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Books - सांस्कृतिक पुनरुत्थान

Media: TEXT
Language: HINDI
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सांस्कृतिक पुनरुत्थान योजना

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अभी कुछ दिन पूर्व दिल्ली में एक पादरी ने ईसाई धर्म छोड़ कर हिन्दू धर्म में प्रवेश किया है। यह सज्जन जन्मतः भारतीय हैं पर बहुत वर्षों से ईसाई धर्म का प्रचार कर रहे थे। उन्होंने इस धर्म परिवर्तन का कारण बताते हुए कहा है कि मैंने अपने लम्बे अनुभव काल में यह भली प्रकार देख लिया कि ईसाई होने के बाद मनुष्य की मनोभावना किसी अन्य देश के साथ जुड़ जाती है, और वह उसी के रंग में रंग जाता है। यहां के अनेकों मुसलमानों का उदाहरण स्पष्ट है। वे अपनी जन्मभूमि की परवाह नहीं करते, अपने पूर्वजों का आदर नहीं करते, अपने देश के महानुभावों से उन्हें कोई प्रेम नहीं, मक्का, इस्लाम, मुस्लिम देश, अरबी फारसी लिपि पोशाक तथा उन्हीं देशों के वीर पुरुषों एवं भाषाओं से उनका मानसिक सम्बन्ध जुड़ा रहता है। फलस्वरूप वे लोकाचार की दृष्टि से भारतीय रहते हुए भी, मानसिक दृष्टि से विदेशी बन जाते हैं। यह बात किसी जाति विशेष पर लांछन लगाने के लिए नहीं कही जा रही है। यह तो एक मनोवैज्ञानिक तथ्य है जो ऐसी स्थिति होने पर सभी पर लागू होता है।

इस तथ्य को अंग्रेज मनोवैज्ञानिक भली प्रकार जानते थे। वे अधिक विद्वान थे, इसलिए उन्होंने मध्यकाल के मुसलमान शासकों की तरह बलपूर्वक धर्म परिवर्तन की नीति को न अपनाकर पीछे की खिड़की में होकर प्रवेश किया। उन्होंने यह नीति अपनाई कि धर्म चाहे कोई भी रहे पर संस्कृति हमारी चले। लार्ड मैकाले प्रभृति चतुर व्यक्तियों ने अपनी सारी बुद्धिमत्ता खर्च करके स्कूलों, कालेजों, दफ्तरों, राज दरबारों तथा अनेक द्वारों से यह प्रयत्न किया कि यहां के निवासी हमारी संस्कृति अपनालें तो हमारे सजातीय हो जायेंगे। जन्म से वे भारतीय रहें पर मस्तिष्क में अंग्रेज ही होंगे। काले अंग्रेज पैदा करने की उनकी योजना प्रसिद्ध है। उनकी दूरदर्शिता की प्रशंसा करनी पड़ती है कि वे इस सम्बन्ध में शत प्रतिशत सफल रहे। अंग्रेज हिन्दुस्तान छोड़ कर चले गये पर अंग्रेजियत को रत्ती भर भी क्षति नहीं पहुंची, सच तो यह है कि वह इन दिनों और अधिक बढ़ी है। जिस प्रकार अनेक अन्धविश्वास, भ्रम, पाखण्ड, व्यसन एवं दुर्गुणों को मनुष्य अनजाने ही वातावरण के प्रभाव से अपना लेता है, उसी प्रकार विदेशी संस्कृति को भी हमने अपना लिया है। इस ‘स्व’ त्याग और ‘पर’ ग्रहण का प्रभाव यदि केवल बोल चाल, पहनाव उढ़ाव, खान पान, वेश विन्यास, रहन-सहन तक ही सीमित रहता तो कोई विशेष हानि न थी पर ऐसा हो सकता भी सम्भव नहीं है क्योंकि आचार और विचार आपस में अत्यन्त घनिष्ठ रूप से जुड़े हुए हैं। जिस प्रकार मुसलमानी पोशाक, भाषा, रीतिरिवाज, खान पान अपना लेने पर मस्तिष्क पर भी मुसलमानी आदर्श जम ही जाते हैं उसी प्रकार अंग्रेजियत हमारे व्यवहार में गहरी घुस जाती है तो मस्तिष्क में स्वार्थ तो भारतीय रह सकते हैं पर आदर्शों का रह सकना सम्भव नहीं है।

