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Books - स्रष्टा का परम प्रसाद-प्रखर प्रज्ञा

Media: TEXT
Language: HINDI
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जीवन साधना एवं ईश-उपासना

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आस्तिकता या अध्यात्मिकता का क्रिया पक्ष भी अपने स्थान पर उचित है। उससे अभीष्ट प्रयोजन के सधने में सुविधा भी रहती है और सरलता भी होती है, पर किसी को यह अनुमान नहीं लगा लेना चाहिए कि पूजा कृत्यों की प्रक्रिया पूरी करने भर से आध्यात्मिकता के साथ जुड़ी रहने वाली फलश्रुतियों और विभूतियों की प्राप्ति भी हो जाती है। यह तो संकेत ‘‘सिम्बल’’ मात्र है, जो दिशा निर्धारण करता है और मील के पत्थर की तरह बताता है कि अपनी दिशा धारा किस ओर होनी चाहिए। साधना का प्रयोजन है— जीवन साधना अपने साथ कड़ाई और दूसरों के साथ उदारता बरतना। कड़ाई का तात्पर्य है— संयम- अनुशासन का कठोरतापूर्वक परिपालन। इंद्रिय संयम, अर्थ संयम और विचार संयम ही साधना के चार चरण हैं। इन्हीं को तत्परता के नाम से जाना जाता है। इस प्रयोजन के लिए अपव्यय को कठोरतापूर्वक रोकना पड़ता है और जो समय, श्रम, चिन्तन, साधन आदि बचाया जा सकता है, उसे तत्परतापूर्वक रोका जाता है और साथ ही इसका भी ध्यान रखना पड़ता है कि उसका सत्प्रयोजनों में श्रेष्ठतम सदुपयोग किस प्रकार बन पड़े, यदि यह निभ सके तो समझना चाहिए कि वास्तविक संयम साधना की तपश्चर्या सही दिशा में सही रीति से चल रही है और उसका सदुपयोग भी उच्चस्तरीय प्रतिफल प्रदान करके रहेगा।

पूजा अर्चा प्रतीक मात्र है, जो बताती है कि वास्तविक उपासक का स्वरूप क्या होना चाहिए और उसके साथ क्या उद्देश्य और क्या उपक्रम जुड़ा रहना चाहिए। देवता के सम्मुख दीपक जलाने का तात्पर्य यहां दीपक की तरह जलने और सर्वसाधारण के लिये प्रकाश प्रदान करने की अवधारणा हृदयंगम करना है। पुष्प चढ़ाने का तात्पर्य यह है कि जीवन क्रम को सर्वांग सुन्दर, कोमल सुशोभित रहने में कोई कमी न रहने दी जाय। अक्षत चढ़ाने का तात्पर्य है कि हमारे कार्य का एक नियमित अंशदान परमार्थ प्रयोजन के लिये लगता रहेगा। चंदन लेपन का तात्पर्य यह है कि सम्पर्क क्षेत्र में अपनी विशिष्टता सुगंध बनकर अधिक विकसित हो। नैवेद्य चढ़ाने का तात्पर्य है अपने स्वभाव और व्यवहार में मधुरता का अधिकाधिक समावेश करना। जप का उद्देश्य है अपने मनःक्षेत्र में निर्धारित प्रकाश परिपूर्णता का समावेश करने के लिये उसको रट लगाये रहना। ध्यान का अर्थ है अपनी मानसिकता को लक्ष्य विशेष पर अविचल भाव से केंद्रीभूत किये रहना। प्राणायाम का प्रयोजन है अपने आप को हर दृष्टि से प्राणवान, प्रखर, प्रतिभा सम्पन्न बनाये रहना। समूचे साधना विज्ञान का तत्वदर्शन इस बात पर केन्द्रीभूत है कि जीवनचर्या का बहिरंग और अंतरंग पक्ष निरन्तर मानवी गरिमा के उपयुक्त ढांचे में ढलता रहे। कषाय-कल्मषों के दोष दुर्गुण जहां भी छिपे हुए हों, उनका निराकरण होता चले। मनुष्य जितना ही निर्मल होता है उसे उसी तत्परता के साथ आत्मा के दर्पण में ईश्वर की झांकी होने लगती है। इसी को प्रसुप्ति का जागरण में परिवर्तित होना कहते हैं। आत्म ज्ञान की उपलब्धि या आत्म साक्षात्कार यही है। इस दिशा में जितना बढ़ पाते हैं उसे उसी स्तर का सुविकसित सिद्ध पुरुष या महामानव समझा जाता है।

