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Books - परोक्ष सत्ता एवं उसकी विधि व्यवस्था

Media: TEXT
Language: HINDI
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परोक्ष जगत में सक्रिय आसुरी प्रवाह व उनकी प्रतिक्रियाएं

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सूक्ष्म जगत में कई बार समय-समय पर ज्वार भाटे जैसे उतार-चढ़ाव आया करते हैं। कभी स्वार्थी, लालची, अपराधी, क्रूरकर्मी समाज में बढ़ जाते हैं। स्वयं तो कुछ लाभ उठा भी लेते हैं पर प्रभाव क्षेत्र के अन्य अनेकों का सर्वनाश करते रहते हैं, इसे आसुरी प्रवाह प्रचलन कहा जा सकता है। इसमें आसुरी शक्तियां विनाशकारी दुरभिसंधियां रचतीं और जिस-तिस माध्‍यम से अपने मनोरथ पूरे करने का प्रयत्‍न करती हैं। कभी-कभी उन्‍हें सफलता भी मिल जाती है। गुह्य वेत्ताओं के अनुसार पिछले विश्‍व युद्धों के पीछे इन्‍हीं असुर सत्ताओं की परोक्ष भूमिका रही है। द्वितीय विश्वयुद्ध का खलनायक हिटलर विश्व विजय के सपने देखता था। इसके लिए उसने युद्ध को—प्रचार को—षड़यन्त्र उपक्रम को ही माध्यम नहीं बनाया था वरन वह अभीष्ट की पूर्ति के लिए अदृश्य सहायता भी चाहता रहता था। एक असुर आत्मा उससे सतत् सम्पर्क बनाये हुए थी और उसके क्रूर कर्म में सहायता पहुंचाती रहती थी। इसके लिए वह तांत्रिक उपचारों का भी आश्रय लेता था। इस तथ्य की जानकारी उसके सम्बन्ध में लिखी गई बहुचर्चित पुस्तक—‘‘द ऑकल्ट राइख’’ को पढ़कर जानी जा सकती है। इस सम्बन्ध में अरविंद आश्रम की ‘श्री मां’ का कथन है कि दैवी शक्तियों की ही तरह आसुरी शक्तियों की भी सत्ता है। व्यक्ति अपने गुणों-अवगुणों के आधार पर इनमें से किसी एक का वरण कर सकता है। सेवा-सहकार त्याग स्नेह जहां दैवी शक्तियों के लिए चुम्बकीय आकर्षण का कारण बनते हैं वहीं लोभ, अहं, क्रूरता, आदि आसुरी शक्तियों को अपनी ओर खींच लाते हैं। उन्होंने अपने गुह्य अनुभव के आधार पर स्पष्ट किया था—कि हिटलर ऐसी ही आसुरी सत्ता के सम्पर्क में था, जिसे वह प्रेरणादायी चेतन सत्ता मानता था। वह सत्ता उसके पास आती और उसे सलाह देती थी, उसे वह सब बातें बताती थी जिन्हें उसे करना चाहिए था। यह सत्ता, जिसे हिटलर परात्पर प्रभु समझता था बिल्कुल स्पष्ट रूप से असुर थी, वह सत्ता थी जिसे गुह्य विद्या में ‘‘मिथ्यात्व का प्रभु’’ कहते हैं। उसका रूप बड़ा चमकीला था, वह असुर किसी भी व्यक्ति को धोखा दे सकता था। साधारणतया वह एक रुपहला कवच और टोप पहनकर हिटलर के सम्मुख प्रकट हुआ करती थी। उसके मस्तक से एक प्रकार की ज्वाला निकलती थी और उसके चारों ओर चौंधिया देने वाली ज्योति का वातावरण होता था। वह असुर हिटलर के साथ उसी तरह खेलता था जैसे कोई बन्दर या चूहे के साथ खेलता है। उसने स्पष्ट रूप से निर्णय ले रखा था कि वह हिटलर से उस दिन तक सभी प्रकार के सम्भव वही आचरण कराएगा जब तक कि वह उसकी गर्दन न मरोड़ दे। यह सब हिटलर के साथ इसलिए हुआ, क्योंकि वह आसुरी कार्यों हेतु एक बहुत अच्छा माध्यम था। उसमें विवेकबुद्धि