
क्रोध स्वयं अपने लिए ही घातक
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क्रोध होने पर मनुष्य का ज्ञान नष्ट हो जाता है। क्रोधाक्रान्त मनुष्य यह नहीं समझ पाता कि वह क्या कह रहा है और क्या कर रहा है। क्रोध में आकर लोग अधिकतर अपनी ही हानि कर लेते हैं। दो परस्पर विरोधी व्यक्तियों में जो अपेक्षाकृत अधिक शान्त और संतुलित रहता है वही जीतता है। बुद्धिमान लोग अपने शत्रु को क्रोध से नहीं, शांति से नष्ट करते हैं। क्रोधी व्यक्ति जब एक बार किसी एक से क्रुद्ध हो जाता है तब उसका सन्तुलन यहां तक बिगड़ जाता है कि वह अन्य असम्बंधित व्यक्तियों से भी क्रोधपूर्ण व्यवहार एवं वार्ता करने लगता है और इस प्रकार और भी विरोधी बना लिया करता है।
क्रोधी व्यक्ति जब किसी पर क्रुद्ध होकर उसका कुछ बिगाड़ नहीं पाता तो अपने पर क्रोध करने लगता है, अपने को दण्ड देने और अपनी ही हानि करने लगता है। क्रोध मनुष्य को पागल की स्थिति में पहुंचा देता है। बुद्धिमान और मनीषी व्यक्ति क्रोध का कारण उपस्थित होने पर भी क्रोध का आक्रमण अपने पर नहीं होने देते। वे विवेक का सहारा लेकर उस अनिष्टकर आवेग पर नियंत्रण कर लेते हैं और इस प्रकार संभावित हानि से बच जाते हैं।
प्रचेता एक ऋषि के पुत्र थे। स्वयं भी साधन थे, वेद-वेदांग के ज्ञाता थे, संयम और नियम से रहते थे। दिन-अनुदिन तप संचय कर रहे थे किन्तु उनका स्वभाव बड़ा क्रोधी था, जब-तब इससे हानि भी उठाते थे, किन्तु न जाने वे अपनी इस दुर्बलता को दूर क्यों नहीं करते थे। इसकी उपेक्षा करने से होता यह था कि एक लम्बी साधना से जो आध्यात्मिक शक्ति प्रचेता संचय करते थे वह किसी कारण से क्रोध करके नष्ट कर लेते थे। इसलिए साधना में रत रहते हुए भी वे उन्नति के नाम पर यथास्थान ही ठहरे रहते थे। होना तो यह चाहिए था कि अपनी प्रगति के इस अवरोध का कारण खोजते और उसको दूर करते, लेकिन वे स्वयं पर ही इस अप्रगति से क्रुद्ध रहा करते थे। अस्तु एक मानसिक तनाव बना रहने से वे जरा-जरा सी बात पर उत्तेजित हो उठते थे।
एक बार वे एक वीथिका से गुजर रहे थे, उसी समय दूसरी ओर से कल्याणपाद नाम का एक और व्यक्ति आ गया। दोनों एक दूसरे के सामने आ गये, पथ बहुत संकरा था। एक के राह छोड़े बिना, दूसरा जा नहीं सकता था, लेकिन कोई भी रास्ता छोड़ने को तैयार न हुआ और हठपूर्वक आमने-सामने खड़े रहे। थोड़ी देर खड़े रहने पर उन दोनों ने हटना न हटना, प्रतिष्ठा-अप्रतिष्ठा का प्रश्न बना लिया—अजीब स्थिति पैदा हो गयी।
यहां पर समस्या का हल यही था कि जो व्यक्ति अपने को दूसरे से अधिक सभ्य, शिष्ट और समझदार समझता होता वह हट कर रास्ता दे देता और यही उसकी श्रेष्ठता का प्रमाण होता। निश्चित था कि प्रचेता कल्याणपाद से श्रेष्ठ थे, एक साधक थे और आध्यात्मिक उन्नति में लगे थे। कल्याणपाद एक धृष्ट और ढीठ व्यक्ति था, यदि ऐसा न होता तो एक महात्मा को रास्ता तो देता ही, साथ ही नमन भी करता। प्रचेता को यह बात समझ लेनी चाहिए थी, किन्तु क्रोधी स्वभाव के कारण उन्होंने वैसा नहीं किया बल्कि उसी के स्तर पर उतर कर अड़ गये। कुछ देर दोनों खड़े रहे, पर फिर प्रचेता को क्रोध हो आया। उन्होंने उसे श्राप दे दिया कि राक्षस हो जाए। श्राप के प्रभाव से कल्याणपाद राक्षस बन गया और प्रचेता को ही खा गया। क्रोध से विनष्ट प्रभाव हुए प्रचेता अपनी रक्षा न कर सके।
