनिकेन के अनुसार—‘मनुष्य मूलतः देव पुत्र है। उसे विकसित एवं सभ्यता की पराकाष्ठा पर पहुंचाने में देवशक्तियों का ही हाथ रहा है। विपन्न परिस्थितियों में प्रत्यक्ष या अप्रत्यक्ष रूप से उन्हीं की उदार सहायता काम करती रही है। दार्शनिक सुकरात अपने समय के प्रख्यात मनीषियों में से एक थे। उनने स्वयं तो अपनी जीवनी नहीं लिखी, पर विद्वान प्लेटो, जेनोफेन, प्लुटार्क आदि के ग्रन्थों से सुकरात की जीवन गाथा के साथ जुड़े हुए कितने ही प्रामाणिक संस्मरण मिलते हैं। उन उल्लेखों के आधार पर माना जाता है कि सुकरात के साथ एक दिव्य आत्मा रहती थी जिसे वे ‘‘डेमन’’ कहते थे। वह उन्हें हर महत्वपूर्ण विषय पर परामर्श दिया करती थी, जिन्हें वे अक्षरशः स्वीकारते थे। अविश्वास का कोई कारण भी नहीं— लेडी रुथ मान्टगुमरी की पुस्तक ‘सत्य की खोज में’ 20 वीं शताब्दी की सबसे आश्चर्यजनक घटना के रूप में ‘सराक्यूज की रोती हुई प्रतिमा’ का उल्लेख किया गया है। एक सरल हृदय अपंग किन्तु श्रद्धालु महिला की भाव-भरी प्रार्थना से विह्वल होकर उसकी प्लास्टर आफ पेरिस की प्रतिमा की आंखों से आंसू बह निकले। डच विद्वान फादर ए सोमर्स ने स्वयं मूर्ति और उसके आंसुओं का परीक्षण करने के बाद उसे विस्तार से समाचार पत्रों में छपाया और एच. जोर्गन ने उसका अंग्रेजी रूपान्तर प्रकाशित कराया। यह महिला थी एण्टोर्निएटा जिसका मार्च 1953 में विवाह हुआ था एवं उसकी आस्तिकता परक मनोवृत्ति होने के कारण उसकी एक भावुक मित्र ने उसे एक छोटी सी प्लास्टिक ऑफ पेरिस की ईसा की प्रतिमा भेट स्वरूप दी थी। यह एक विडम्बना ही थी कि विवाह के बाद गर्भ ठहरने पर वह रोगी हो गयी एवं भ्रूण परिपक्व होने के पूर्व ही नष्ट हो गया। लड़की को भयंकर मिर्गी के दौरे पड़ने लगे और जब भी वह होश में रहती, व्याकुल मन से परमात्मा से यही गुहार करती कि ‘‘हे प्रभु! तू कितना निर्दयी है। क्या तुझे अपनी सन्तान की पीड़ा देखकर दुःख नहीं होता।’’ हर समय प्रार्थना के समय वह प्रतिमा को अपने से चिपटाए रखती। कुछ ही दिनों में देखा गया कि एण्टोर्निएटा के साथ-साथ प्रतिमा की आंखों से आंसू झरने लगे हैं। इसी प्रतिमा को ‘‘वीपिंग स्टेच्यू ऑफ सराक्यूज’’ नाम से प्रसिद्धि मिली एवं सात दिन यह घटनाक्रम चलता रहा, वैज्ञानिक परीक्षण चले एवं कोई भी इस पहेली को सुलझा न पाया कि इन आंसुओं का कारण क्या है? परमात्म सत्ता की ऐसी ही कृपा का परिचय 1874 में इंगलैण्ड से न्यूजीलैण्ड जा रहे एक जहाज में घटी घटना से मिलता है। 214 यात्रियों को लेकर जा रहे इस जहाज की पेंदी में अचानक एक छेद हो गया। पानी तेजी से जहाज में भरने लगा। पम्पों से पानी निकाला जाने लगा पर पानी अन्दर आने की गति पम्पों की क्षमता से अधिक थी। अब तो लाइफ बोट से जितनी जानें बचायी जा सके, वे ही प्रयास किए जा रहे थे। तभी अचानक जहाज में पानी आना बन्द हो गया। सभी ने चैन की सांस ली। अगले बन्दरगाह पर जब मरम्मत के लिए जहाज रुका, तो पाया गया कि एक विशाल मछली की पूंछ जहाज की तली में हुए छेद में फंसी है एवं वह मृत मछली घिसटती हुई साथ चली आयी है, सारे यात्रियों ने इस मछली को परमात्मा का दूत माना जिसकी वजह से उनकी जान बची। सामूहिक प्रार्थनाओं का बल सदैव परमात्मा को स्वर्ग से धरती पर उतार लाने में समर्थ रहा। देवासुर संग्राम की कथाओं में ऐसे अनेक वर्णन हैं। महाभारत के युद्ध की घटना है। युद्ध भूमि में किसी टिटहरी ने अंडे दे रखे थे। युद्ध जोर का चल रहा था। पक्षियों को और कोई सहारा दिखाई न दिया तो उन्होंने ईश्वर की शरण ली। परमात्मा ने उनके विश्वास की रक्षा की। एक हाथी का घंटा टूटकर अंडों को छुपाता हुआ गिरा, युद्ध समाप्त होने पर उसमें से पक्षियों के बच्चे सकुशल निकाल लिये गये। एक घटना ‘‘जबलपुर की है। भक्त प्रहलाद के काल में घटी उस घटना की पुनरावृत्ति इस कलियुग में हुई, जिसमें कुम्हार के जलते हुए भट्ठे में ईश्वर ने बिल्ली और उसके बच्चों की रक्षा की थी। अन्तर केवल यह था कि वे बिल्ली के बच्चे थे और इस बार चिड़िया के अण्डे। पन्ना जिले के धर्मपुर स्थान में कच्ची ईंटों को पकाने के लिए एक बड़ा भट्ठा लगाया गया। भट्ठे को जिस समय बन्द किया गया और आग लगाई गई, किसी को पता नहीं चला कि ईंटों के बीच एक चिड़िया ने घोंसला बनाया है और उसमें अपने अण्डे सेये हैं। एक सप्ताह तक भट्ठा जलता रहा और ईंटें आंच में पकती रहीं, आठवें दिन जैसे ही भट्ठा खोला गया एक चिड़िया उड़कर बाहर निकल भागी। बाद में पाया कि उस स्थान पर जहां घोंसला था, आग पहुंची ही नहीं। वहां की ईंटें कच्ची थीं। यह घटना देखकर वहां के प्रत्यक्षदर्शियों को विश्वास करना पड़ा कि ईश्वरीयसत्ता का अस्तित्व है।’’ गजराज की पुकार पर परमात्मा को वाहन का भी परित्याग करना पड़ा था। नंगे पैरों वे दौड़े थे और गज को ग्राह के फन्दे से मुक्त किया था। जब भी जिस अवस्था में भी जिसने परमात्मा को सच्चे हृदय से पुकारा वह अपने आवश्यक कार्य छोड़कर दौड़ा। जीवात्मा के प्रति उसकी दया अगाध है, अनन्त है। वह भक्त का स्नेह बंधन ठुकराने में असमर्थ है। उसे स्मरण करते ही वह शक्ति मिल जाती है, जिससे मनुष्य कठिनाइयों को पार करता हुआ आगे बढ़ता चला जाय। मनुष्य जीवन में पग-पग पर ऐसी कठिनाइयां आती हैं कि उनमें ईश्वरीय सहयोग न मिले और परमात्मा का अनुग्रह न प्राप्त हो तो मनुष्य का जीवन विशृंखलित हो जाय। ईश्वर पर विश्वास कर लेने के बाद अंतःकरण में इतनी दृढ़ता आ जाती है कि फिर बाहरी कठिनाइयां विक्षेप नहीं कर पातीं और सफलता का मार्ग खुलता चला जाता है। प्रार्थना में निहित अपार शक्ति बल— कुछ समय पहले की बात है। जर्मनी के ब्रिस्टल नगर में दैवी शक्तियों से अनुप्राणित जार्ज मूलर ने अपने जीवन से लोगों को आश्चर्य चकित कर दिया। सारे यूरोप और अमेरिका में उनका नाम प्रसिद्ध हो गया। इन दोनों ही महाद्वीपों में वह प्रार्थना-मानव के रूप में विख्यात हुए। जार्ज मूलर की सफलता का रहस्य उन्हीं के शब्दों में यह था कि—‘एक दिन मैं—जार्ज मूलर के रूप वाले में लीन हो गया। जार्ज मूलर के रूप वाले मेरे सारे विचार, इच्छाएं, स्वीकृति सभी प्राणहीन हो गए। मेरा असली जीवन ईश्वर की इच्छा के अनुरूप जीवन का सदुपयोग करने वाला बन गया। जार्ज ब्रिस्टल एक अनाथालय चलाते थे। उसमें अनाथ बच्चों के पालन-पोषण, खान-पान, शिक्षा आदि का उचित प्रबन्ध था। अनाथालय का कार्य आरम्भ करने के पहले न तो उनके पास कोई जगह थी न रहने के लिए मकान था न—पास में रुपया था। उन्हें ईश्वर की प्रार्थना के परिणामस्वरूप एक हजार पौण्ड मिल गये और यह सेवा कार्य प्रारम्भ हो