का अभाव था, क्रूरता कूट-कूटकर भरी थी। इन आसुरी सत्ताओं के लिए मनुष्य बहुत नन्हीं वस्तुओं या रोबोट के समान होते हैं जिनके साथ वे ऐसे खेलती हैं, जैसे कि बिल्ली चूहे के साथ खेलती है और खेलती-खेलती अन्त में उसे निगल जाती है। श्री मां ने अपना निष्कर्ष प्रस्तुत करते हुए लिखा है कि ऐसी सत्ताओं का व उचित माध्यमों का समाज में बाहुल्य बना ही रहता है। सद्विचारों की प्रेरणाधारी सत्ताएं ही इनकी काट करती है। आसुरी सत्ता द्वारा माध्यमों को संकेत— ‘‘दि अण्डर स्टैन्डिग आफ ड्रीम्स एण्ड देयर एन्फ्लूएन्सेस आन दि हिस्ट्री आफ मैन’’ हार्थन बुक्स न्यूयार्क द्वारा प्रकाशित पुस्तक में भी एडाल्फ हिटलर के एक स्वप्न का जिक्र है जो उसने फ्रांसीसी मोर्चे के समय प्रथम विश्वयुद्ध में देखा था। हिटलर सन् 1916 में एक मामूली सिपाही था। मोर्चे पर खन्दक में वह लेटा पड़ा था। इसी बीच उसे झपकी आ गई। स्वप्न देखा कि एक भयानक अग्नि पिण्ड सामने से उसकी ओर लपकता आ रहा है। स्थिति मरने जैसी बन गई, पर किसी दिव्य शक्ति ने उसे हाथ पकड़कर दूसरी ओर उछालकर फेंक दिया और कहा—‘‘यह विशेष व्यक्ति है। अभी उसे विशेष काम करना है। यह समय इसके मरने का नहीं है।’’ स्वप्न का अन्त होने भी न पाया था कि हिटलर आतंकित होकर हड़बड़ाते हुए उठने लगा। अभी पूरी तरह संभल भी न पाया था कि सचमुच ही तोप का गोला सामने से सनसनाता हुआ आया और उसका कन्धा छूते हुए निकल गया। भयभीत हिटलर आश्रय-स्थल को छोड़कर अकेले ही दूर खाई के ऊपरी हिस्से पर जाकर खड़ा हो गया। वहां भी वह नहीं ठहर सका और अपनी इच्छा शक्ति के विरुद्ध आसुरी प्रेरणा के आधार पर आगे बढ़ गया। कुछ ही क्षणों के पश्चात बैरक में भयंकर विस्फोट हुआ और उसके सभी सिपाही मलबे में जिन्दा दफन हो गए। अकेला हिटलर ही बचा रहा। इस घटना ने हिटलर की महत्वाकांक्षा को आगे बढ़ाया। उसे विश्वास हो गया कि विश्व में कुछ महान कार्य करने के लिए भाग्य उसकी प्रतीक्षा कर रहा है और कोई अदृश्य सत्ता उसे सहायता प्रदान कर रही है। यही आसुरी सत्ता थी। यही वह दृश्य था जिसने हिटलर को अपने बारे में सर्वथा नवीन धारणा बनाने का अवसर दिया। उसी दिन से वह अपनी अदृश्य सहायता का सपना देखने लगा। इसी मानसिक उथल-पुथल ने उसे वह कर गुजरने तथा इतिहास में एक अहम् भूमिका निभाने का अवसर दिया, जिसकी कि एक सामान्य स्तर के सिपाही से आशा की ही नहीं जा सकती। उचित माध्यम की तलाश में आसुरी सत्ताएं— नेपोलियन भी आसुरी सत्ता के प्रभाव से सर्वथा मुक्त न था। आस्ट्रिया के साथ युद्ध में, युद्ध भूमि पर जाते समय नेपोलियन को गाड़ी में नींद आ गयी। तभी उसे एक स्वप्न दिखायी पड़ा जिसमें किसी अदृश्य सत्ता ने बताया कि वह जिस स्थान पर है, वह पूरी तरह बारूदी सुरंग से पटा हुआ है और उसके चारों ओर बमबारी हो रही है। दुःस्वप्न से उसकी नींद खुल गयी। निरीक्षण से ज्ञात हुआ कि सचमुच उस स्थान में बारूदी सुरंगें बिछी हुई थीं। उसने वह स्थान तुरन्त छोड़ दिया। थोड़ी ही देर बाद विस्फोट हुआ व वह सारा क्षेत्र