वस्तुतः क्रोध एक प्रकार का मानसिक बुखार है। चाहे तो एक विशेष प्रकार का उन्माद कह सकते हैं, जिसके चढ़ने पर यह नहीं सूझ पड़ता कि अनचाही स्थिति से निपटने के लिए क्या करना चाहिए।
जिसके साथ मतभेद हुआ या विवाद चला है, उसके ऊपर एकाएक बरस पड़ने से गुत्थी सुलझती नहीं वरन् और भी अधिक उलझ जाती है। लड़ पड़ना किसी को अपना प्रत्यक्ष शत्रु बना लेना है और इस बात के लिए उत्तेजित करना है कि वह भी बदले में वैसा ही अपमानजनक व्यवहार करे। आक्रोश और प्रतिशोध का एक कुचक्र है जो सहज ही टूटता नहीं।
क्रोध करके हम दूसरे को कितनी क्षति पहुंचा सके, दबाव देकर अपनी मनमर्जी किस हद तक पूरी कर सके—यह कहना कठिन है, पर इतना निश्चित है कि उससे अपना रक्त-मांस जलने से लेकर मानसिक संतुलन गड़बड़ाने जैसी कितनी ही हानियां तत्काल होती हैं। गलती किसी की कुछ भी क्यों न हो, पर जब दर्शक किसी को आप से बाहर होते देखते हैं तो उसी को दोषी मानते हैं। जो अपनी शालीनता गंवा चुका उसके साथ किसी को सहानुभूति नहीं हो सकती। इस प्रकार क्रोधी कारण विशेष पर उत्तेजित होते हुए भी अपने आपको अकारण अपराधी बना लेता है।
दार्शनिक सोना का मत है कि ‘‘क्रोध शराब की तरह मनुष्य को विचार शून्य और लकवे की तरह शक्तिहीन कर देता है। दुर्भाग्य की तरह यह जिसके पीछे पड़ता है उसका सर्वनाश ही करके छोड़ता है।’’
प्रसिद्ध वैज्ञानिक डा. जे. एस्टर ने क्रोध से पीड़ित मनःस्थिति का अध्ययन किया तथा यह निष्कर्ष प्रस्तुत किया कि ‘पन्द्रह मिनट के क्रोध से शरीर की जितनी शक्ति नष्ट हो जाती है उससे व्यक्ति नौ घण्टे तक कड़ी मेहनत करने में समर्थ हो सकता है, इसके अतिरिक्त क्रोध शरीर सौष्ठव को भी नष्ट करता है। भरी जवानी में बुढ़ापे का लक्षण, आंखों के नीचे चमड़ी का काला होना, आंखों में लाल रेखाओं का उद्भव तथा शरीर में जहां-तहां नीली नसों का उभरना क्रोध के ही परिणाम है।’
न्यूयार्क के वैज्ञानिकों ने चूहों के ऊपर एक प्रयोग किया है। उसमें क्रोधी मनुष्य के रक्त को चूहे के शरीर में डाला गया तथा उसके परिणामों का अध्ययन किया गया। 22 मिनट के उपरान्त ही चूहे में आक्रोश का भाव देखा गया, वह मनुष्य को काटने दौड़ा। लगभग 35 मिनट बाद उसने स्वयं को ही काटना शुरू किया और अन्ततः एक घण्टे के बाद मर गया।
वैज्ञानिकों ने निष्कर्ष प्रस्तुत किया कि क्रोध के कारण विषाक्तता उत्पन्न होती है जो पाचन-शक्ति के लिए अत्यन्त खतरनाक सिद्ध होता है। क्रोधी स्वभाव की माताओं का दूध भी विषाक्त पाया गया है, उससे बच्चे के पेट में मरोड़ की शिकायत उत्पन्न होती है तथा कभी-कभी तो अधिक विषाक्तता के कारण बच्चे की मृत्यु तक हो जाती है। आमतौर से आत्महत्या की घटनायें भी क्रोध से ही अभिप्रेरित होती हैं।
