
कार्य के अनुरूप व्यक्तित्व
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इन तथ्यों को ध्यान में रखते हुए इन मोर्चों पर जूझने वालों को असाधारण प्रतिभा का धनी होना चाहिए। समय की विपन्नता को चुनौती देने वाले और उसके स्थान पर सुसंपन्नता प्रतिष्ठापित करने के लिए जिनने निश्चय किया है, उनका व्यक्तित्व और कर्तृत्व ऐसा मजबूत होना चाहिए, जो स्वयं तो डगमगाये नहीं, वरन् प्रतिकूलताओं से मल्लयुद्ध करते हुए पछाड़ सकने वाले बलवान-पहलवान की भूमिका निभा सकें। किसी महान प्रयोजन में सफलता का श्रेय हर किसी को मिल नहीं पाता। इसलिए यदि वस्तुतः लक्ष्य साधना हो, तो अर्जुन एवं एकलव्य जैसी लक्ष्य के प्रति ऐसी एकाग्रता संजोनी चाहिए, जिसमें कोई व्यवधान आड़े न आ सके।
सृजनशिल्पी को अपना स्तर शब्दवेधी वाण जैसा बनाना चाहिए, जिसे निशाना वेधने के अतिरिक्त और कहीं भटकने जैसी कठिनाई का सामना करना ही न पड़े। मनस्वी ऐसे ही लोगों को कहते हैं। मनस्विता के सहारे वे इन्द्रवज्र और ब्रह्मास्त्र की तरह अभेद्य लक्ष्य वेध सकने में समर्थ होते रहे हैं। मनस्वी के साथ अन्यान्य विभूतियां भी आ मिलती हैं। ओजस्वी और वर्चस्वी बनाने वाली सहायक शक्तियां उस तक स्वयमेव खिंचकर चली आती हैं। नदी जितनी गहरी होती है, उसमें उतना ही अधिक पानी भरा पाया जाता है। इतना ही नहीं उस गहराई के अनुरूप ही दूर-दूर तक के नदी-नाले उसी दिशा में बहते-दौड़ते चले आते हैं और आत्म-विसर्जन करके सरिता का वैभव-विस्तार बढ़ाते रहने में अपनी-अपनी भूमिका सम्पन्न करते रहते हैं। यह लाभ उन्हें ही मिलता रहता है, जो सचमुच के मनस्वी, तेजस्वी, व्रतशील, संयमी और संकल्पवान हैं। इन विशेषताओं को अर्जित करने के लिए अपने चिन्तन, चरित्र और व्यवहार को ऐसा बनाना पड़ता है, जिसके कण-कण में मनोहारी सुगन्ध उभरती रहती है। ऐसे वरिष्ठ व्यक्तित्व वैचारिक प्रतिकूलता और परिस्थितियों की विकटता से भी निपटने में सफल हो जाते हैं।
दृढ़ निश्चयी अपनी निज की मानसिकता में घुसी हुई कायरता, क्षुद्रता और लोभ-लिप्सा से निपट लेते हैं। कम से कम इतना तो कर ही लेते हैं कि बाहर वालों को अंगुली उठाने का इतना अवसर न मिले, ताकि अच्छाइयां और सेवा-भावना प्रख्यात बुराइयों के भार से दब कर धूमिल और निरर्थक हो जायें। संसार में अनेकों दुर्गुणी पिछली भूलों का प्रायश्चित्त करके भावी जीवन में महामानव बन सके हैं। हर बुरा आदमी भी सुधार प्रक्रिया को अपना कर प्रामाणिक ही नहीं श्रद्धास्पद भी बन सकता है। अम्बपाली, अंगुलिमाल, अशोक जैसे असंख्यों के उदाहरण इस संभावना को समर्थन देने के लिए विद्यमान हैं।