धमाके के साथ उड़ गया। उसके साथियों की जान बच गयी। इसी तरह नेपोलियन बोनापार्ट जिन दिनों सेंट हेलेना द्वीप में था, उसको उसी आसुरी सत्ता ने उसकी मृत्यु की सूचना दी थी, जिसे उसके साथियों ने अमान्य कर दिया था। पर अन्त में नैपोलियन की मृत्यु ठीक उसी दिन उन्हीं परिस्थितियों में हुई, जो परोक्ष सत्ता ने बताई थीं। सम्भवतः उस प्रेतात्मा का बोनापोर्ट के प्रति विशेष लगाव था अथवा उसके रूप में प्रचण्ड मनोबल सम्पन्न एक उचित माध्यम परोक्ष सत्ता को मिल गया था। कहा जाता है कि आस्ट्रिया और हंगरी के दुहरे राजतंत्र के एक मात्र उत्तराधिकारी राजकुमार आर्कड्यूक फर्डिनेन्ड के पीछे एक आसुरी शक्ति सदैव साये की तरह लगी रहती थी। पुस्तकों में उल्लेख है कि जिस ‘केसल्स आफ मिरामर’ नामक राजमहल में वह रहता था और जिस कार में चलता था, दोनों पर उस असुर का आधिपत्य था। जुलाई 1914 में अपनी पत्नी के साथ वह इसी कार में बैठा जा रहा था कि एड्रीयाटिक समुद्र तट पर स्थित ट्रिएस्ट नगर के समीप साराजेबो नामक ग्राम में दोनों की हत्या कर दी गई। प्रथम विश्व युद्ध का सूत्रपात इसकी हत्या से ही आरंभ हुआ जिसमें राजमहल के सभी कर्मचारियों को मौत के घाट उतार दिया गया और आस्ट्रिया पर इटली का आधिपत्य हो गया। नृशंसता की चरम सीमा— असुरता कितनी नृशंस हो सकती है इसके छुटपुट और व्यक्तिगत उदाहरण हमें आये दिन देखने को मिलते रहते हैं। वैसा सामूहिक रूप से—बड़े पैमाने पर और मात्र सनक की पूर्ति के लिए भी किया जाता रहा है। उसके उदाहरण भी कम नहीं हैं। छुटपुट लड़ाई झगड़ों से लेकर महायुद्ध तक जितनी भी क्रूरतायें, जितनी भी विनाश लीलायें हुई हैं, सबके मूल में असुरता ही प्रधान रही है। हिटलर के दायें हाथ मार्शल गोरिंग की क्रूरता प्रसिद्ध थी। इन दोनों ने मिलकर शत्रु पक्ष की सेना का जितना संहार रचा था उससे दस गुने अधिक जर्मन नागरिक-अपने ही देशवासी गाजर मूली की तरह काट कर फेंक दिये थे। जिन कारणों से इतने मनुष्यों के प्राण हरण किये गये, वे इतने बड़े नहीं थे जिनके लिए मौत आवश्यक ही होती। थोड़ा डरा धमका देने से भी लोग चुप हो सकते या बदल सकते थे, पर इससे उन क्रूर कर्माओं की अहंता तृप्त कैसे होती। उनके सामने भिन्न मत वालों को मजा चखाने के लिए गोली ही एक मात शामक उपाय था। सामान्य नागरिकों को जिस प्रकार तड़फा-तड़फा कर इन लोगों ने मारा, उससे वे हत्याएं और भी अधिक वीभत्स हो जाती हैं। मारना ही ठहरा तो वह कार्य बन्दूक, बिजली आदि से सैकिण्डों में पूरा हो सकता था, उसके लिए इतनी नृशंस पीड़ा देने की क्या जरूरत थी; पर नहीं, इससे कम में उनके भीतर का पिशाच तृप्त ही नहीं हो सका और लाखों हत्याएं इस प्रकार इतनी प्रताड़नाओं के साथ की गईं, जिन्हें लिखना इसलिए अनुपयुक्त है कि पढ़ने वाले भयाक्रान्त हो जायेंगे। इन सबके मूल में उस नृशंसता के प्रवाह को ही मूल कारण मानना चाहिए जिसने इन दुर्दान्त दैत्यों के सिर पर चढ़कर वे काम कराए। इस प्रतिपादन से ये व्यक्ति दोष मुक्त तो नहीं हो जाते पर एक परोक्ष चेतन