आवेशग्रस्तता घातक है, इससे बचें
मस्तिष्कीय ज्वर की भांति ही आवेश एक ऐसी उत्तेजना है जो पैर पटकने, सिर धुनने की तरह कुछ न कुछ अनर्थ करके ही विराम लेता है। आवेशग्रस्त व्यक्ति परिस्थितियों को अपने अनुकूल-अनुरूप ही देखना चाहता है, पर यह व्यवहार में संभव नहीं। हर व्यक्ति की अपनी स्वतन्त्र प्रकृति और विचारधारायें हैं। इसी प्रकार परिस्थितियां अनेक उलझनों के बीच निकलती हुई अपना ढांचा बनाती हैं, उन पर इतना अधिकार किसी का नहीं कि इच्छा मात्र से अनुकूलन को आमंत्रित कर सके और उसे सदा वशवर्ती बनाये रह सके।
आतुर व्यक्ति में इतना धैर्य नहीं होता कि वह परिस्थितियों की अनुकूलता के लिए आवश्यक चिंतन या प्रयास कर सके। वह किसी तानाशाह की तरह तुरन्त अपनी इच्छा या आकांक्षा को कार्यान्वित होते देखना चाहते हैं, पर चाहने भर से आकांक्षा की पूर्ति कहां होती है।
होना यह चाहिए कि व्यक्ति धैर्य रखे और तालमेल बिठाने के उपाय करे। इच्छित परिस्थितियों के बिना काम चलाये अथवा इतना धैर्य रखे कि परिवर्तन में जो समय लगे उसकी प्रतीक्षा बन पड़े। उत्तेजना को यह समझ करके भी शान्त किया जा सकता है कि संसार केवल हमारी ही इच्छा के अनुरूप चलने के लिए नहीं बनाया गया है, उनके साथ और भी कितने ही प्रयोजन जुड़े हुए हैं। उनमें से जितनी सुविधायें जब मिल सकें तब तक के लिए धैर्य रखना चाहिए।
किन्तु आतुर व्यक्ति उतावला होता है, इच्छा पूर्ति न होने पर किसी न किसी को दोषी ठहराता है। यह नहीं सोचता कि इसमें अपनी गलती भी हो सकती है और उसे सुधारने के लिए दूसरे उपाय अपनाये जा सकते हैं।
इच्छा से करने का हर किसी को अधिकार है, पर उसे उतना उतावला नहीं होना चाहिए कि जो चाहा गया है वह नियत अवधि के अन्दर या नियत तरीके से ही पूरा होना चाहिए। अनुकूल अवसर पर इच्छा पूरी या अधूरी मात्रा में पूरी हो सके—इसके लिए धैर्य रखने और प्रतीक्षा करने की आवश्यकता है। परिस्थितियां नहीं बदलतीं तो मनःस्थिति को बदल लेना भी एक उपाय है। संसार में अनेक इच्छित वस्तुयें या परिस्थितियां हैं वे सभी पूरी नहीं होती हैं तो अधीर होने की अपेक्षा यही अच्छा है कि जितना उपलब्ध है उससे ही सन्तोष करें। हर किसी की हर इच्छा तुर्त-फुर्त पूरी होनी ही चाहिए—यह संसार का नियम नहीं है।
किसी जमाने में तानाशाह ऐसे होते थे जो न्याय या परिस्थितियों पर विचार करने की अपेक्षा अपनी हविश पूरी न होने को ही बढ़ा-चढ़ा अपराध मानते थे और उसके बदले मृत्युदण्ड सुना देते थे। सहकारियों में से किसी की इतनी हिम्मत नहीं होती थी कि उस निर्देश के सम्बन्ध में ननुनच कर सके। ऐसी पूछताछ करने में भी उस अहंकारी का अपमान होता था, वह समय अब नहीं रहा। जिस पर आरोप लगाया गया है उसे अपनी बात कहने, सफाई देने का अवसर दिया