
युग परिवर्तन प्रतिभा ही करेगी
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प्रयोजन बड़ा होते हुए भी उसका समाधान सरल है, यदि प्रतिभाओं के परिष्कार का क्रम चल पड़े। उनके आविर्भाव का उपचार बन पड़े तो समझना चाहिए कि इन अनुदानों के सहारे विश्वव्यापी कार्य सध जाता है। सामाजिक और क्षेत्रीय समस्याओं को संभलते रहना और भी अधिक सरल पड़ता जायेगा।
हम महत्वपूर्ण कार्य में तदनुरूप ऊर्जा की जरूरत पड़ती है। उसके बिना तो छोटे-छोटे कार्य भी पूरे नहीं होते। हर महत्वपूर्ण कार्य के लिए ऊर्जा चाहिए, फिर युग निर्माण जैसा विश्व व्यापी और अत्यधिक भारी भरकम काम तो वरिष्ठ प्रतिभा सम्पन्नों के कंधा लगाये बिना पूरा हो सकने की तो कल्पना भी नहीं की जा सकती।
नव निर्माण की विश्वव्यापी संरचना जिसने सोची और खड़ी की है, उसने इस पुण्य प्रयोजन की पूर्ति के लिए प्राणवान जीवट के धनी व्यक्तित्वों की अच्छी खासी सेना खड़ी करने की आवश्यकता अनुभव की है और उसे समय रहते जुटा लेने की तैयारी की है। यह उल्लेख उद्बोधन उन्हीं के लिए है। प्रतिभा परिष्कार का सुयोग उपयुक्त मात्रा में बन पड़ा तो फिर अपनी दुनिया का स्वरूप और परिवेश बदल डालने में नियन्ता के सामने और कोई कड़ी कठिनाई शेष न रहेगी।
भूतकाल में भी मनस्वी लोगों ने एक से एक आश्चर्यजनक कार्य किये हैं। इनमें अगस्त्य का समुद्र सोखना, हनुमान का पर्वत उठाना, विश्वामित्र के तत्वाधान में राम राज्य की स्थापना होना जैसी घटनाएं ऐसी हैं जो बताती हैं कि करने मरने पर उतारू व्यक्ति के लिये क्या कुछ ऐसा है जिसे संभव करके नहीं दिखाया जा सकता। स्वर्ग से धरती पर गंगा उतारने वाले भगीरथ अपने कार्य में सफल हुए थे तो फिर कोई कारण नहीं कि नव निर्माण में जुटे भागीरथों की अपनी मंडली भ्रम जंजाल से निकलकर सीधे और सरल काम कर सकने के लिए समर्थ क्यों नहीं बन सकती?
प्रतिभाओं को निखार दूसरे क्या किसी की कृपा, अनुकम्पा के ऊपर निर्भर नहीं है। वह तो पूरी तरह अपने बस की बात है। शरीर से इच्छानुरूप का लिया जा सकता है। उस पर पूरा नियन्त्रण अपना रहता है। जो लोग संसार के वर्तमान प्रचलनों की बातों को ही सब कुछ मानते हैं, उन्हें क्या कहा जाय। अन्यथा अपने मनोबल और प्रयास को यदि दिशाबद्ध किया जा सके तो हर व्यक्ति अंतः की प्रेरणा से न जाने क्या से क्या कुछ करके दिखा सकता है। यह नया प्रयोग नहीं है। भूतकाल में ऐसे ही प्रयोग होते रहे हैं। युग बदलते रहे और मनुष्य अपनी प्रथा परम्पराओं में आमूलचूल परिवर्तन करता रहा है। इस बार की महाकाल द्वारा दी गई चुनौती को अस्वीकार करते न बन पड़ेगा। गांधी, बुद्ध, ईसा आदि के धार्मिक आन्दोलनों को सफल बनाने के पीछे भगवान की इच्छा कार्य करती रही है। इस बार प्रतिभावानों की पूर्ति का सरंजाम जुट रहा है। समय रहते वह पूरा भी होगा। यह संभावना अधूरी न रहेगी क्योंकि प्रतिभावानों में हुंकार जब भी उठी है, उसने विशिष्ट स्तर की प्रतिभाओं को विकसित किया है। यह प्रतिभावानों की विशेषता रही है। इसके लिए शरीर बल, साधन बल, बुद्धि बल की उतनी आवश्यकता नहीं जितनी की गांधी, बुद्ध विनोबा जैसे प्रतिभावानों की। समय स्वल्प हो तो भी अपने सम्पर्क क्षेत्र में प्रतिभा का परिचय देने वाले मनस्वी हो तो भी अपने सम्पर्क क्षेत्र में प्रतिभा का परिचय देने वाले मनस्वी तो हर किसी को उभार सकते हैं और गीध, गिलहरी, शबरी, भील जैसे चमत्कार प्रस्तुत कर सकते हैं जो छोटों के लिए भी संभव हो सकता है।
