
दुष्टता से निपटें तो किस तरह?
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दुष्टता से निपटने के दो तरीके हैं—घृणा एवं विरोध। यों दोनों ही प्रतिकूल परिस्थितियों एवं व्यक्तियों के अवांछनीय आचरणों से उत्पन्न होने वाली प्रतिक्रियायें हैं, पर दोनों में मौलिक अन्तर है। विरोध में व्यक्ति या परिस्थिति को सुधारने-बदलने का भाव है। वह जहां संघर्ष की प्रेरणा देता है वहां उपाय भी सुझाता है। स्थिति बदलने में सफलता मिलने पर शान्त भी हो जाता है। कई बार ऐसा भी होता है कि भ्रान्त सूचनाओं अथवा मन की साररहित कुकल्पनाओं से ही अपने को बुरा लगने लगे और उसका समग्र विश्लेषण किए बिना झगड़ पड़ने की स्थिति बन पड़े। वह स्थिति ऐसी भयंकर भी हो सकती है जिसके लिए सदा पश्चाताप करना पड़े। इन बातों को ध्यान में रखते हुए विरोध के पीछे विवेक का भी अंश जुड़ा होता है और उसमें सुधार की, समझौते की गुंजाइश रहती है। बड़ा संघर्ष न बन पड़ने पर अन्यमनस्क हो जाने, असहयोग करने से भी विरोध अपना अभिप्राय किसी कदर सिद्ध कर ही लेता है।
हमें यह आशा नहीं रखनी चाहिए कि सम्पर्क क्षेत्र के सभी व्यक्तियों का स्वभाव-आचरण हमारे अनुकूल होगा। जैसा हमने चाहा है, वैसा ही करेंगे—ऐसा तो स्वतन्त्र व्यक्तित्व न रहने पर ही हो सकता है। प्राचीनकाल में दास-दासियों को बाधित करके ऐसी अनुकूलता के लिए तैयार किया जाता था, पर वे भी शारीरिक श्रम करने तक ही मालिकों की आज्ञा मानते थे। मानसिक विरोध बना ही रहता है, उसकी झलक मिलने पर स्वामियों द्वारा सेवकों को प्रताड़ना देने का क्रम आये दिन चलता रहता था। अब वह स्थिति भी नहीं रही, लोगों का स्वतन्त्र व्यक्तित्व जगा है और मौलिक अधिकारों का दावा विनम्र या अक्खड़ शब्दों में प्रस्तुत किया जाने लगा है। ऐसी दशा में बाधित करने वाले पुराने तरीके भी अब निरर्थक हो गये हैं। परस्पर तालमेल बिठाकर चलने के अतिरिक्त दूसरा यही मार्ग रह जाता है कि पूर्णतया सम्बन्ध विच्छेद कर लिया जाय। यह मार्ग भी निरापद नहीं है, क्योंकि सामने वाला अपने को अपमानित और उत्पीड़ित अनुभव करता है और जब भी दांव लगता है तभी हानि पहुंचाने के लिए कटिबद्ध हो जाता है।
व्यक्ति पत्थर का नहीं—मिट्टी का, मोम का है। उसे तर्कों या भावनाओं से प्रभावित करके बदला जा सकता है। यहां तक कि धातुओं को गलाकर भी उसके उपकरण ढाले जा सकते हैं, पत्थर से भी प्रतिमायें गढ़ी जा सकती हैं। इसलिए यह मान बैठना उपयुक्त नहीं कि परिस्थितियों में परिवर्तन न होगा और जिन व्यक्तियों से आज घृणा की जा रही है वे अगले दिनों सुधरने या अनुकूल बनने की स्थिति में न होंगे। वाल्मीकि, अंगुलिमाल, अजामिल जैसे बुरे व्यक्ति जब अच्छे बन सकते हैं तो कोई कारण नहीं कि जो प्रतिकूलता आज है वह भविष्य में अनुकूलता में न बदल सकेगी।
यहां किसी को समदर्शी होने की अव्यवहारिक दार्शनिक भूल-भुलैयों में नहीं भटकाया जा रहा है और न यह कहा जा रहा है कि सन्त और दुष्ट की समान सम्मान के साथ आरती उतारी जाय। व्याघ्र-भेड़ियों में, सर्प-बिच्छुओं में एक ही आत्मा विद्यमान मानकर साष्टांग दण्डवत् करते रहने की बात भी यहां नहीं कही जा रही है। बुराई को रोकने और भलाई को बढ़ाने का सिद्धांत जब तक जीवित है तब तक समदर्शी रहने की आशा चन्द्र-सूर्य जैसे देवताओं से तो की जा सकती है, पर विभिन्न परिस्थितियों में विभिन्न प्रकार का उपाय अपनाने का धर्म सिद्धान्त ही मनुष्य के व्यवहार में आ सकता है।