जाता है किन्तु अव्यवस्थित व्यक्ति को इतना भी अवसर देने की गुंजाइश नहीं रहती। प्रतिपक्षी को अपराधी ही निश्चित करता है और अपराध के बदले में मृत्युदण्ड से हल्की सजा भी हो सकती? यह वह नहीं सोच पाता कि ऐसा घातक निर्णय कर गुजरने पर अपने ऊपर क्या बीतेगी। आक्रमण के बदले में क्या दण्ड मिलते हैं? इसे जानते हुए भी वह उस सम्बन्ध में भी विचार नहीं करता और जिसके साथ चाहे जैसा व्यवहार कर बैठता है। एक ही पक्ष पर आरूढ़ रहता है, दूसरे विकल्प का विचार नहीं करता—ऐसा व्यक्ति शत्रुता को देर तक जकड़े रहता है। साधारणतया प्रेम और द्वेष के आवेश कुछ समय में उतर जाते हैं, पर जब घृष्टता चरम सीमा पर होती है तो उसका दुष्प्रयोजन एक निश्चय की तरह जड़ जमा लेता है और अपनी दृष्टि में जिसे भी अपराधी ठहरा लिया है, उससे प्रतिशोध लिए बिना नहीं मानता।
आमतौर से हत्याकाण्ड ऐसी ही आवेशग्रस्त मनःस्थिति में होते हैं। दूसरा कारण है—लालच। जिस उपाय से कोई बड़ी पूंजी हाथ लगे उसे कर गुजरने में भी निर्भय लोग चूकते नहीं। उसे यह सोचने की क्षमता नहीं होती कि जिसे सताया जा रहा है उस पर क्या बीतेगी? आवेशग्रस्तों की तरह निर्ममता या नृशंसता भी ऐसा ही मनोविकार है जो संवेदना रहित होता है। उसे दूसरों की पीड़ा के प्रति कोई सहानुभूति नहीं होती, वे ऐसे कुकृत्य कर बैठते हैं जिससे अपने राई भर लाभ के लिए दूसरों को भले ही मर्मांत पीड़ा सहनी पड़े। यह अपराधी मनोवृत्ति का चिन्ह है जो संगति और सहमति से पनपती है। हत्याओं-अपराधों का साहित्य बाजार में भरा पड़ा है, अपनी शेखी बघारने के लिए क्रूरकर्मी दूसरे के सामने भी अपने कुकृत्यों की बढ़ी-चढ़ी शेखी बघारते हैं और बताते हैं कि उस शौर्य के बदले उनने कितना लाभ उठाया। ऐसे लोगों की संगति से भी आदर्श विहीन लोगों का मन उस ओर ढुलक जाता है और कौतूहलवश ऐसे कुकृत्य करते-करते वे उस व्यवसाय में कसाइयों की भांति नृशंस हो जाते हैं।
आवेशग्रस्त लोगों का एक और भी तरीका है कि वे आत्महत्या या पलायन की बात सोचते हैं और यह कल्पना करते हैं कि उनके न रहने पर प्रतिपक्षी को कितनी व्यथा सहनी पड़ेगी या कठिनाई उठाने पड़ेगी? जिनको आक्रमण की अपेक्षा आत्मघात सरल प्रतीत होता है वे उस रीति को अपना लेते हैं और जो भी तरीका समझ में आता है उससे आत्मघात कर बैठते हैं।
हत्या या आत्महत्या मनुष्य के हेय व्यक्तित्व का उभार है। मनुष्य में श्रेष्ठता और दुष्टता दोनों के अंश होते हैं। प्रयत्नपूर्वक उसकी करुणा और सहृदयता भी जगाई जा सकती है, जिससे प्रेरित होकर वह सेवा-सहायता जैसी सत्प्रवृत्तियां भी अपना सकता है, पर इसके लिए जन्मजात संस्कार ही नहीं वातावरण और प्रशिक्षण भी ऐसा मिलना चाहिए जिसके प्रभाव से सज्जनता उभरे। ऐसे छोटे-छोटे काम उसे आरम्भ में ही सौंपे जाय, जिसके सहारे सहानुभूति और संवेदना उभरे तथा निजी महत्वाकांक्षाओं के आवेशों पर नियन्त्रण करने का अभ्यास पड़े। इसके विपरीत जिन्हें दुश्चिंतन का आधार मिलता है उन्हें कुकर्मियों के दुस्साहसों में शौर्य-पराक्रम ढूंढ़ने की आदत पड़ जाती है। वह दुर्बलों पर अनीति बरतते-बरतते इतने निष्ठुर हो जाते हैं जो दूसरों का अहित करने की तरह अपने आपको भी प्रतिशोध और आत्म प्रताड़ना का दुहरा काम सहने के लिए बाधित करे—इस मार्ग पर आने की रोकथाम किशोरावस्था में ही करनी चाहिए।
