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Books - सफल जीवन के कुछ स्वर्णिम सूत्र

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विवेक ही हमारा सच्चा मार्गदर्शक

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यह संसार जड़ और चेतन के, सत् और असत् के सम्मिश्रण से बना है। देव और दानव दोनों यहां रहते हैं। देवत्व और असुरता के बीच सदा सत्ता-संघर्ष चलता रहता है। भगवान का प्रतिद्वन्दी शैतान भी अनादिकाल से अपना अस्तित्व बनाये हुए है। परस्पर विरोधी रात और दिन का, अन्धकार और प्रकाश का जोड़ा न जाने कब से जुड़ा चला आ रहा है। कपड़ा ताने और बाने से मिलकर बना है, यद्यपि दोनों की दिशा परस्पर विरोधी है। यहां जलाने वाली गर्मी भी बहुत है। शीतलता देने वाली बर्फ से भी पूरे ध्रुव प्रदेश और पर्वत शिखर लदे पड़े हैं। यहां न सन्त-सज्जनों की कमी है और न दुष्ट-दुर्जनों की। पतन के गर्त में गिराने वाले तत्व अपनी पूरी साज-सज्जा बनाये बैठे और अपने आकर्षण जाल में सारे संसार को जकड़ने के प्रयास में संलग्न हैं। दूसरी ओर उत्थान की प्रेरणा देने वाली उत्कृष्टता भी मर नहीं गई है, उसकी प्रकाश किरणों का आलोक भी सदा ही दीप्तिमान रहता है और असंख्यों को श्रेष्ठता की दिशा में चलने के लिए बलिष्ठ सहयोग प्रदान करता है। परस्पर विरोधी सत्-असत् तत्वों का मिश्रण ही यह संसार है। भाप में जल की शीतलता और अग्नि की ऊष्मा का विचित्र संयोग हुआ है, यह संसार भाप से बने बादलों की तरह अपनी सत्ता बनाये बैठा है। इस हाट में से क्या खरीदा जाय, क्या नहीं? यह निर्णय करना हर मनुष्य का अपना काम है। पतन या उत्थान में से किस मार्ग पर चलना है? यह फैसला करना पूरी तरह अपनी इच्छा एवं रुचि पर निर्भर है। ईश्वर ने मनुष्य पर विश्वास किया है और इतनी स्वतन्त्रता दी है कि वह अपनी इच्छाशक्ति, ज्ञानशक्ति और क्रियाशक्ति किसी भी दिशा में किसी भी प्रयोजन के लिए उपयोग करे। इसमें किसी दूसरे का, यहां तक कि परमेश्वर तक का कोई हस्तक्षेप नहीं है।

कर्म करने में मनुष्य पूर्ण स्वतन्त्र है, पर परिणाम भुगतने के लिए वह नियोजक सत्ता के पराधीन है। हम विष पीने में पूर्ण स्वतन्त्र हैं, पर मृत्यु का परिणाम भुगतने से बच जाना अपने हाथ में नहीं है। पढ़ना, न पढ़ना विद्यार्थी के अपने हाथ में है, पर उत्तीर्ण होने, न होने में उसे परीक्षकों के निर्णय पर आश्रित रहना पड़ता है। कर्मफल की पराधीनता न रही होती तो फिर कोई सत्कर्म करने के झंझट में पड़ना स्वीकार ही न करता। दुष्कर्मों के दण्ड से बचना भी अपने हाथ में होता तो फिर कुकर्मों में निरत रहकर अधिकाधिक लाभ लूटने से कोई भी अपना हाथ न रोकता।