क्या बिना घृणा किये किसी को बदला-सुधारा जा सकता है? इसका उत्तर हां में दिया जा सकता है। गांधीजी का सत्याग्रह आन्दोलन, प्रह्लाद का असहयोग इसी आधार पर सफल हुआ था, उसमें बिना प्रतिहिंसा के ही काम चल गया था। रोगी को बचाना और रोग को मारना—यह गलत सिद्धांत नहीं है। यह पूर्णतया शक्य है, कठिन इसलिए प्रतीत होता है, क्योंकि उसका प्रयोग-अभ्यास करने का अवसर हमें मिला नहीं है।
चिकित्सक वही बुद्धिमान माना जाता है जो रोग को मारे किन्तु रोगी को बचा ले। रोग और रोगी को साथ-साथ ही मार डालने का काम तो कोई गंवार ही कर सकता है। किन्तु मनुष्य जीवन असामान्य है, उसमें सृष्टा की सर्वोत्तम कलाकृति का नियोजन हुआ है। हो सकता है कि उसमें कुछ दोष-दुर्गुण किसी कारण घुस पड़ें, पर वह जन्मजात रूप से वैसा नहीं है। प्रकृतितः वह वैसा नहीं है। सृष्टा ने अपनी अनेक विशेषतायें भी दी हैं, ऐसी दशा में किसी को भी पूर्णतया हेय या दुष्ट नहीं माना जा सकता। मनुष्य को दुष्टता के ढांचे में ढालने का कुकृत्य हेय-दर्शन द्वारा ही होता है। कुकृत्यों के लिए मूलतः कुविचार ही उत्तरदायी हैं और वे किसी के भी अन्तराल से नहीं निकलते, दूत की तरह बाहर से लगते हैं। संक्रामक रोगों की तरह उनका आक्रमण होता है—इस विपर्यय की यदि समय रहते रोकथाम हो सके तो मनुष्य की मौलिक श्रेष्ठता अक्षुण्ण ही बनी रह सकती है अथवा यदि वह मलेरिया की तरह चढ़ ही दौड़े तो उसे कड़वी कुनैन पिलाने भर से काम चल सकता है। इस अधिक उपयोगी और कारगर प्रक्रिया के रहते उस घृणा का उपयोग क्यों किया जाय जो शीतल जल की तरह विद्वेष को घटाने के काम नहीं आती वरन् ईंधन डालने की तरह आग को और बढ़ाती है।
कई बार मनुष्य इतना विद्वेषी नहीं होता जितना कि वह घृणा का तिरस्कार सहकर उद्धत हो उठता है और अपेक्षाकृत अधिक बड़ा प्रतिशोध लेने की चेष्टा करता है, जो एक तक ही सीमित न रहकर अनेकों को अपनी चपेट में लेता है। संसार में पहले से ही विद्वेष की कमी नहीं, उसे और अधिक भड़काने की अपेक्षा यह अधिक उपयुक्त है कि रोग को ही मरने दिया जाय। रोगी तो अच्छा होने पर उससे भी अधिक अच्छा सिद्ध हो सकता है जितना कि पिछले दिनों बुरा रह चुका है।
कोई समय था जब शासन, समाज, न्याय-व्यवस्था आदि का कोई उचित प्रबन्ध नहीं था। उस आदिमकाल में प्रतिद्वन्दियों से भी स्वयं ही भुगतना पड़ता था। यह पिछले काल की व्यवस्था थी, अब हम विकसित समाज में रह रहे हैं और यहां न्यायालयों का भी हस्तक्षेप है। अनीति की रोकथाम के लिए पुलिस का ढांचा बना हुआ है और आक्रमण किस स्तर का था? किन परिस्थितियों में बन पड़ा? इसका पर्यवेक्षण करने की गुंजाइश है, भले ही वह प्रक्रिया दोषपूर्ण हो और उसे सुधारने में समय लगे तो भी धैर्य रखना चाहिए और कानून अपने हाथ में लेने का बर्बर तरीका अपनाने की अपेक्षा, न्याय का निर्देश और समाजगत यश-अपयश के सहारे ही काम चला लेना चाहिए। क्षमा का समर्थन यहां सिद्धांत के