भारतीय संस्कृति की आत्मा त्याग, तप, संयम, सेवा, कृतज्ञता, उदारता के सिद्धान्तों से परिपूर्ण है। उन्हीं सिद्धान्तों से प्रेरित होकर यहां आत्मत्यागी ऋषि उत्पन्न होते रहे, सतियां और पतिव्रताएं अपने उदाहरण उपस्थित करती रहीं, समाज सेवी और धर्मकर्त्तव्यों के लिये प्राण देने वाले सद्ग्रहस्थ घर-घर में होते रहे। ऐसे नर रत्नों के उज्ज्वल चरित्रों से भारतीय इतिहास का पन्ना-पन्ना भरा पड़ा है। कारण यही है कि आर्य सिद्धान्तों को व्यवहारिक जीवन में कूट-कूट कर भर देने के लिये जो रीति-रिवाज, आचार-विचार, संस्कार आदि की व्यवस्था थी उस पर सब लोग स्वभावतः चलते रहते थे, फलस्वरूप व्यक्तियों का निर्माण ऐसा ही होता था जिससे वे महापुरुष सिद्ध होते। यही भारतीय संस्कृति की विशेषता है।

पाश्चात्य संस्कृति भोग, संचय, स्वामित्व, ऐश आदि ऐहिक सुख साधनों पर अवलम्बित होने से उसके रीति-रिवाज व्यवहार आदि भी वैसे ही हैं और उस ढांचे में मनुष्य ढलता भी वैसा ही है। श्रेय और प्रेय, त्याग और भोग यह दो विरोधी तत्व इस संसार में हैं और इन दोनों के विपरीत ही परिणाम है। एक का परिणाम है—परस्पर सौहार्द, प्रेम, सेवा, सहायता, मैत्री, शान्ति, दीर्घायु, श्री, सद्बुद्धि, सादगी, सद्गति। दूसरी का परिणाम है—अतृप्त वासना, अशान्ति, कलह, द्वेष, उत्पीड़न, दारिद्र, रोग, युद्ध, कृत्रिमता, दुर्गति। इन दोनों संस्कृतियों का आदि अन्त इसी प्रकार है।

यह दो संस्कृतियां जीवन की दो दिशाएं हैं। लोग इन्हीं में से एक को पकड़ते हैं और उन्हीं के अनुसार फल भोगते हैं। आज अधिकांश व्यक्ति भोगवादी भौतिक संस्कृति को अपना रहे हैं। उसी आधार पर अपना फैशन, बोलचाल, रहन-सहन, आचार-विचार बना रहे हैं। तदनुसार परिणाम भी सामने हैं।

व्यक्तिगत उन्नति तथा सुखशांति तथा सामाजिक स्थिरता तथा सुव्यवस्था के लिए अन्ततः श्रेय प्रधान, त्यागमयी भारतीय संस्कृति की ही आवश्यकता पड़ेगी। जब भौतिक तृष्णाओं से पीड़ित दुनिया थकान और पीड़ा से चूर हो जायगी तब उसके लिए अन्ततः एक मात्र यही आश्रय होगा। भौतिकवादी संस्कृति बढ़ती रही तो मनुष्य जाति को ही नहीं इस पृथ्वी ग्रह का भी अणु परमाणुओं के संघर्ष से नष्ट होना निश्चित है। मनुष्य को चाहे आज, चाहे कल अपनी सुख शान्ति की रक्षा के लिये उन्हीं आदर्शों को अपनाना पड़ेगा जिनको सूक्ष्मदर्शी ऋषियों ने हजारों वर्षों के तप तथा विचार द्वारा निर्धारित किया था।


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