अदूरदर्शी इसी भूल-भुलैयों में भटकते देखे जाते हैं, वे तत्काल का लाभ देखते हैं और दूरगामी परिणाम की ओर से आंख बन्द किये रहते हैं। आटे के लोभ में गला फंसाने वाली मछली और दाने के लालच में जाल पर टूट पड़ने वाले पक्षी अपनी आरम्भिक जल्दबाजी पर प्राण गंवाते समय तक पश्चाताप करते हैं। आलसी किसान और आवारा विद्यार्थी आरम्भ में मौज करते हैं, पर जब असफलताजन्य कष्ट भुगतना पड़ता है तो पता चलता है कि वह अदूरदर्शिता कितनी महंगी पड़ी। व्यसन-व्यभिचार में ग्रस्त मनुष्य भविष्य के दुष्परिणाम को नहीं देखते। अपव्यय आरम्भ में सुखद और अन्त में कष्टप्रद होता है—यह समझ यदि समय रहते उपज पड़े तो फिर अपने समय-धन आदि को बर्बाद करने में किसी को उत्साह न हो। दुष्कर्म करने वाले अनाचारी लोग भविष्य में सामने आने वाले दुष्परिणामों की कल्पना ठीक तरह नहीं कर पाते और कुमार्ग पर चलते रहते हैं। सिर धुनकर तब पछताना पड़ता है जब दण्ड व्यवस्था सिर पर बेहिसाब बरसती और नस-नस को तोड़कर रखती है।

वस्तुस्थिति का सही मूल्यांकन कर सकना, कर्म के प्रतिफल का गम्भीरतापूर्वक निष्कर्ष निकलना, उचित-अनुचित के सम्मिश्रण में से जो श्रेयस्कर है उसी को अपनाना—यह विवेक बुद्धि का काम है। मोटी अकल इन प्रसंगों में बेतरह असफल होती है। अवांछनीयता में रहने वाला आकर्षण सामान्य चिन्तन को ऐसे व्यामोह में डाल देता है कि उसे तात्कालिक लाभ को छोड़ने का साहस ही नहीं होता, भले ही पीछे उसका प्रतिफल कुछ भी क्यों न भुगतना पड़े। इसी व्यामोह में ग्रस्त होकर अधिकतर लोग आलस्य-प्रमाद से लेकर व्यसन-व्यभिचार तक और क्रूर कुकर्मों की परिधि तक बढ़ते चले जाते हैं। इन्द्रिय लिप्सा में ग्रस्त होकर लोग अपना स्वास्थ्य चौपट करते हैं। वासना-तृष्णा के गुलाम किस प्रकार बहुमूल्य जीवन का निरर्थक गतिविधियों में जीवन सम्पदा गंवाते हैं—यह प्रत्यक्ष है। आंतरिक दोष-दुर्गुणों, षडरिपुओं को अपनाये रहकर व्यक्ति किस प्रकार खोखला होता चला जाता है, इसका प्रमाण आत्म-समीक्षा करके हम स्वयं ही पा सकते हैं।

अनर्थ मूलक भ्रम-जंजाल से निकालकर श्रेयस्कर दिशा देने की क्षमता केवल विवेक में ही होती है। वह जिसके पास मौजूद है समझना चाहिए कि उसी के लिए औचित्य अपनाना सम्भव होगा और वही कुछ महत्वपूर्ण कार्य कर सकने में समर्थ होगा। विवेक शीलता की कमी अन्य किसी गुण से पूरी नहीं हो सकती, अन्य गुण कितनी ही बड़ी मात्रा में क्यों न हों, पर यदि विवेक का अभाव है तो वह सही दिशा का चुनाव न कर सकेगा। दिग्भ्रान्त मनुष्य कितना ही श्रम क्यों न करे अभीष्ट लक्ष्य तक पहुंच सकना उसके लिए सम्भव ही न होगा।

