
दैवी सत्ता की सुनियोजित विधि-व्यवस्था
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भ्रान्तियों का स्वरूप समझ लेने के उपरांत यह भी आवश्यक है कि उसका समाधान भी समझा जाय और यह जानने का प्रयत्न किया जाय कि वह वास्तविकता क्या है जिसकी आड़ लेकर धुएं का बादल बनाकर खड़ा कर दिया गया।
समझा जाना चाहिए कि संसार के दृश्यमान जड़ पदार्थों के साथ-साथ ऐसी एक सर्वव्यापी नियामक सत्ता भी है, जो इस आश्चर्य भरे ब्रह्माण्ड को बनाने से लेकर और भी न जाने क्या-क्या बनाती रहती है।
असल की नकल इन दिनों खूब चल पड़ती है। नकली चीजें सस्ती भी होती है। चलती भी अधिक हैं और बिक्री भी उन्हीं की अधिक होती देखी जाती हैं। नकली सोने के, नकली चांदी के जेवरों की दुकानों में भरमार देखी जाती है। नकली हीरे मोती भी खूब बिकते हैं। नकली रेशम, नकली दांत अधिक चमकते हैं। नकली घी से दुकानें पटी पड़ी हैं। नकली शहद सस्ते भाव में कहीं भी मिल सकता है, पर वह वस्तुएं ऐसे चमकीली होते हुए भी कहीं भी मिल सकता है, पर वह वस्तुएं ऐसे चमकीली होते हुए भी असली जैसा सम्मान नहीं पाती। बेचने पर कीमत भी नहीं उठती। अध्यात्म का नकलीपन भी बहुत प्रचलित हुआ है। उसे उपहार-मनुहार की टंट-घंट पूरी करके उन लाभों को पाने की प्रतिक्षा की जाने लगती है जिनके लिए प्रबल पुरुषार्थ और व्यक्ति के उठे हुए स्तर की अपेक्षा की जाती है। समुचित मूल्य न चुकाने पर कोई कीमती वस्तु ऐसे ही तिकड़मबाज़ी के सहारे हाथ कैसे लगे? देखा जाता है कि मनोकामनाओं का पुलन्दा बांधे फिरने वाले जिस-तिस देवी-देवता के पीछे गिड़गिड़ाते फिरने के उपरान्त भी खाली हाथ लौटते हैं और विधि-विधान में कोई गलती रहने या पूजा पाठ को व्यर्थ बताने की नास्तिकों जैसी प्रतिक्रिया व्यक्त करते रहते हैं। आये दिन लाभ मिलने रहने की बात न बनते देखकर उस प्रक्रिया को छोड़ बैठते हैं। या जब-तब अनमने मन से लकीर पीट लेते हैं।
अच्छा होता अध्यात्म का दर्शन, स्वरूप, उद्देश्य और प्रयोग के सम्बन्ध में गहराई में उतरकर जानने का प्रयत्न किया गया होता और पूरा मूल्य देकर असली चीज पाने की मान्यता को बनाया होता। तब इस सन्दर्भ में किसी को कोई शिकायत करने की आवश्यकता न पड़ती।
कहा जा चुका है कि विश्व के शक्ति भण्डार में सर्वोपरि आत्म बल है। उसकी तुलना धन बल, बुद्धि बल, शस्त्र बल, सत्ता बल आदि से नहीं हो सकती। वे सभी छोटे और बौने पड़ते हैं। जो कार्य आत्म बल सम्पन्न कर सके वे दूसरों से नहीं बन पड़े। पुरुषार्थ का अपना प्रयोजन तो है, पर यदि उसके पीछे आत्मबल का समावेश न हो तो फिर समझना चाहिए कि फुलझड़ी का तमाशा मात्र बनकर रह जायेगा। असुरों में से अनेकों के साधना बल के सहारे कई प्रकार की सिद्धियां प्राप्त कीं, पर वे न तो अधिक समय टिकीं और न अन्ततः सुखद परिणाम ही प्रस्तुत कर सकीं। भस्मासुर, महिषासुर, वृत्रासुर, रावण आदि की सिद्धियां अन्ततः उनके और उनके सम्बन्धियों के लिए विनाश और विपत्ति का कारण ही बनीं। इसके विपरीत उस दिशा में उद्देश्यपूर्ण कदम बढ़ाने वाले स्वल्प साधनों में भी उच्चस्तरीय एवं प्रशंसनीय सफलता प्राप्त कर सके। बुद्ध, गांधी, अरविन्द, रमण, रामकृष्ण, चाणक्य, रामदास, विवेकानन्द, दयानन्द आदि की साधनाएं जहां उन्हें मनस्वी बना सकीं, वहीं उनके कर्त्तृत्व ने समाज का असाधारण हित-साधन किया। ऋषियों की समस्त श्रृंखला उसी प्रकार की है। वे स्वयं तो आकाश में नक्षत्रों की तरह अभी भी चमकते हैं, साथ ही उनके समय में उनके साथ जो भी रहे वे भी सत्संग जन्य लाभों से निहाल होकर रहे और उच्च कोटि के अनुदान-वरदान प्राप्त करके कृत-कृत्य हो सके।