प्रवाह जिससे हम सबको बचना चाहिए, का अस्तित्व अवश्य प्रमाणित होता है। नादिरशाह के सम्बन्ध में सर्वविदित है कि वह खुरासान प्रान्त, ईरान का एक गड़रिया था। भेड़ चराते-चराते डाकेजनी करते हुए दूसरे डाकुओं को अपने नियंत्रण में कर डाकुओं का सरदार बन बैठा। इसी प्रकार वह ईरान की गद्दी पर जा बैठा। शासन सत्ता को अपने हाथ में लेने के बाद यदि वह चाहता तो इतिहास पुरुष बन सकता था और अपनी प्रतिभा का उपयोग जनहित में कर लाखों व्यक्तियों का वन्दनीय बन सकता था, पर उसके व्यक्तित्व में विद्यमान थे क्रूरता के—नृशंसता के, असुरता के तत्व। ईरान का शासक बनकर उसे पर पीड़ा में—नर हत्या में रस आने लगा और उसने कई देशों में कत्लेआम मचाया। भारत आकर उसने दिल्ली लूटी और एक दिन में डेढ़ लाख आदमी कत्ल कराये। दिल्ली प्रायः उजाड़ हो गई। भवन निर्माण कला के विशेषज्ञ जितने भी मिले उन सबको कैद करके वह ईरान ले गया। ऐसे ही नृशंस असुर-कृत्य इतिहास में पहले भी दृष्टिगोचर होते रहे हैं और मनुष्यता उन पिशाचों से पहले भी कलंकित होती रही है। तैमूर लंग वलख की गद्दी पर 1359 में बैठा। उसकी निर्दयता रोमांचकारी थी। उसने अपने शत्रुओं के रक्त और हड्डियों का गारा बनाकर कितनी हो मीनारें चिनवाईं। अंकारा के सुलतान वायजीद को उसने पकड़ा, एक पिंजड़े में उसे बन्द किया और उसे अपने साथ ले गया। दिल्ली को लूटा ही नहीं सारे शहर को लाशों से पाट दिया। इस तरह उसने न जाने कितने नगरों और गांवों में कत्लेआम कराया। खड़ी फसलों और बस्तियों में आग लगाते हुए वह आगे बढ़ता था। इस प्रक्रिया में उसे खूब आनन्द आता था। बारहवीं सदी का मगोल शासक चंगेज खां अपने लड़ाकू साथियों सहित जहां भी चढ़ाई करता, पहला काम कत्लेआम कराने का पूरा करता। लूट के धन से उसे जितनी खुशी होती थी उससे ज्यादा मजा उसे बिलखते चीत्कार करते नर-नारियों के सिर उड़ाने और भाले भोंकने में आता। 49 वर्ष की आयु में वह चीन का शासक बन बैठा। उसने अनेक नगर गांव उजाड़े। रूस का एक नगर तो उसने लाशों से इस तरह पाट दिया कि उन्हें उठाने वाला भी कोई नहीं बचा। बदबू से भयंकर बीमारी फैली यहां तक कि उसे स्वयं, उस नगर का कब्जा छोड़कर भागना पड़ा। चंगेज खां के बेटे—‘हलाकू खां’ पर भी वही असुरता छाई रही। उसने ईरान पर चढ़ाई करके उसकी ईंट से ईंट बजादी। खलीफा को खत्म किया—इस्लामियों का सफाया किया और उस देश को खून से रंग दिया। रोम का शासक नीरो 14 वीं शताब्दी में नौ वर्ष तक सिंहासनारूढ़ रहा। उसने अपनी करुणामयी माता का कत्ल करवाया, अपनी पत्नी का सिर कटवा डाला, जिन अफसरों से उसकी अनबन हुई, देखते-देखते उन्हें मौत के घाट उतार दिया। एक बार उचंग आई तो पूरा शहर ही जलवा कर खाक करा दिया और उस अग्निकाण्ड में होती हुई धन जन की भारी हानि का दृश्य एक अच्छे खासे मनोरंजन के रूप में ऊंची पहाड़ी पर बैठा देखता रहा। उस सर्वनाश का मजा उसने बांसुरी बजाते हुए लूटा। आसुरी प्रवाह से बचना कठिन— कोई व्यक्ति विश्वास करे अथवा नहीं। विलक्षण आसुरी शक्तियों के दुष्प्रभावों