विवेकशीलता को ही सत्य की प्राप्ति का एकमात्र साधन कहा जा सकता है। सत्य को नारायण कहा गया है, भगवान का सर्वाधिक सारगर्भित नाम सत्यनारायण है। यथार्थता के हम जितने अधिक निकट पहुंचते हैं भगवान के सान्निध्य का, उसके दर्शन का उतना ही लाभ लेते हैं। हीरा पेड़ों पर फूल की तरह लटका नहीं मिलता, वह कोयले की गहरी खदानें खोदकर निकालना पड़ता है। सत्य किसी को अनायास ही नहीं मिल जाता, उसे विवेक की कुदाली से खोदकर निकालना पड़ता है। दूध और पानी के अलग कर देने की आदत हंस में बताई जाती है। इस कथन में तो अलंकार मात्र है, पर यह सत्य है कि विवेक रूपी हंसवृत्ति उचित और अनुचित के चालू सम्मिश्रण में से यथार्थता को ढूंढ़ निकालती है और उस पर चढ़े हुए कलेवर को उतार फेंकती है। शरीर की आंतरिक स्थिति का सामान्यतः कुछ भी पता नहीं चलता, पर रक्त ‘एक्सरे’ मल-मूत्र आदि के परीक्षण से उसे जाना जाता है। सत्य और असत्य का विश्लेषण करने के लिए विवेक ही एकमात्र परीक्षा का आधार है। मात्र मान्यताओं, परम्पराओं, शास्त्रीय आप्त वचनों से वस्तुस्थिति को जान सकना अशक्य है। धर्मक्षेत्र का पर्यवेक्षण किया जाये तो पता चलता है कि संसार में हजारों धर्म सम्प्रदाय मत-मतान्तर प्रचलित हैं। उनकी मान्यतायें एवं परम्परायें एक दूसरे के सर्वथा विपरीत हैं, नैतिकता के थोड़े से सिद्धान्तों पर आंशिक रूप से वे जरूर सहमत होते हैं बाकी सृष्टि के इतिहास से लेकर ईश्वर की आकृति-प्रकृति अन्त उपासना तक के सभी प्रतिपादनों में घोर मतभेद है। प्रथा परम्पराओं के सम्बन्ध में कोई तालमेल नहीं, ऐसी दशा में किस शास्त्र को, किस अवतार को सही माना जाय—यह निर्णय नहीं हो सकता।

प्रत्येक सम्प्रदाय के अनुयायी अपने मार्गदर्शकों के प्रतिपादनों पर इतना कट्टर विश्वास करते हैं कि उनमें से किसी को झुठलाना उनके अनुयायियों को मर्मान्तक पीड़ा पहुंचाने के बराबर है। सभी मतवादी अपने मान्यताओं का अपने-अपने ढंग से ऐसा प्रतिपादन करते हैं कि मानो उनका विश्वास ही एकमात्र सत्य है। इसका अर्थ हुआ कि अन्य मतावलम्बी झूठे हैं, जिस एक को सत्य माना जाय वह भी अन्यों की दृष्टि में झूठा है। फिर परस्पर घोर विपरीतता लिए हुए प्रतिपादनों में से किसी को भी सत्य ठहराते नहीं बनता। वह कहानी उपहासास्पद है जिसमें अन्धों ने हाथी के कई अंगों को पकड़कर उसका वर्णन अपने अनुभवों के आधार पर किया था। इस कहानी में यह बात नहीं है कि एक ही कान को पकड़कर हर अन्धे ने उसे अलग-अलग प्रकार का बताया था, यहां तो यही होता देखा जा सकता है। पशुबलि को ही लें, एक सम्प्रदाय को तो उसके बिना धर्म-कर्म सम्पन्न ही नहीं होता दूसरा जीव हिंसा को धर्म के घोर विपरीत मानता है। दोनों ही अपनी-अपनी मान्यताओं पर कट्टर हैं, एक वर्ग ईश्वर को साकार बताता है, दूसरा निराकार। अपने-अपने पक्ष की कट्टरता के कारण अब तक असंख्यों बार रक्त की नदियां बहती रही हैं और विपक्षी को धर्मद्रोही बताकर सिर काटने में ईश्वर की प्रसन्नता जानी जाती रही है।

समाधान जब कभी निकलेगा तब विवेक की कसौटी का सहारा लेने पर ही निकलेगा, अन्य सभी क्षेत्रों की तरह धर्मक्षेत्र में भी असली-नकली का समन्वय बेतरह भरा है। किस धर्म की मान्यताओं में कितना अंश बुद्धि संगत है? यह देखते हुए यदि खिले हुए फूल चुन लिए जांय तो एक सुन्दर गुलदस्ता बन सकता है। बिना दुराग्रह के यदि सार संग्रह की दृष्टि लेकर चला जाये और प्राचीन-नवीन का भेद न किया जाये तो आज की स्थिति में जो उपयुक्त है उसे सर्वसाधारण के लिए प्रस्तुत किया जा सकेगा। वही सामयिक एवं सर्वोपयोगी धर्म हो सकेगा, ऐसे सार-संग्रह में विवेक को—तर्क-तथ्य को ही प्रामाणिक मानकर चलना पड़ेगा।