सड़क चलने में सहायता तो करती हैं, पर उसे पार करने के लिये पैरों का पुरुषार्थ की काम देता है। भजन-पूजन तो एक प्रकार का जल स्नान है, जिससे शरीर पर जमी हुई मलीनता दूर होती है। यह आवश्यक होते हुए भी समग्र नहीं है। जीवन धारणा किये रहने के लिए तो खाना-पीना, सोना-जागना आदि भी आवश्यक है। पूजा अर्चा का महत्व समझा जाय, उसे नियमित रूप से अपनाया भी जाय, किन्तु यह मान बैठने की भूल न की जाय कि आत्मिक प्रगति में पात्रता और प्रामाणिकता की उपेक्षा की जाने लगे या मान लिया जाय कि क्रिया-कृत्यों से ही अध्यात्म का समस्त प्रयोजन पूरा हो जायेगा। यदि वरिष्ठता और महत्ता की जांच-पड़ताल करनी हो तो एक ही बात खोजनी चाहिए कि व्यक्ति सामान्य जनों की उपेक्षा अपने व्यक्तित्व, चिन्तन चरित्र और व्यवहार में उत्कृष्टता का अधिक समावेश कर सका या नहीं। सोने को कसौटी पर कसने के अतिरिक्त आग में तपाया जाता है, तब पता चलता है कि उसके खारेपन में कहीं कोई कमी नहीं है। इसी प्रकार देखा यह भी जाना चाहिए कि सत्प्रवृत्ति संवर्धन जैसे लोकमंगल कार्यों में किसका कितना बढ़ा-चढ़ा अनुदान रहा। अद्यावधि संसार के इतिहास में महामानवों का, ईश्वर भक्तों का इतिहास इन्हीं दो विशेषताओं से जुड़ा हुआ रहा है। इनने इन्हीं दो चरणों को क्रमबद्ध रूप से उठाते हुए उत्कृष्टता के उच्च लक्ष्य तक पहुंच सकना संभव बनाया है। अन्य किसी के लिए भी इसके अतिरिक्त और कोई मार्ग नहीं है। कोई ऐसा शार्टकट कहां है जिसे पकड़ कर जीवन के स्तर को घटिया बनाये रखकर भी कोई ठोस और सार्थक प्रगति की जा सके।

चतुरता के हथकण्डों में से कई ऐसे हैं तो सही, जो बाजीगरों जैसे चमत्कार दिखाकर भोले दर्शकों को अपने कौतुहलों से चमत्कृत कर देते हैं। बेईमानी से भी कभी-कभी कोई कुछ सफलता प्राप्त कर लेता है, पर इस तथ्य को भुला न दिया जाय कि बाजीगर हथेली पर सरसों जमा तो देते हैं, पर उसका तेल निकालते और लाभ मिलते किसी ने नहीं देखा। पानी के बबूले कुछ ही देर उछल-कूद करते और फिर सदा के लिये अपना अस्तित्व गंवा बैठते हैं।

धातुओं की खदानें जहां कहीं होती हैं, उस क्षेत्र के अपने सजातीय कणों को धीरे-धीरे खींचती और एकत्रित करती रहती हैं। उनका क्रमिक विस्तार इसी प्रकार हो जाता है। जहां सघन वृक्षावली होती है, वहां भी हरीतिमा का चुम्बकत्व आकाश से बादलों को खींचकर अपने क्षेत्र में बरसने के लिये विवश किया करता है। खिले हुये फूलों पर तितलियां न जाने कहां-कहां से उड़-उड़ कर आ जाती हैं। इसी प्रकार प्रामाणिकता और उदारता की विभूतियां जहां कहीं भी सघन हो जाती हैं वे अपने आप में एक चुम्बक की भूमिका निभाती हैं और अखिल ब्रह्माण्ड में अपनी सजातीय चेतना को आकर्षित करके अवधारण कर लेती हैं। ईश्वरीय अंश इसी प्रकार मनुष्यों की अपेक्षा निश्चित रूप से प्राणवानों में अधिक पाया जाता है। सामान्य प्राण को महाप्राण में परिवर्तित करना ही ईश्वर-उपासना का उद्देश्य है। इसी के फलित होने पर मनुष्य को मनीषी, क्षुद्र को महान, नर को नारायण बनने का अवसर मिलता है।
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