क्रोधी व्यक्ति जब किसी पर क्रुद्ध होकर उसका कुछ बिगाड़ नहीं पाता तो अपने पर क्रोध करने लगता है, अपने को दण्ड देने और अपनी ही हानि करने लगता है। क्रोध मनुष्य को पागल की स्थिति में पहुंचा देता है। बुद्धिमान और मनीषी व्यक्ति क्रोध का कारण उपस्थित होने पर भी क्रोध का आक्रमण अपने पर नहीं होने देते। वे विवेक का सहारा लेकर उस अनिष्टकर आवेग पर नियंत्रण कर लेते हैं और इस प्रकार संभावित हानि से बच जाते हैं।
प्रचेता एक ऋषि के पुत्र थे। स्वयं भी साधन थे, वेद-वेदांग के ज्ञाता थे, संयम और नियम से रहते थे। दिन-अनुदिन तप संचय कर रहे थे किन्तु उनका स्वभाव बड़ा क्रोधी था, जब-तब इससे हानि भी उठाते थे, किन्तु न जाने वे अपनी इस दुर्बलता को दूर क्यों नहीं करते थे। इसकी उपेक्षा करने से होता यह था कि एक लम्बी साधना से जो आध्यात्मिक शक्ति प्रचेता संचय करते थे वह किसी कारण से क्रोध करके नष्ट कर लेते थे। इसलिए साधना में रत रहते हुए भी वे उन्नति के नाम पर यथास्थान ही ठहरे रहते थे। होना तो यह चाहिए था कि अपनी प्रगति के इस अवरोध का कारण खोजते और उसको दूर करते, लेकिन वे स्वयं पर ही इस अप्रगति से क्रुद्ध रहा करते थे। अस्तु एक मानसिक तनाव बना रहने से वे जरा-जरा सी बात पर उत्तेजित हो उठते थे।
एक बार वे एक वीथिका से गुजर रहे थे, उसी समय दूसरी ओर से कल्याणपाद नाम का एक और व्यक्ति आ गया। दोनों एक दूसरे के सामने आ गये, पथ बहुत संकरा था। एक के राह छोड़े बिना, दूसरा जा नहीं सकता था, लेकिन कोई भी रास्ता छोड़ने को तैयार न हुआ और हठपूर्वक आमने-सामने खड़े रहे। थोड़ी देर खड़े रहने पर उन दोनों ने हटना न हटना, प्रतिष्ठा-अप्रतिष्ठा का प्रश्न बना लिया—अजीब स्थिति पैदा हो गयी।
यहां पर समस्या का हल यही था कि जो व्यक्ति अपने को दूसरे से अधिक सभ्य, शिष्ट और समझदार समझता होता वह हट कर रास्ता दे देता और यही उसकी श्रेष्ठता का प्रमाण होता। निश्चित था कि प्रचेता कल्याणपाद से श्रेष्ठ थे, एक साधक थे और आध्यात्मिक उन्नति में लगे थे। कल्याणपाद एक धृष्ट और ढीठ व्यक्ति था, यदि ऐसा न होता तो एक महात्मा को रास्ता तो देता ही, साथ ही नमन भी करता। प्रचेता को यह बात समझ लेनी चाहिए थी, किन्तु क्रोधी स्वभाव के कारण उन्होंने वैसा नहीं किया बल्कि उसी के स्तर पर उतर कर अड़ गये। कुछ देर दोनों खड़े रहे, पर फिर प्रचेता को क्रोध हो आया। उन्होंने उसे श्राप दे दिया कि राक्षस हो जाए। श्राप के प्रभाव से कल्याणपाद राक्षस बन गया और प्रचेता को ही खा गया। क्रोध से विनष्ट प्रभाव हुए प्रचेता अपनी रक्षा न कर सके।