भगवान के अनुग्रह से कितने छोटे-छोटे असाधारण श्रेय साधन से सम्पन्न हुए हैं। हनुमान, अंगद, नल-नील, जामवन्त, भागीरथ, प्रहलाद, सुदामा, विभीषण आदि की सफलताएं ऐसी ही हैं जिन्हें वे अपनी निजी पुरुषार्थ से प्राप्त नहीं कर सकते थे। मनुष्य के अपने पुरुषार्थ की भी महत्ता है, पर उसके साथ यदि दैवी अनुग्रह के रूप में आत्मबल भी सम्मिलित हो जाता है तो फिर सोने में सुगंध के सम्मिश्रण जैसी बात बन जाती है। महाप्रभु ईसा का जीवन उदाहरण के लिए सामने है। कुन्ती, सावित्री, द्रोपदी, सुकन्या, अरुन्धती आदि महिलाओं ने भी अपनी सांसारिक योग्यता की तुलना में आत्मिक विभूतियों के सहारे कहीं अधिक पाया था।
इक्कीसवीं सदी में मानवी पुरुषार्थ की आवश्यकता तो बहुत पड़ेगी। सतयुग की तरह साधु, ब्राह्मण, वानप्रस्थी, परिव्राजकों की तरह असंख्यों को आत्मोत्कर्ष की सेवा साधनाओं में भी अपने को खपाना पड़ेगा, किन्तु यह नहीं समझा जाना चाहिए कि इतना बड़ा काम मात्र मानवी भागदौड़ से पूरा हो जायेगा। जब अपने छोटे से कुटुम्ब के थोड़े से दायरे में वाद-विवाद, मनोमालिन्य लोक व्यवहार के झगड़े काबू में नहीं आ पाते, तो 600 करोड़ मनुष्य में से प्रत्येक के पीछे लगी हुई ढेरों दुष्प्रवृत्तियों का कुप्रचलन कुछ थोड़े से व्यक्ति थोड़ी सी योजनाएं बनाकर हलके-फुलके व्यक्तियों के सहारे उसे पूरा कर सकेंगे, यह आशा कैसे की जा सकती है। इतने प्रबल पुरुषार्थ और समाधान के पीछे दैवी शक्ति का समावेश भी होना चाहिए अन्यथा मानवी पुरुषार्थ अपनी भूलों, कमजोरियों एवं प्रतिकूल परिस्थितियों के कारण ही सफलता के स्थान पर असफलता प्राप्त करते देखे गये हैं।
समझा जाना चाहिए कि संसार के दृश्यमान जड़ पदार्थों के साथ-साथ ऐसी एक सर्वव्यापी नियामक सत्ता भी है, जो इस आश्चर्य भरे ब्रह्माण्ड को बनाने से लेकर और भी न जाने क्या-क्या बनाती रहती है।
असल की नकल इन दिनों खूब चल पड़ती है। नकली चीजें सस्ती भी होती है। चलती भी अधिक हैं और बिक्री भी उन्हीं की अधिक होती देखी जाती हैं। नकली सोने के, नकली चांदी के जेवरों की दुकानों में भरमार देखी जाती है। नकली हीरे मोती भी खूब बिकते हैं। नकली रेशम, नकली दांत अधिक चमकते हैं। नकली घी से दुकानें पटी पड़ी हैं। नकली शहद सस्ते भाव में कहीं भी मिल सकता है, पर वह वस्तुएं ऐसे चमकीली होते हुए भी कहीं भी मिल सकता है, पर वह वस्तुएं ऐसे चमकीली होते हुए भी असली जैसा सम्मान नहीं पाती। बेचने पर कीमत भी नहीं उठती। अध्यात्म का नकलीपन भी बहुत प्रचलित हुआ है। उसे उपहार-मनुहार की टंट-घंट पूरी करके उन लाभों को पाने की प्रतिक्षा की जाने लगती है जिनके लिए प्रबल पुरुषार्थ और व्यक्ति के उठे हुए स्तर की अपेक्षा की जाती है। समुचित मूल्य न चुकाने पर कोई कीमती वस्तु ऐसे ही तिकड़मबाज़ी के सहारे हाथ कैसे लगे? देखा जाता है कि मनोकामनाओं का पुलन्दा बांधे फिरने वाले जिस-तिस देवी-देवता के पीछे गिड़गिड़ाते फिरने के उपरान्त भी खाली हाथ लौटते हैं और विधि-विधान में कोई गलती रहने या पूजा पाठ को व्यर्थ बताने की नास्तिकों जैसी प्रतिक्रिया व्यक्त करते रहते हैं। आये दिन लाभ मिलने रहने की बात न बनते देखकर उस प्रक्रिया को छोड़ बैठते हैं। या जब-तब अनमने मन से लकीर पीट लेते हैं।
