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Books - सफल जीवन के कुछ स्वर्णिम सूत्र

Media: TEXT
Language: HINDI
TEXT


गम्भीर न रहें, प्रसन्न रहना सीखें

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गम्भीर रहना वैसे सामान्यतया बुरा माना जाता है और समझा जाता है कि हंसना-हंसाना, हल्के-फुल्के रहना अच्छा होता है। इसमें कोई शक नहीं कि मनुष्य को प्रसन्न चित्त रहना चाहिए किन्तु गम्भीर रहना भी एक कला है। यहां पर गम्भीरता से तात्पर्य जीवन के प्रति गम्भीर दृष्टिकोण अपनाने से है। प्राचीनकाल से ही जीवन के प्रति गम्भीर दृष्टिकोण अपनाने की नीति प्रचलित थी, इस चिन्तन को प्रकारान्तर से दूरदर्शितापूर्ण कहा जा सकता है।

मनीषी, दार्शनिक तथा महत्वपूर्ण कार्यों में संलग्न लोग हमेशा जीवन के प्रति गम्भीर दृष्टिकोण अपनाने के पक्षधर रहे हैं। वर्तमान युग में लोग चिन्तित रहते हैं गम्भीर नहीं। चिन्तित रहना एक बात है और गम्भीर रहना दूसरी।

आधुनिक युग में लोग चिन्ता और तनाव से बचने के लिए हल्के-फुल्के मनोरंजन तथा नशाखोरी का सहारा लेते रहते हैं। ठाली बैठकर गपशप करना, हल्के-फुल्के तथा गन्दे मजाक करना, ठिठोली करना और उसी में समय काट देना ही एक उनका उद्देश्य होता है। ऐसे लोग अन्दर से चिन्तित तथा तनावग्रस्त होते हैं और बाहर से सस्ते मनोरंजन का आधार लेकर प्रसन्न रहते हैं।

इसके विपरीत जीवन के प्रति गम्भीर दृष्टिकोण अपनाने वाले लोग यद्यपि सस्ते मनोरंजन से अपने मन बहलाव के बहाने नहीं खोजते, प्रत्युत समस्याओं के महत्वपूर्ण हल निकालते और वास्तविक प्रसन्नता का अनुभव करते हैं। मनोरंजन के पुराने साधन सिनेमा, सिगरेट, शराब और गन्दे नाच-गाने अब बीते युग की बातें होती जा रही हैं, इन दुष्प्रवृत्तियों से जितनी जल्दी मुक्ति मिले अच्छा है। अब तो प्रबुद्ध वर्ग इलेक्ट्रानिक खोजों, चांद पर जाने या अन्तरिक्ष शोधों में व्यस्त रहना ही अपना मनोरंजन समझता है।

वस्तुतः गम्भीर दृष्टिकोण अपनाकर भी स्वस्थ मनोरंजन किया जा सकता है। कब गम्भीर रहना व कब हल्का रहना यह भी एक कला है। बच्चों का विकास करने के लिए उनमें हिल-मिलकर समय काटने में सबको बड़ा आनन्द आता है और एक महत्वपूर्ण उद्देश्य के दायित्व की पूर्ति होती है। ऐसे कार्यों में मन लगाना जिससे स्वस्थ मनोरंजन भी हो और उस मनोरंजन से लाभ भी मिले—गम्भीर लोगों को प्रिय होता है, इसी में वे स्वयं को तनावमुक्त कर लेते हैं।

उद्देश्यों-आदर्शों के प्रति गम्भीर रहने में हर्ज नहीं, इससे अपना चित्त एकाग्र रखने और हाथ में लिए काम को प्रतिष्ठा का प्रश्न बनाने उसका महत्व विचारने का अवसर मिलता है किन्तु यह गम्भीरता ऐसी नहीं होनी चाहिए जो उदासी-उपेक्षा जैसी प्रतीत हो और लगे कि मनुष्य किसी परेशानी में डूबा हुआ है। ऐसा होने पर लोग दूर रहने और बचने की कोशिश करते हैं, इस स्थिति में मनुष्य अपने को अकेला और जीवन को नीरस अनुभव करता है।