देश, काल, पात्र के अनुसार विधानों में परिवर्तन होता रहता है। भारत जैसे अन्य बहुत से देशों में शाकाहार ही मान्य है, पर उत्तरी ध्रुव के निवासी एस्किमो अन्न कहां पायें? उन्हें तो मांसाहार पर ही जीवित रहना है। सर्दी और गर्मी में एक जैसे वस्त्र नहीं पहने जा सकते। पहलवान और मरीज की खुराक एक जैसी नहीं हो सकती। देश, काल, पात्र की भिन्नता से बदलती हुई परिस्थितियां, विधि-व्यवस्था बदलती रहती हैं। स्मृतियां इसी कारण समय-समय पर नये ऋषियों द्वारा नई बदलती रही हैं। इनमें परस्पर भारी मतभेद है, यह मतभेद सत्य की दिशा में बढ़ते हुए कदमों ने उत्पन्न किये हैं। आज जो सत्य समझा जाता है वही भविष्य में भी समझा जायेगा—ऐसा मानकर नहीं चलना चाहिए। क्रमिक विकास की दिशा में बढ़ते हुए हमारे कदम अनेकों प्राचीन मान्यताओं को झुठला चुके हैं। सत्यान्वेषी दृष्टि बिना किसी संकोच और दुराग्रह के सत्य को स्वीकार करने के लिए तैयार रही है। यदि ऐसा न होता तो विज्ञान के क्षेत्र में प्रचलित मान्यताओं को समर्थन न मिला होता। प्राचीनकाल के वैज्ञानिकों की मान्यताओं और आज की मान्यताओं में जमीन-आसमान जितना अन्तर है। फिर भी भूतकाल के मनीषियों की कोई अवज्ञा नहीं करता।

मान्यताओं-प्रथाओं का प्रचलन समय के अनुरूप निर्धारित किया और बदला जाता रहा है। जब कृषि योग्य भूमि बहुत और जनसंख्या कम थी, हिंस्रपशुओं और जन्तुओं को जोर था तब अधिक उत्पादन और अधिक सुरक्षा की दृष्टि से बहुपत्नी प्रथा प्रचलित हुई थी और बहुत बच्चे उत्पन्न होना सौभाग्य का चिन्ह था।

आज उत्पादन की कमी, जनसंख्या की वृद्धि को देखते हुए सन्तानोत्पादन को समाजद्रोह जैसा अपराध गिना जाता है तो ठीक ही है। प्राचीनकाल की मान्यताओं की इस समय दुहाई देना प्रतिगामी नीति अपनाने की तरह है। कभी धनुष-बाण ही सबसे बड़ा अस्त्र था। मशीनगन विषैली गैस और भयानक बमों की तुलना में धनुष-बाण संभालने से क्या बनेगा। सुन्दर स्त्रियों का अपहरण करने के लिए लालायित फिरने वाले यवन शासकों से लड़कियों की शील रक्षा के लिए पर्दा प्रथा और बाल विवाह का प्रचलन किया गया था। आज वैसी कठिनाई नहीं रही तो उन प्रथाओं की लकीर पीटने में धर्म का डंका क्यों बजाया जाय? जो अपरिवर्तनशील शाश्वत, सनातन एवं सुस्थिर है वह इस संसार में एक ही है—विवेक। विवेक के आधार पर और सब कुछ तो बदला जा सकता है, पर वह स्वयं सदा-सर्वदा एक रस यथास्थान बना रहता है। इसीलिए उसे सत्य का प्राण एवं भगवान का प्रतीक प्रतिनिधि कहा गया है।
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