वस्तुतः क्रोध एक प्रकार का मानसिक बुखार है। चाहे तो एक विशेष प्रकार का उन्माद कह सकते हैं, जिसके चढ़ने पर यह नहीं सूझ पड़ता कि अनचाही स्थिति से निपटने के लिए क्या करना चाहिए।
जिसके साथ मतभेद हुआ या विवाद चला है, उसके ऊपर एकाएक बरस पड़ने से गुत्थी सुलझती नहीं वरन् और भी अधिक उलझ जाती है। लड़ पड़ना किसी को अपना प्रत्यक्ष शत्रु बना लेना है और इस बात के लिए उत्तेजित करना है कि वह भी बदले में वैसा ही अपमानजनक व्यवहार करे। आक्रोश और प्रतिशोध का एक कुचक्र है जो सहज ही टूटता नहीं।
क्रोध करके हम दूसरे को कितनी क्षति पहुंचा सके, दबाव देकर अपनी मनमर्जी किस हद तक पूरी कर सके—यह कहना कठिन है, पर इतना निश्चित है कि उससे अपना रक्त-मांस जलने से लेकर मानसिक संतुलन गड़बड़ाने जैसी कितनी ही हानियां तत्काल होती हैं। गलती किसी की कुछ भी क्यों न हो, पर जब दर्शक किसी को आप से बाहर होते देखते हैं तो उसी को दोषी मानते हैं। जो अपनी शालीनता गंवा चुका उसके साथ किसी को सहानुभूति नहीं हो सकती। इस प्रकार क्रोधी कारण विशेष पर उत्तेजित होते हुए भी अपने आपको अकारण अपराधी बना लेता है।
दार्शनिक सोना का मत है कि ‘‘क्रोध शराब की तरह मनुष्य को विचार शून्य और लकवे की तरह शक्तिहीन कर देता है। दुर्भाग्य की तरह यह जिसके पीछे पड़ता है उसका सर्वनाश ही करके छोड़ता है।’’
प्रसिद्ध वैज्ञानिक डा. जे. एस्टर ने क्रोध से पीड़ित मनःस्थिति का अध्ययन किया तथा यह निष्कर्ष प्रस्तुत किया कि ‘पन्द्रह मिनट के क्रोध से शरीर की जितनी शक्ति नष्ट हो जाती है उससे व्यक्ति नौ घण्टे तक कड़ी मेहनत करने में समर्थ हो सकता है, इसके अतिरिक्त क्रोध शरीर सौष्ठव को भी नष्ट करता है। भरी जवानी में बुढ़ापे का लक्षण, आंखों के नीचे चमड़ी का काला होना, आंखों में लाल रेखाओं का उद्भव तथा शरीर में जहां-तहां नीली नसों का उभरना क्रोध के ही परिणाम है।’
न्यूयार्क के वैज्ञानिकों ने चूहों के ऊपर एक प्रयोग किया है। उसमें क्रोधी मनुष्य के रक्त को चूहे के शरीर में डाला गया तथा उसके परिणामों का अध्ययन किया गया। 22 मिनट के उपरान्त ही चूहे में आक्रोश का भाव देखा गया, वह मनुष्य को काटने दौड़ा। लगभग 35 मिनट बाद उसने स्वयं को ही काटना शुरू किया और अन्ततः एक घण्टे के बाद मर गया।
वैज्ञानिकों ने निष्कर्ष प्रस्तुत किया कि क्रोध के कारण विषाक्तता उत्पन्न होती है जो पाचन-शक्ति के लिए अत्यन्त खतरनाक सिद्ध होता है। क्रोधी स्वभाव की माताओं का दूध भी विषाक्त पाया गया है, उससे बच्चे के पेट में मरोड़ की शिकायत उत्पन्न होती है तथा कभी-कभी तो अधिक विषाक्तता के कारण बच्चे की मृत्यु तक हो जाती है। आमतौर से आत्महत्या की घटनायें भी क्रोध से ही अभिप्रेरित होती हैं।
आवेशग्रस्तता घातक है, इससे बचें