गया। किन्तु मूलर ने 93 वर्ष के जीवन में कभी भी स्वार्थ पूर्ति के लिए प्रार्थना नहीं की। उनके सारे कर्म परमेश्वर की पूजा के उपकरण थे। उन्हीं के जीवन की एक घटना है। एक बार उनको अपने सामाजिक कार्य के सिलसिले में कैनेडा के क्वेक स्थान पर पहुंचना था। रास्ते में समुद्र चारों ओर घने और अभेद्य कोहरे से ढका था। मार्ग भटकने अथवा किसी से टकरा जाने की पूरी सम्भावना थी। सभी चिन्तित परेशान थे। अब क्या होगा? मूलर ने कप्तान से कहा कि ‘चलिये जहाज के भीतरी कक्ष में हम दोनों ईश्वर से प्रार्थना करें कि कोहरा साफ हो जाय।’ कप्तान ने सोचा कि किस पागल खाने के आदमी से पाला पड़ा है। उसने प्रार्थना करना अस्वीकार कर दिया। कप्तान! मुझे ठीक समय पर क्यूबक पहुंचना है। मेरी दृष्टि कोहरे पर नहीं है, मैं ईश्वर की कृपा की ओर देख रहा हूं। मेरे जीवन में पहले कभी ऐसा अवसर नहीं आया कि मैं किसी निश्चित कार्यक्रम में यथा समय उपस्थित न हुआ हूं। मेरा विश्वास है कि प्रार्थना करने से ईश्वरीय कृपा से कोहरा समाप्त हो जायगा। मूलर ने दृढ़ता से कहा। वे भीतरी कक्ष में तत्काल प्रार्थना करने चले गए। पांच मिनट बाद ही भीतर से ही उन्होंने कप्तान से कहा कि आपका प्रार्थना में विश्वास नहीं है, इसलिए आपको अब प्रार्थना करने की जरूरत नहीं है। बाहर जाकर देखिए मेरी प्रार्थना के फलस्वरूप कोहरा साफ हो गया होगा। कप्तान ने जहाज के बाहरी मंच पर आकर देखा कि कोहरा साफ हो गया है। सभी यात्रियों को नव जीवन मिला। मूलर नियत समय पर कार्यक्रम में पहुंच सके। ऐसे उदाहरण इस युग में भी चरितार्थ होते रहते हैं। संत ज्ञानेश्वर, जगद्गुरु शंकराचार्य, संत सूर और तुलसी का जीवन बीते कुछ अधिक दिन नहीं हुये। भारतीय स्वतन्त्रता की उपलब्धि अभी कुछ दिन पूर्व ही हुई है। उसका प्रणेता महात्मा गांधी अकेला था। शरीर भी कुल 66 पौण्ड का था। कोई सेना साथ में न थी। कोई शस्त्र भी न उठाया था उनने। ‘‘राम-नाम’’ का बल था गांधी के पास, पर उस नाम के स्मरण और चिन्तन में ऐसी प्रगाढ़ निष्ठा भरी थी कि गांधी के नाम से बाहर आती थी और उत्तर दक्षिण में एक विकट तूफान सा उठ पड़ता था। वह शक्ति गांधी की नहीं थी, जनता की भी नहीं थी। संपूर्ण क्रांति का बीज वह ‘‘राम-नाम’’ था जो हर वक्त गांधी की जबान पर रहता था, उसके हृदय में गूंजता रहता था। आदिकाल से लेकर अब तक जितने भी संत महापुरुष हुये हैं और जिन्होंने भी आत्म-कल्याण या लोक-कल्याण की दिशा में कदम उठाया है, उन्होंने परमात्मा का आश्रय मुख्य रूप से लिया है। मनुष्य के पास शक्ति भी कितनी है। बहुत थोड़ा शरीर बल, उस पर विषयों के प्रलोभन, बहुत थोड़ा साधन बल, उस पर भी सांसारिक गतिरोध। अपनी ही सामर्थ्य पर वह न तो आत्म-कल्याण कर सकता है, न संसार की ही कुछ भलाई कर सकता है। पर जब भी उसने ईश्वर की जयकार की, उसे अपना सहयोगी चुना और सहायता के लिए पुकार की कि वह दौड़ा और उसकी शक्ति बनकर दिशा प्रदर्शित करने लगा। परमात्मा की कृपा पाकर मनुष्य अपना शंख बजाता हुआ चला जाता है, सफलता उसके पीछे-पीछे चलती है। ज्ञान की मशाल लेकर आगे बढ़ता है, लोक-कल्याण पीछे-पीछे भागता हुआ जाता है। इसमें श्रेय मनुष्य का नहीं परमात्मा का है। वही शक्ति बनकर पुरुष में अवतीर्ण होता है।
****समाप्त*
****समाप्त*