से कमजोर मनोबल वाला बच नहीं सकता। ब्राजील के नगर वेलेम में 15 मार्च 1983 को इसी तरह की एक घटना घटित हुई। डौजेरिना मैरिया सैंतोस नामक 31 वर्षीय महिला ने दुर्भावनावश अपने पति, माता तथा दो बच्चों की हत्या कर दी। सर्वप्रथम तो उसने एक लोहे की छड़ी से अपने सोते हुए पति की हत्या की, तदुपरान्त 78 वर्षीय अपनी मां को बड़ी नृशंसता से मार डाला और फिर अपने 2 वर्षीय बालक रूथ और सात महीने के डैनियल को गले में छुरा मारकर खत्म कर दिया। इसके उपरान्त सैंतोस ने अपने ऊपर ऐल्कोहल उड़ेलकर आत्म-हत्या की योजना बनायी ही थी कि पड़ौसियों ने उसकी जान बचा ली। सैंतोस ने अपने कथन से स्पष्ट किया कि काफी दिनों से उसके ऊपर आसुरी शक्ति हावी होती चली आ रही थी। इसी का दुष्परिणाम यह निकला कि नित्य बाइबिल का पठन-पाठन करने वाली सैंतोस को अंततः जेल में कड़ी सजा भुगतनी पड़ रही है। जर्मनी के विषाणु शोधकर्त्ता फिजराफ बेनेट्री को पुलिस ने पकड़ा और पाया कि वह छोटे बच्चों को चुरा कर उनको तड़फा-तड़फा कर मारने के कितने ही कुकृत्य कर चुका है। लोग आश्चर्यचकित रह गये जब उन्होंने यह सुना कि मानवतावादी विचारों का इतना अधिक समर्थन करने वाला व्यक्ति अकारण ही ऐसे क्रूर कर्म करने में संलग्न रहा है। बहुत पूछे जाने पर उसने इतना ही कहा कि कभी-कभी मेरे ऊपर उन्माद हावी हो जाता है व उसी आसुरी प्रेरणा के प्रवाह में मैं यह सब कर बैठता हूं। 1620 से 1666 तक लिपजिंग (जर्मनी) के सेशन कोर्ट में न्यायाधीश रहा बैनेडिक्ट कार्पजे बड़ी कठोर और क्रूर प्रकृति का था। लोग उसे दुर्दान्त ड्रैक्युला का अवतार बताते हैं। जो भी हो परन्तु उसका जीवन ड्रैक्युला से अद्भुत समानता रखता था। ड्रेक्यूला ने 46 वर्ष तक शासन किया, कार्पजे भी 46 वर्ष तक न्यायाधीश रहा। उसने इस काल में 30 हजार पुरुषों और 22 हजार स्त्रियों को फांसी पर चढ़ाया। छोटे अपराध, जुआ, चोरी और उठाईगीरी तक में वह मृत्यु-दण्ड देता था। जैसे मृत्युदण्ड से नीची सजा कोई हो ही नहीं। स्त्रियों को तो उसने जादू टोने के संदेह तक में पकड़वा कर फांसी पर चढ़ा दिया। कार्पजे ने औसतन प्रतिदिन पांच व्यक्तियों को फांसी पर चढ़वाया और फांसी देखने के लिए वह स्वयं वध-स्थल पर पहुंचता। फांसी लगने का दृश्य देखने में उसे बहुत रस आता था। इसके साथ ही वह यह व्यवस्था भी देखता कि मृतकों का मांस खाने के लिए शिकारी कुत्ते तथा दूसरे जानवर यथा समय पहुंचे हैं अथवा नहीं। दया या क्षमा जैसे शब्द तो कार्पजे ने कहीं सीखे ही नहीं थे, फिर भी वह अपने आपको धार्मिक कहता था। उसका अन्त भी ऐसा ही हुआ। वस्तुतः दैवी व्यवस्था किसी को क्षमा नहीं करती। आसुरी एवं दैव सत्ताओं में एक संग्राम सतत परोक्ष जगत में चलता रहता है एवं अंततः दैवी प्रवाह की ही विजय होती है। आसुरी प्रवाहों के ये घटना क्रम मात्र यही बताते हैं कि अपना काम कराने के लिए आसुरी सत्ताएं भी दैवी सत्ता की तरह किसी कमजोर मनोबल वाले को माध्यम बना लेती हैं।
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