मस्तिष्कीय ज्वर की भांति ही आवेश एक ऐसी उत्तेजना है जो पैर पटकने, सिर धुनने की तरह कुछ न कुछ अनर्थ करके ही विराम लेता है। आवेशग्रस्त व्यक्ति परिस्थितियों को अपने अनुकूल-अनुरूप ही देखना चाहता है, पर यह व्यवहार में संभव नहीं। हर व्यक्ति की अपनी स्वतन्त्र प्रकृति और विचारधारायें हैं। इसी प्रकार परिस्थितियां अनेक उलझनों के बीच निकलती हुई अपना ढांचा बनाती हैं, उन पर इतना अधिकार किसी का नहीं कि इच्छा मात्र से अनुकूलन को आमंत्रित कर सके और उसे सदा वशवर्ती बनाये रह सके।
आतुर व्यक्ति में इतना धैर्य नहीं होता कि वह परिस्थितियों की अनुकूलता के लिए आवश्यक चिंतन या प्रयास कर सके। वह किसी तानाशाह की तरह तुरन्त अपनी इच्छा या आकांक्षा को कार्यान्वित होते देखना चाहते हैं, पर चाहने भर से आकांक्षा की पूर्ति कहां होती है।
होना यह चाहिए कि व्यक्ति धैर्य रखे और तालमेल बिठाने के उपाय करे। इच्छित परिस्थितियों के बिना काम चलाये अथवा इतना धैर्य रखे कि परिवर्तन में जो समय लगे उसकी प्रतीक्षा बन पड़े। उत्तेजना को यह समझ करके भी शान्त किया जा सकता है कि संसार केवल हमारी ही इच्छा के अनुरूप चलने के लिए नहीं बनाया गया है, उनके साथ और भी कितने ही प्रयोजन जुड़े हुए हैं। उनमें से जितनी सुविधायें जब मिल सकें तब तक के लिए धैर्य रखना चाहिए।
किन्तु आतुर व्यक्ति उतावला होता है, इच्छा पूर्ति न होने पर किसी न किसी को दोषी ठहराता है। यह नहीं सोचता कि इसमें अपनी गलती भी हो सकती है और उसे सुधारने के लिए दूसरे उपाय अपनाये जा सकते हैं।
इच्छा से करने का हर किसी को अधिकार है, पर उसे उतना उतावला नहीं होना चाहिए कि जो चाहा गया है वह नियत अवधि के अन्दर या नियत तरीके से ही पूरा होना चाहिए। अनुकूल अवसर पर इच्छा पूरी या अधूरी मात्रा में पूरी हो सके—इसके लिए धैर्य रखने और प्रतीक्षा करने की आवश्यकता है। परिस्थितियां नहीं बदलतीं तो मनःस्थिति को बदल लेना भी एक उपाय है। संसार में अनेक इच्छित वस्तुयें या परिस्थितियां हैं वे सभी पूरी नहीं होती हैं तो अधीर होने की अपेक्षा यही अच्छा है कि जितना उपलब्ध है उससे ही सन्तोष करें। हर किसी की हर इच्छा तुर्त-फुर्त पूरी होनी ही चाहिए—यह संसार का नियम नहीं है।
किसी जमाने में तानाशाह ऐसे होते थे जो न्याय या परिस्थितियों पर विचार करने की अपेक्षा अपनी हविश पूरी न होने को ही बढ़ा-चढ़ा अपराध मानते थे और उसके बदले मृत्युदण्ड सुना देते थे। सहकारियों में से किसी की इतनी हिम्मत नहीं होती थी कि उस निर्देश के सम्बन्ध में ननुनच कर सके। ऐसी पूछताछ करने में भी उस अहंकारी का अपमान होता था, वह समय अब नहीं रहा। जिस पर आरोप लगाया गया है उसे अपनी बात कहने, सफाई देने का अवसर दिया जाता है किन्तु अव्यवस्थित व्यक्ति को इतना भी अवसर देने की गुंजाइश नहीं रहती। प्रतिपक्षी को अपराधी ही निश्चित करता है और अपराध के बदले में मृत्युदण्ड से हल्की सजा भी हो सकती? यह वह नहीं सोच पाता कि ऐसा घातक निर्णय कर गुजरने पर अपने ऊपर क्या बीतेगी। आक्रमण के बदले में क्या दण्ड मिलते हैं? इसे जानते हुए भी वह उस सम्बन्ध