रूप में नहीं किया जा रहा है। किसी को अपने कृत्य पर वास्तविक पश्चात्ताप हो और भविष्य में वैसा न कर गुजरने का कोई स्पष्ट कारण हो तो क्षमा की भी अपनी उपयोगिता है, वह समर्थों द्वारा दुर्बलों पर किया गया अहसान है। किन्तु यदि आक्रान्त अपने को सबल समझकर आक्रामकता अपना रहा है तो क्षमा की बात करना दुष्ट की दुष्टता को बढ़ाना और संसार में अनीति का अधिक विस्तार होने की संभावना को अधिकाधिक प्रबल बनाना है। उसका उपचार क्षमा के नाम पर कायरता अपनाने से नहीं हो सकता।
हमें यह आशा नहीं रखनी चाहिए कि सम्पर्क क्षेत्र के सभी व्यक्तियों का स्वभाव-आचरण हमारे अनुकूल होगा। जैसा हमने चाहा है, वैसा ही करेंगे—ऐसा तो स्वतन्त्र व्यक्तित्व न रहने पर ही हो सकता है। प्राचीनकाल में दास-दासियों को बाधित करके ऐसी अनुकूलता के लिए तैयार किया जाता था, पर वे भी शारीरिक श्रम करने तक ही मालिकों की आज्ञा मानते थे। मानसिक विरोध बना ही रहता है, उसकी झलक मिलने पर स्वामियों द्वारा सेवकों को प्रताड़ना देने का क्रम आये दिन चलता रहता था। अब वह स्थिति भी नहीं रही, लोगों का स्वतन्त्र व्यक्तित्व जगा है और मौलिक अधिकारों का दावा विनम्र या अक्खड़ शब्दों में प्रस्तुत किया जाने लगा है। ऐसी दशा में बाधित करने वाले पुराने तरीके भी अब निरर्थक हो गये हैं। परस्पर तालमेल बिठाकर चलने के अतिरिक्त दूसरा यही मार्ग रह जाता है कि पूर्णतया सम्बन्ध विच्छेद कर लिया जाय। यह मार्ग भी निरापद नहीं है, क्योंकि सामने वाला अपने को अपमानित और उत्पीड़ित अनुभव करता है और जब भी दांव लगता है तभी हानि पहुंचाने के लिए कटिबद्ध हो जाता है।
व्यक्ति पत्थर का नहीं—मिट्टी का, मोम का है। उसे तर्कों या भावनाओं से प्रभावित करके बदला जा सकता है। यहां तक कि धातुओं को गलाकर भी उसके उपकरण ढाले जा सकते हैं, पत्थर से भी प्रतिमायें गढ़ी जा सकती हैं। इसलिए यह मान बैठना उपयुक्त नहीं कि परिस्थितियों में परिवर्तन न होगा और जिन व्यक्तियों से आज घृणा की जा रही है वे अगले दिनों सुधरने या अनुकूल बनने की स्थिति में न होंगे। वाल्मीकि, अंगुलिमाल, अजामिल जैसे बुरे व्यक्ति जब अच्छे बन सकते हैं तो कोई कारण नहीं कि जो प्रतिकूलता आज है वह भविष्य में अनुकूलता में न बदल सकेगी।
यहां किसी को समदर्शी होने की अव्यवहारिक दार्शनिक भूल-भुलैयों में नहीं भटकाया जा रहा है और न यह कहा जा रहा है कि सन्त और दुष्ट की समान सम्मान के साथ आरती उतारी जाय। व्याघ्र-भेड़ियों में, सर्प-बिच्छुओं में एक ही आत्मा विद्यमान मानकर साष्टांग दण्डवत् करते रहने की बात भी यहां नहीं कही जा रही है। बुराई को रोकने और भलाई को बढ़ाने का सिद्धांत जब तक जीवित है तब तक समदर्शी रहने की आशा चन्द्र-सूर्य जैसे देवताओं से तो की जा सकती है, पर विभिन्न परिस्थितियों में विभिन्न प्रकार का उपाय अपनाने का धर्म सिद्धान्त ही मनुष्य के व्यवहार में आ सकता है।
क्या बिना घृणा किये किसी को बदला-सुधारा जा सकता है? इसका उत्तर हां में दिया जा सकता है। गांधीजी का सत्याग्रह आन्दोलन, प्रह्लाद का असहयोग इसी आधार पर सफल हुआ था, उसमें बिना प्रतिहिंसा के ही काम चल गया था। रोगी को बचाना और रोग को मारना—यह गलत सिद्धांत नहीं है। यह पूर्णतया शक्य है, कठिन इसलिए प्रतीत होता है, क्योंकि उसका प्रयोग-अभ्यास करने का अवसर हमें मिला नहीं है।