गम्भीरता के दबाव को हलका करने के लिए हंसने-हंसाने की आदत डालनी चाहिए, पर वह होनी बाल सुलभ चाहिए, उसमें व्यंग, उपहास, तिरस्कार जैसी भावनायें मिल जाने से वह हंसी भी विषाक्त हो जाती है। उसमें तो दूसरों को चोट पहुंचाने, किसी अनुपस्थित व्यक्ति की या अपनी अटपटी बातों की चर्चा करते हुए परिहास का अवसर ढूंढ़ा जाता है।

गांधीजी हंसमुख थे, उनके सामने देश की अत्यन्त गम्भीर समस्यायें रहती थीं तो भी वे थोड़ी-थोड़ी देर में हंसते रहने के अवसर ढूंढ़ते रहते थे। कहते थे कि गम्भीरता को सुरक्षित रखने के लिए अपने को बोझिल न होने देने के लिए हंसना भी एक मानसिक टॉनिक है।

परिहास प्राणियों के मध्य एकता, समता और समस्वरता लाता है। यदि ऐसा न होता तो विषमता की आग में चेतना की दुनिया कभी की जल-भुनकर नष्ट हो गई होती। यह मान्यता सही नहीं है कि बुद्धिमत्ता यथार्थवादी और कठोर होती है, इसलिए उसे भावुकतावश परिहास की आवश्यकता नहीं होती और न उसके लिए अवसर मिलता है। यदि ऐसा रहा होता तो बुद्धिमत्ता बड़ी कर्कश, कुरूप, बोझिल और संकट उत्पन्न करने वाली हो गई होती। मानवी परिहास की प्रवृत्ति संसार की सबसे बड़ी जीवन्त सुन्दरता है। यों प्रकृति की संरचना, ऋतुओं का परिवर्तन, चित्र-विचित्र वनस्पतियां और प्राणियों की विशेषतायें स्वयंमेव में ऐसी हैं कि मनुष्य उन्हें अपनी सौंदर्य दृष्टि से देखने पर मुग्ध होकर रह जाय।

यह कथन सही नहीं है कि उच्चस्तरीय व्यक्ति गम्भीर रहते हैं। इस गम्भीरता के पीछे भी उनके लक्ष्य विशेष का उत्साहवर्धक और आशाजनक सौन्दर्य समाहित रहता है।

मुस्कान भरी मस्ती एक औषधि एवं समग्र उपचार

स्वादिष्ट व्यंजन की कल्पना मात्र से मुंह में पानी भर आता है। शोक समाचार पाकर उदासी छा जाती है, चेहरा लटक जाता है। प्रफुल्ल मुखाकृति से आन्तरिक प्रसन्नता का पता चलता है। इस प्रकार अदृश्य होते हुए भी मन की हलचलों का भला और बुरा प्रभाव जीवन में पग-पग पर अनुभव होता है।

मनुष्य अपने मानस का प्रतिबिम्ब है। मानसिक दशा का स्वास्थ्य के साथ घनिष्ठ सम्बन्ध है। नवीनतम शोधों के आधार पर तो यह भी कहा जाने लगा है कि रोग शरीर में नहीं, बल्कि मस्तिष्क में उत्पन्न होता है। यही कारण है कि उत्तम और समग्र स्वास्थ्य के लिए मन का स्वस्थ होना सबसे जरूरी है।

राबर्ट लुई स्टीवेन्सन ने अंग्रेजी में कई साहसिक उपन्यास लिखे हैं, उन्हें पढ़ने वाले सोचते थे कि लेखक भी योद्धा जैसा दिखने वाला कोई भारी भरकम कद्दावर होगा, जबकि वास्तविकता यह थी कि उनने अपनी अधिकांश प्रसिद्ध कृतियां रुग्णावस्था में चारपाई पर पड़े हुए लिखीं। शंकराचार्य अपने जीवन के उत्तरार्ध में भगन्दर के मरीज रहे, वैद्य ने उनकी स्थिति को देखते हुए शारीरिक श्रम करने तथा चलने-फिरने की मनाही की थी। परन्तु उस जर्जर काया को लेकर ही उनने चारों धामों की स्थापना, शास्त्रार्थ द्वारा दिग्विजय तथा पातंजलि के भाष्य आदि का गुरुत्तर कार्य भी सम्पन्न किया।