इक्कीसवीं सदी में आन्दोलन की भागीदारी स्वीकार करने के लिए भाव सम्वेदना के धनी वर्ग का आह्वान किया गया है। आरम्भ की दृष्टि से हल्के काम सौंपे गये हैं युग संधि पुरश्चरण के अन्तर्गत जप, साधना, समयदान, अंशदान, साप्ताहिक सत्संग, झोला पुस्तकालय आदि। उन्हें हल्के दर्जे के स्काउट व्यायाम स्तर का समझा जाय जिससे अभिरुचि और आस्था की परिस्थिति बढ़ चले।
हम महत्वपूर्ण कार्य में तदनुरूप ऊर्जा की जरूरत पड़ती है। उसके बिना तो छोटे-छोटे कार्य भी पूरे नहीं होते। हर महत्वपूर्ण कार्य के लिए ऊर्जा चाहिए, फिर युग निर्माण जैसा विश्व व्यापी और अत्यधिक भारी भरकम काम तो वरिष्ठ प्रतिभा सम्पन्नों के कंधा लगाये बिना पूरा हो सकने की तो कल्पना भी नहीं की जा सकती।
नव निर्माण की विश्वव्यापी संरचना जिसने सोची और खड़ी की है, उसने इस पुण्य प्रयोजन की पूर्ति के लिए प्राणवान जीवट के धनी व्यक्तित्वों की अच्छी खासी सेना खड़ी करने की आवश्यकता अनुभव की है और उसे समय रहते जुटा लेने की तैयारी की है। यह उल्लेख उद्बोधन उन्हीं के लिए है। प्रतिभा परिष्कार का सुयोग उपयुक्त मात्रा में बन पड़ा तो फिर अपनी दुनिया का स्वरूप और परिवेश बदल डालने में नियन्ता के सामने और कोई कड़ी कठिनाई शेष न रहेगी।
भूतकाल में भी मनस्वी लोगों ने एक से एक आश्चर्यजनक कार्य किये हैं। इनमें अगस्त्य का समुद्र सोखना, हनुमान का पर्वत उठाना, विश्वामित्र के तत्वाधान में राम राज्य की स्थापना होना जैसी घटनाएं ऐसी हैं जो बताती हैं कि करने मरने पर उतारू व्यक्ति के लिये क्या कुछ ऐसा है जिसे संभव करके नहीं दिखाया जा सकता। स्वर्ग से धरती पर गंगा उतारने वाले भगीरथ अपने कार्य में सफल हुए थे तो फिर कोई कारण नहीं कि नव निर्माण में जुटे भागीरथों की अपनी मंडली भ्रम जंजाल से निकलकर सीधे और सरल काम कर सकने के लिए समर्थ क्यों नहीं बन सकती?
प्रतिभाओं को निखार दूसरे क्या किसी की कृपा, अनुकम्पा के ऊपर निर्भर नहीं है। वह तो पूरी तरह अपने बस की बात है। शरीर से इच्छानुरूप का लिया जा सकता है। उस पर पूरा नियन्त्रण अपना रहता है। जो लोग संसार के वर्तमान प्रचलनों की बातों को ही सब कुछ मानते हैं, उन्हें क्या कहा जाय। अन्यथा अपने मनोबल और प्रयास को यदि दिशाबद्ध किया जा सके तो हर व्यक्ति अंतः की प्रेरणा से न जाने क्या से क्या कुछ करके दिखा सकता है। यह नया प्रयोग नहीं है। भूतकाल में ऐसे ही प्रयोग होते रहे हैं। युग बदलते रहे और मनुष्य अपनी प्रथा परम्पराओं में आमूलचूल परिवर्तन करता रहा है। इस बार की महाकाल द्वारा दी गई चुनौती को अस्वीकार करते न बन पड़ेगा। गांधी, बुद्ध, ईसा आदि के धार्मिक आन्दोलनों को सफल बनाने के पीछे भगवान की इच्छा कार्य करती रही है। इस बार प्रतिभावानों की पूर्ति का सरंजाम जुट रहा है। समय रहते वह पूरा भी होगा। यह संभावना अधूरी न रहेगी क्योंकि प्रतिभावानों में हुंकार जब भी उठी है, उसने विशिष्ट स्तर की प्रतिभाओं को विकसित किया है। यह प्रतिभावानों की विशेषता रही है। इसके लिए शरीर बल, साधन बल, बुद्धि बल की उतनी आवश्यकता नहीं जितनी की गांधी, बुद्ध विनोबा जैसे प्रतिभावानों की। समय स्वल्प हो तो भी अपने सम्पर्क क्षेत्र में प्रतिभा का परिचय देने वाले मनस्वी हो तो भी अपने सम्पर्क क्षेत्र में प्रतिभा का परिचय देने वाले मनस्वी तो हर किसी को उभार सकते हैं और गीध, गिलहरी, शबरी, भील जैसे चमत्कार प्रस्तुत कर सकते हैं जो छोटों के लिए भी संभव हो सकता है।
इक्कीसवीं सदी में आन्दोलन की भागीदारी स्वीकार करने के लिए भाव सम्वेदना के धनी वर्ग का आह्वान किया गया है। आरम्भ की दृष्टि से हल्के काम सौंपे गये हैं युग संधि पुरश्चरण के अन्तर्गत जप, साधना, समयदान, अंशदान, साप्ताहिक सत्संग, झोला पुस्तकालय आदि। उन्हें हल्के दर्जे के स्काउट व्यायाम स्तर का समझा जाय जिससे अभिरुचि और आस्था की परिस्थिति बढ़ चले।