चिकित्सक वही बुद्धिमान माना जाता है जो रोग को मारे किन्तु रोगी को बचा ले। रोग और रोगी को साथ-साथ ही मार डालने का काम तो कोई गंवार ही कर सकता है। किन्तु मनुष्य जीवन असामान्य है, उसमें सृष्टा की सर्वोत्तम कलाकृति का नियोजन हुआ है। हो सकता है कि उसमें कुछ दोष-दुर्गुण किसी कारण घुस पड़ें, पर वह जन्मजात रूप से वैसा नहीं है। प्रकृतितः वह वैसा नहीं है। सृष्टा ने अपनी अनेक विशेषतायें भी दी हैं, ऐसी दशा में किसी को भी पूर्णतया हेय या दुष्ट नहीं माना जा सकता। मनुष्य को दुष्टता के ढांचे में ढालने का कुकृत्य हेय-दर्शन द्वारा ही होता है। कुकृत्यों के लिए मूलतः कुविचार ही उत्तरदायी हैं और वे किसी के भी अन्तराल से नहीं निकलते, दूत की तरह बाहर से लगते हैं। संक्रामक रोगों की तरह उनका आक्रमण होता है—इस विपर्यय की यदि समय रहते रोकथाम हो सके तो मनुष्य की मौलिक श्रेष्ठता अक्षुण्ण ही बनी रह सकती है अथवा यदि वह मलेरिया की तरह चढ़ ही दौड़े तो उसे कड़वी कुनैन पिलाने भर से काम चल सकता है। इस अधिक उपयोगी और कारगर प्रक्रिया के रहते उस घृणा का उपयोग क्यों किया जाय जो शीतल जल की तरह विद्वेष को घटाने के काम नहीं आती वरन् ईंधन डालने की तरह आग को और बढ़ाती है।
कई बार मनुष्य इतना विद्वेषी नहीं होता जितना कि वह घृणा का तिरस्कार सहकर उद्धत हो उठता है और अपेक्षाकृत अधिक बड़ा प्रतिशोध लेने की चेष्टा करता है, जो एक तक ही सीमित न रहकर अनेकों को अपनी चपेट में लेता है। संसार में पहले से ही विद्वेष की कमी नहीं, उसे और अधिक भड़काने की अपेक्षा यह अधिक उपयुक्त है कि रोग को ही मरने दिया जाय। रोगी तो अच्छा होने पर उससे भी अधिक अच्छा सिद्ध हो सकता है जितना कि पिछले दिनों बुरा रह चुका है।
कोई समय था जब शासन, समाज, न्याय-व्यवस्था आदि का कोई उचित प्रबन्ध नहीं था। उस आदिमकाल में प्रतिद्वन्दियों से भी स्वयं ही भुगतना पड़ता था। यह पिछले काल की व्यवस्था थी, अब हम विकसित समाज में रह रहे हैं और यहां न्यायालयों का भी हस्तक्षेप है। अनीति की रोकथाम के लिए पुलिस का ढांचा बना हुआ है और आक्रमण किस स्तर का था? किन परिस्थितियों में बन पड़ा? इसका पर्यवेक्षण करने की गुंजाइश है, भले ही वह प्रक्रिया दोषपूर्ण हो और उसे सुधारने में समय लगे तो भी धैर्य रखना चाहिए और कानून अपने हाथ में लेने का बर्बर तरीका अपनाने की अपेक्षा, न्याय का निर्देश और समाजगत यश-अपयश के सहारे ही काम चला लेना चाहिए। क्षमा का समर्थन यहां सिद्धांत के रूप में नहीं किया जा रहा है। किसी को अपने कृत्य पर वास्तविक पश्चात्ताप हो और भविष्य में वैसा न कर गुजरने का कोई स्पष्ट कारण हो तो क्षमा की भी अपनी उपयोगिता है, वह समर्थों द्वारा दुर्बलों पर किया गया अहसान है। किन्तु यदि आक्रान्त अपने को सबल समझकर आक्रामकता अपना रहा है तो क्षमा की बात करना दुष्ट की दुष्टता को बढ़ाना और संसार में अनीति का अधिक विस्तार होने की संभावना को अधिकाधिक प्रबल बनाना है। उसका उपचार क्षमा के नाम पर कायरता अपनाने से नहीं हो सकता।