यहां शारीरिक स्वास्थ्य के नियमों की अवहेलना करने अथवा उन्हें नगण्य बताने का प्रयास नहीं किया जा रहा है। कहने का आशय केवल इतना है कि स्वस्थ शरीर का सदुपयोग जिस मनस्विता के आधार पर सम्भव होता है—उसके विकास पर भी पर्याप्त ध्यान दिया जाना चाहिए, मनःस्थिति हल्की-फुल्की रहनी चाहिए। प्रसन्नचित्त रहना मानसिक स्वास्थ्य के लिए सबसे अधिक आवश्यक है। उदासीन रहने वालों की अपेक्षा खुशमिज़ाज लोग अक्सर अधिक स्वस्थ, उत्साही और स्फूर्तिवान् पाये जाते हैं। गीताकार ने प्रसन्नता को महत्वपूर्ण आध्यात्मिक सद्गुण माना है और कहा है कि प्रसन्न चित्त लोगों को उद्विग्नता नहीं सताती एवं उन्हें जीवन में दुःख भी कभी सताते नहीं।

अकारण भय, आशंका, क्रोध, दुश्चिन्ता आदि की गणना मानसिक रोगों में की जाती है। जिस प्रकार शारीरिक रुग्णता का लक्षण मुख-मण्डल पर दृष्टिगोचर होता है, उसी प्रकार मन की रुग्णता भी चेहरे पर झलकती है। मनोविज्ञानी डा. लिली एलन के अनुसार ‘मुस्कान वह दवा है जो इन रोगों के निशान आपके चेहरे से ही नहीं उड़ा देगी वरन् इन रोगों की जड़ भी आपके अन्तः से निकाल देगी।’

कुछ लोग बोझिल मन से परेशान रहते हैं, ऐसे लोगों को प्रसन्न रहने की कला सीखनी चाहिए। यह अभ्यास करने के लिए आज और अभी से तैयार हुआ जा सकता है। दैनिक जीवन में जिससे भेंट हो उससे यदि मुस्कराते हुए मिला जाय तो बदले में सामने वाला भी मुस्कराहट भेंट करेगा। उसे हल्की-फुल्की बात करने में झिझक नहीं महसूस होगी और इस तरह अपने मन का भारीपन काफी दूर होगा।

अगर कोई चेहरे पर चौबीसों घण्टे गमगीनी लादे रहे तो धीरे-धीरे उसके सहयोगियों की संख्या घटती चली जाती है। यदि प्रतिक्षण प्रसन्नता बांटते रहने का न्यूनतम संकल्प शुरू किया जाय तो थोड़े दिनों के प्रयास से ही आशातीत परिणाम मिलने लगेंगे।

डेल कार्नेगी कहते थे कि भूतकाल पर विचार मत करो, क्योंकि अब वह फिर कभी लौटकर आने वाला नहीं है। इसी प्रकार भविष्य के बारे में साधारण अनुमान लगाने के अतिरिक्त बहुत चिन्तित एवं आवेशग्रस्त होना व्यर्थ है। क्योंकि कोई नहीं जानता कि परिस्थितियों के कारण वह न जाने किस ओर करवट ले। हमें सिर्फ वर्तमान के बारे में सोचना चाहिए और वही करना चाहिए जो आज की परिस्थितियों में सर्वोत्तम ढंग से किया जा सकता है। हमारी आशा कुछ भी क्यों न हो प्रसन्नता के केन्द्र वर्तमान के प्रति जागरूकता बरतना और सर्वोत्तम ढंग से निर्वाह करना ही होना चाहिए।

