
पहला मोर्चा—अपना आपा
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तथ्यों का पर्यवेक्षण अपने आप से आरंभ करें। जन्म-जन्मान्तरों के संचित पैशाचिक स्तर के कुसंस्कार, निकटवर्ती क्षेत्र में अधिकांश लोगों द्वारा अपनाये गए अनाचारियों के प्रभाव में आकर बहुत कठोर हो जाते हैं, उन्हें अपनाई गई हठवादिता से विरत करना, आदर्शवादी परामर्शों के आधार पर भी टेढ़ी खीर हो जाता है। जब अधिकांश लोग पैसा और वाह-वाही लूटने के अतिरिक्त और कोई तीसरी बात सोचते ही नहीं, तो हमें ही एकाकी दिशा-निर्धारण की बात सोचकर प्रस्तुत समुदाय के सामने क्यों उपहासास्पद बनना चाहिए? यह प्रश्न पूछती है, वह तथाकथित समझदारी, जो आम लोगों पर पूरी तरह हावी है।
आदर्शों की बात कहने-सुनने भर की बात समझी जाती है। कथा कहने, सुनने भर से स्वर्ग-मुक्ति मिल जाने वाली मान्यता ही सरल मालूम पड़ती है। कठोर कार्य के साथ संबंध जोड़ने से सभी घबराते और कांपते देखे जाते हैं। फिर अपना मार्ग एकाकी निश्चय के आधार पर किस प्रकार अपनाते बने? ‘एकला चलो रे’ गीत गाने भर में तो उत्साहवर्धक प्रतीत होता है; पर उसे कर दिखाने में नानी याद आती है। अपने निज के कुसंस्कार ही लोभ, मोह और अहंकार के हथकड़ी-बेड़ी जैसे बन्धन बनकर कस जाते हैं। वे यथा-स्थिति पड़े रहने के लिए ही बाधित करते हैं।
इन बंधनों को तोड़ न भी सकें, तो उन्हें कम से कम शिथिल तो करना ही पड़ता है। अन्यथा न संकल्प उभरता है और ऐसा प्रयास करते बन पड़ता है, जिसके सहारे नव-सृजन के संदर्भ में कुछ कहने लायक पराक्रम करते बन पड़े? प्रथम कठिनाई यह कूपमंडूक बनाये रहने वाली स्थिति ही है। उछल कर सुविस्तृत विश्व–वसुधा के साथ जुड़ जाने की योजना तक गले नहीं उतरती, फिर उस स्तर का पराक्रम करते किस प्रकार बन पड़े? उदात्त जीवन जीने और ऊंचे लक्ष्य तक पहुंचने वाले मार्ग पर कदम बढ़ाने की बात कैसे बने? जब समूचा समय और साधन अभ्यस्त विडम्बना में ही खप जाते हैं, तो वह कैसे करते बन पड़े, जिसके लिए महाकाल का आमंत्रण हुंकारने और युगधर्म को अपनाने के लिए अन्तरात्मा में दबाव डालता है। जो अपने भीतरी असमंजस से निपट लेता है, अपनी राह आप बनाने के लिए कटिबद्ध हो जाता है, उसी के लिए यह संभव है कि ‘‘क्षुद्रं हृदय दौर्बल्यं, त्यक्त्वोतिष्ठ परंतप’’ वाले गीता-प्रवचन को जीवन में उतार सके।