में भी विचार नहीं करता और जिसके साथ चाहे जैसा व्यवहार कर बैठता है। एक ही पक्ष पर आरूढ़ रहता है, दूसरे विकल्प का विचार नहीं करता—ऐसा व्यक्ति शत्रुता को देर तक जकड़े रहता है। साधारणतया प्रेम और द्वेष के आवेश कुछ समय में उतर जाते हैं, पर जब घृष्टता चरम सीमा पर होती है तो उसका दुष्प्रयोजन एक निश्चय की तरह जड़ जमा लेता है और अपनी दृष्टि में जिसे भी अपराधी ठहरा लिया है, उससे प्रतिशोध लिए बिना नहीं मानता।
आमतौर से हत्याकाण्ड ऐसी ही आवेशग्रस्त मनःस्थिति में होते हैं। दूसरा कारण है—लालच। जिस उपाय से कोई बड़ी पूंजी हाथ लगे उसे कर गुजरने में भी निर्भय लोग चूकते नहीं। उसे यह सोचने की क्षमता नहीं होती कि जिसे सताया जा रहा है उस पर क्या बीतेगी? आवेशग्रस्तों की तरह निर्ममता या नृशंसता भी ऐसा ही मनोविकार है जो संवेदना रहित होता है। उसे दूसरों की पीड़ा के प्रति कोई सहानुभूति नहीं होती, वे ऐसे कुकृत्य कर बैठते हैं जिससे अपने राई भर लाभ के लिए दूसरों को भले ही मर्मांत पीड़ा सहनी पड़े। यह अपराधी मनोवृत्ति का चिन्ह है जो संगति और सहमति से पनपती है। हत्याओं-अपराधों का साहित्य बाजार में भरा पड़ा है, अपनी शेखी बघारने के लिए क्रूरकर्मी दूसरे के सामने भी अपने कुकृत्यों की बढ़ी-चढ़ी शेखी बघारते हैं और बताते हैं कि उस शौर्य के बदले उनने कितना लाभ उठाया। ऐसे लोगों की संगति से भी आदर्श विहीन लोगों का मन उस ओर ढुलक जाता है और कौतूहलवश ऐसे कुकृत्य करते-करते वे उस व्यवसाय में कसाइयों की भांति नृशंस हो जाते हैं।
आवेशग्रस्त लोगों का एक और भी तरीका है कि वे आत्महत्या या पलायन की बात सोचते हैं और यह कल्पना करते हैं कि उनके न रहने पर प्रतिपक्षी को कितनी व्यथा सहनी पड़ेगी या कठिनाई उठाने पड़ेगी? जिनको आक्रमण की अपेक्षा आत्मघात सरल प्रतीत होता है वे उस रीति को अपना लेते हैं और जो भी तरीका समझ में आता है उससे आत्मघात कर बैठते हैं।
हत्या या आत्महत्या मनुष्य के हेय व्यक्तित्व का उभार है। मनुष्य में श्रेष्ठता और दुष्टता दोनों के अंश होते हैं। प्रयत्नपूर्वक उसकी करुणा और सहृदयता भी जगाई जा सकती है, जिससे प्रेरित होकर वह सेवा-सहायता जैसी सत्प्रवृत्तियां भी अपना सकता है, पर इसके लिए जन्मजात संस्कार ही नहीं वातावरण और प्रशिक्षण भी ऐसा मिलना चाहिए जिसके प्रभाव से सज्जनता उभरे। ऐसे छोटे-छोटे काम उसे आरम्भ में ही सौंपे जाय, जिसके सहारे सहानुभूति और संवेदना उभरे तथा निजी महत्वाकांक्षाओं के आवेशों पर नियन्त्रण करने का अभ्यास पड़े। इसके विपरीत जिन्हें दुश्चिंतन का आधार मिलता है उन्हें कुकर्मियों के दुस्साहसों में शौर्य-पराक्रम ढूंढ़ने की आदत पड़ जाती है। वह दुर्बलों पर अनीति बरतते-बरतते इतने निष्ठुर हो जाते हैं जो दूसरों का अहित करने की तरह अपने आपको भी प्रतिशोध और आत्म प्रताड़ना का दुहरा काम सहने के लिए बाधित करे—इस मार्ग पर आने की रोकथाम किशोरावस्था में ही करनी चाहिए।