रोलेण्ड विलियम्स बहुमुखी प्रतिभा के धनी थे, उनकी जिम्मेदारियां और गतिविधियां भी सुविस्तृत थीं, पर वे अपनी मेज पर उन्हीं फाइलों को आने देते थे जिन्हें आज ही निपटाया जा सकता है। इसी सिद्धांत को अपनाकर वे अत्यन्त सफल व्यवस्थापक बन सके।

प्रकृति परिवर्तनशील है, उसकी दौड़ इतनी तेज है कि उसकी चाल-नाप सकना सम्भव नहीं। नदी में पैर डालकर थोड़ी देर में उन्हें ऊपर उठाया जाय तो मात्र इतने क्षणों से असंख्यों टन पानी आगे बढ़ गया होगा और पीछे से आने वाले ने उसकी जगह ले ली होगी। इस चाल के साथ किसी का दौड़ सकना सम्भव नहीं, इसी प्रकार भूतकाल की घटनाओं का आकलन करते हुए आज का निर्माण व्यर्थ है। इसी प्रकार भविष्य की उन कल्पनाओं में उड़ते रहने से कोई लाभ नहीं, जो कभी-कभी आशा के विपरीत अनोखे ढंग से बदल जाती है।

भूत के घटनाक्रमों का सही निष्कर्ष इतना ही है कि हम उन परिवर्तनों से कुछ सीखें और उस नसीहत को ध्यान में रखते हुए आज का कार्यक्रम बनायें। इसी प्रकार भविष्य को यदि सचमुच उत्तम बनाना है तो उसका भी एक ही तरीका है कि वर्तमान का श्रेष्ठतम उपयोग कर गुजरें और उन बोये हुए मीठे फलों को अवसर आने पर चखें। काम कम और चिन्ता अधिक यह बर्बादी का बहुत बुरा तरीका है।

जार्ज बर्नार्ड शा कहते थे कि हर समय व्यस्त रहो, इससे तुम्हारी वे शक्तियां बच जायेंगी जो सपनों और कल्पनाओं की चक्की में पिसती हैं और शरीर-मन को बुरी तरह निचोड़ देती हैं।

मनुष्य के पसीने में सम्पदायें भरी हुई हैं और पसीने की बूंदों के साथ सम्पदायें टपकती हैं। रुचिपूर्वक आज के कामों में संलग्न होने से बढ़कर तत्काल आनन्द प्राप्त करने का और कोई तरीका नहीं है।

जिन्हें जीवन से सचमुच प्यार है और वे उस उपलब्धि का बढ़ा-चढ़ा रसास्वादन करना चाहते हैं, उनके लिए जीवन विज्ञानियों का एक ही परामर्श है कि अपनी मस्ती किसी भी कीमत पर न बेची जाय अपनी स्वतन्त्रता में विवेक के अतिरिक्त और किसी को भी हस्तक्षेप न करने दिया जाय।

अनुकूल परिस्थितियां, लोगों की अनुकम्पायें, समृद्धि की संभावनाओं की आशा रखने में कोई हर्ज नहीं, पर हिम्मत एकाकी चल पड़ने की होनी चाहिए। हमारा सन्तोष और आनन्द इस बात पर केन्द्रित रहना चाहिए कि हमने भले काम किये, दायित्व निभायें और जो किया उसमें पूरा श्रम और मनोयोग लगाया। इस आधार पर हम हर घड़ी प्रमुदित रह सकते हैं भले ही परिणाम इच्छा के अनुरूप हों या प्रतिकूल।

महामानवों की विनोद प्रियता

महात्मा गांधी कहा करते थे—‘यदि कोई मुझसे विनोद प्रियता छीन ले तो मैं उसी दिन पागल हो जाऊंगा।’ मुस्कान तथा आह्लाद थकान की दवा है विनोद इनका जनक है। विनोद प्रियता अधिकांश महापुरुषों का गुण रही है। गांधीजी के जीवन का तो यह अनिवार्य पहलू था।