अच्छा होता अध्यात्म का दर्शन, स्वरूप, उद्देश्य और प्रयोग के सम्बन्ध में गहराई में उतरकर जानने का प्रयत्न किया गया होता और पूरा मूल्य देकर असली चीज पाने की मान्यता को बनाया होता। तब इस सन्दर्भ में किसी को कोई शिकायत करने की आवश्यकता न पड़ती।
कहा जा चुका है कि विश्व के शक्ति भण्डार में सर्वोपरि आत्म बल है। उसकी तुलना धन बल, बुद्धि बल, शस्त्र बल, सत्ता बल आदि से नहीं हो सकती। वे सभी छोटे और बौने पड़ते हैं। जो कार्य आत्म बल सम्पन्न कर सके वे दूसरों से नहीं बन पड़े। पुरुषार्थ का अपना प्रयोजन तो है, पर यदि उसके पीछे आत्मबल का समावेश न हो तो फिर समझना चाहिए कि फुलझड़ी का तमाशा मात्र बनकर रह जायेगा। असुरों में से अनेकों के साधना बल के सहारे कई प्रकार की सिद्धियां प्राप्त कीं, पर वे न तो अधिक समय टिकीं और न अन्ततः सुखद परिणाम ही प्रस्तुत कर सकीं। भस्मासुर, महिषासुर, वृत्रासुर, रावण आदि की सिद्धियां अन्ततः उनके और उनके सम्बन्धियों के लिए विनाश और विपत्ति का कारण ही बनीं। इसके विपरीत उस दिशा में उद्देश्यपूर्ण कदम बढ़ाने वाले स्वल्प साधनों में भी उच्चस्तरीय एवं प्रशंसनीय सफलता प्राप्त कर सके। बुद्ध, गांधी, अरविन्द, रमण, रामकृष्ण, चाणक्य, रामदास, विवेकानन्द, दयानन्द आदि की साधनाएं जहां उन्हें मनस्वी बना सकीं, वहीं उनके कर्त्तृत्व ने समाज का असाधारण हित-साधन किया। ऋषियों की समस्त श्रृंखला उसी प्रकार की है। वे स्वयं तो आकाश में नक्षत्रों की तरह अभी भी चमकते हैं, साथ ही उनके समय में उनके साथ जो भी रहे वे भी सत्संग जन्य लाभों से निहाल होकर रहे और उच्च कोटि के अनुदान-वरदान प्राप्त करके कृत-कृत्य हो सके।
भगवान के अनुग्रह से कितने छोटे-छोटे असाधारण श्रेय साधन से सम्पन्न हुए हैं। हनुमान, अंगद, नल-नील, जामवन्त, भागीरथ, प्रहलाद, सुदामा, विभीषण आदि की सफलताएं ऐसी ही हैं जिन्हें वे अपनी निजी पुरुषार्थ से प्राप्त नहीं कर सकते थे। मनुष्य के अपने पुरुषार्थ की भी महत्ता है, पर उसके साथ यदि दैवी अनुग्रह के रूप में आत्मबल भी सम्मिलित हो जाता है तो फिर सोने में सुगंध के सम्मिश्रण जैसी बात बन जाती है। महाप्रभु ईसा का जीवन उदाहरण के लिए सामने है। कुन्ती, सावित्री, द्रोपदी, सुकन्या, अरुन्धती आदि महिलाओं ने भी अपनी सांसारिक योग्यता की तुलना में आत्मिक विभूतियों के सहारे कहीं अधिक पाया था।
इक्कीसवीं सदी में मानवी पुरुषार्थ की आवश्यकता तो बहुत पड़ेगी। सतयुग की तरह साधु, ब्राह्मण, वानप्रस्थी, परिव्राजकों की तरह असंख्यों को आत्मोत्कर्ष की सेवा साधनाओं में भी अपने को खपाना पड़ेगा, किन्तु यह नहीं समझा जाना चाहिए कि इतना बड़ा काम मात्र मानवी भागदौड़ से पूरा हो जायेगा। जब अपने छोटे से कुटुम्ब के थोड़े से दायरे में वाद-विवाद, मनोमालिन्य लोक व्यवहार के झगड़े काबू में नहीं आ पाते, तो 600 करोड़ मनुष्य में से प्रत्येक के पीछे लगी हुई ढेरों दुष्प्रवृत्तियों का कुप्रचलन कुछ थोड़े से व्यक्ति थोड़ी सी योजनाएं बनाकर हलके-फुलके व्यक्तियों के सहारे उसे पूरा कर सकेंगे, यह आशा कैसे की जा सकती है। इतने प्रबल पुरुषार्थ और समाधान के पीछे दैवी शक्ति का समावेश भी होना चाहिए अन्यथा मानवी पुरुषार्थ अपनी भूलों, कमजोरियों एवं प्रतिकूल परिस्थितियों के कारण ही सफलता के स्थान पर असफलता प्राप्त करते देखे गये हैं।