कलकत्ता में गांधीजी ने खादी प्रदर्शनी का उद्घाटन करते हुए कहा—‘आज जो भी खादी खरीदेगा उसका कैशमीमो मैं बनाऊंगा।’ देखते ही देखते खरीददारों की भीड़ एकत्रित हो गई। थोड़ी सी देर में ढाई हजार रुपये की खादी बिक गई।

आचार्य कृपलानी ने यह चमत्कार देखा तो मजाक में कह उठे—‘लेना-देना कुछ नहीं बनिये ने ढाई हजार रुपये मार लिये।’ गांधीजी कब पीछे रहने वाले थे, चट बोल पड़े—‘यह काम मेरे जैसे बनिये ही कर सकते हैं, प्रोफेसर नहीं।’

9 अगस्त सन् 1942, प्रातःकाल पुलिस कमिश्नर गांधीजी को गिरफ्तार करने पहुंचा, उन्हें ले जाते हुए पुलिस कमिश्नर ने पास खड़े घनश्यामदास बिड़ला से कहा—‘गांधीजी के लिए आधा सेर बकरी का दूध दिलवा दीजिये।’

बिड़लाजी ने बापू से पूछा—‘ये लोग आपकी बकरी का दूध मांगते हैं।’ उन्होंने हंसते हुए कहा—‘चार आने धरा लो और दूध दे दो।’

एक बार एक अंग्रेज पत्रकार ने गांधीजी से पूछा—‘आप देश के महान नेता होकर भी हमेशा रेल के तीसरे दर्जे में ही सफर क्यों करते हैं?’

बापू ने उसी क्षण उत्तर दिया—‘इसलिए कि रेल में कोई चौथा दरजा नहीं है।’ पत्रकार यह उत्तर सुनकर सकपका गया।

एक शाम पंडित मोतीलाल नेहरू अपने पुत्र जवाहर लाल के साथ गांधीजी से मिलने साबरमती आश्रम पहुंचे। झोंपड़ी में मिट्टी का दीप जल रहा था और दरवाजे के बाहर लाठी रखी हुई थी। हवा जवाहरलाल से कुछ मजाक करने पर तुली थी, उसने झोंके से दीपक बुझा दिया। अंधेरे में जवाहरलाल लाठी से जा टकराये, उनके घुटने को चोट लगी—वैसे ही जवाहरलाल गर्म मिजाज थे, इस चोट ने उनमें झल्लाहट भर दी। वे गांधी जी से पूछ बैठे—‘बापू आप मुंह से अहिंसा की दुहाई देते हैं और लाठी हाथ में लेकर चलते हैं, आप ऐसा क्यों करते हैं?’ गांधीजी ने हंसकर कहा—‘तुम जैसे शैतान लड़कों को ठीक करने के लिये।’

गांधीजी दूसरे गोल मेज सम्मेलन में भाग लेने के लिए इंग्लैंड गये। वहां के लोग नहीं माने, उन्हें बालरूम डांस दिखने ले गये। वहां सब अपने-अपने जोड़ों के साथ नाचने लगे। एक अंग्रेज ने उनसे कहा—‘आप भी अपना पार्टनर चुन लीजिए।’

गांधीजी ने अपनी लाठी दिखाकर कहा—‘मेरे साथ मेरा पार्टनर है।’ यह सुनकर सबको हंसी आ गई।

एक दिन की बात है। सेठ जमनालाल बजाज ने गांधीजी से कहा—‘बापू! यह तो मुझे ज्ञात है कि आपका मुझ पर अपार स्नेह है किन्तु मैं चाहता हूं कि आप मुझे देवीदास की तरह ही अपना पुत्र बना लें।’

उनका अभिप्राय गोद लेने से था। यह जानकर गांधीजी ने लम्बे-चौड़े बजाज जी की ओर देखकर कहा—‘कहते हो सो तो ठीक है। बाप बेटे को गोद लेता है, पर यहां तो स्थिति उल्टी है। बेटा बाप को गोद लेने जैसा दीखता है।’

विनोद प्रियता की प्रवृत्ति को जरा हम भी अपना स्वभाव का अंग बनाकर देखें, विषाद कभी हमारे निकट आ ही नहीं सकता।
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