जो दूसरों से कहना और कराना है उसे कार्यान्वित करने के लिए शुभारम्भ अपने आप से ही करना चाहिए और जो निश्चय किया है उस पर दृढ़तापूर्वक आरूढ़ रहना चाहिए। बेपेंदी के लोटे की तरह इधर से उधर लुढ़क कर अपने को उपहासास्पद नहीं बनाना चाहिए। संकल्पों को, निर्धारित निश्चयों को उस दिशा में तो पूरा किया ही जाना चाहिए, जब वे सुधार, संयम जैसे आदर्शवादी पक्ष के साथ जुड़े हुए हों। रामायण की यह चौपाई हर प्रामाणिक व्यक्ति को ध्यान में रखे ही रहना चाहिए जिसमें कहा गया है कि—‘‘प्राण जाहिं पर वचन न जाई’’। नित नई प्रतिज्ञाएं करने और जोश ठंडा होते ही गिरगिट की तरह कुछ से कुछ बन जाने वाले लोग अपनी हंसी कराते और अविश्वास का वातावरण बनाते हैं।
सृजनशिल्पी को अपना स्तर शब्दवेधी वाण जैसा बनाना चाहिए, जिसे निशाना वेधने के अतिरिक्त और कहीं भटकने जैसी कठिनाई का सामना करना ही न पड़े। मनस्वी ऐसे ही लोगों को कहते हैं। मनस्विता के सहारे वे इन्द्रवज्र और ब्रह्मास्त्र की तरह अभेद्य लक्ष्य वेध सकने में समर्थ होते रहे हैं। मनस्वी के साथ अन्यान्य विभूतियां भी आ मिलती हैं। ओजस्वी और वर्चस्वी बनाने वाली सहायक शक्तियां उस तक स्वयमेव खिंचकर चली आती हैं। नदी जितनी गहरी होती है, उसमें उतना ही अधिक पानी भरा पाया जाता है। इतना ही नहीं उस गहराई के अनुरूप ही दूर-दूर तक के नदी-नाले उसी दिशा में बहते-दौड़ते चले आते हैं और आत्म-विसर्जन करके सरिता का वैभव-विस्तार बढ़ाते रहने में अपनी-अपनी भूमिका सम्पन्न करते रहते हैं। यह लाभ उन्हें ही मिलता रहता है, जो सचमुच के मनस्वी, तेजस्वी, व्रतशील, संयमी और संकल्पवान हैं। इन विशेषताओं को अर्जित करने के लिए अपने चिन्तन, चरित्र और व्यवहार को ऐसा बनाना पड़ता है, जिसके कण-कण में मनोहारी सुगन्ध उभरती रहती है। ऐसे वरिष्ठ व्यक्तित्व वैचारिक प्रतिकूलता और परिस्थितियों की विकटता से भी निपटने में सफल हो जाते हैं।
दृढ़ निश्चयी अपनी निज की मानसिकता में घुसी हुई कायरता, क्षुद्रता और लोभ-लिप्सा से निपट लेते हैं। कम से कम इतना तो कर ही लेते हैं कि बाहर वालों को अंगुली उठाने का इतना अवसर न मिले, ताकि अच्छाइयां और सेवा-भावना प्रख्यात बुराइयों के भार से दब कर धूमिल और निरर्थक हो जायें। संसार में अनेकों दुर्गुणी पिछली भूलों का प्रायश्चित्त करके भावी जीवन में महामानव बन सके हैं। हर बुरा आदमी भी सुधार प्रक्रिया को अपना कर प्रामाणिक ही नहीं श्रद्धास्पद भी बन सकता है। अम्बपाली, अंगुलिमाल, अशोक जैसे असंख्यों के उदाहरण इस संभावना को समर्थन देने के लिए विद्यमान हैं।
जो दूसरों से कहना और कराना है उसे कार्यान्वित करने के लिए शुभारम्भ अपने आप से ही करना चाहिए और जो निश्चय किया है उस पर दृढ़तापूर्वक आरूढ़ रहना चाहिए। बेपेंदी के लोटे की तरह इधर से उधर लुढ़क कर अपने को उपहासास्पद नहीं बनाना चाहिए। संकल्पों को, निर्धारित निश्चयों को उस दिशा में तो पूरा किया ही जाना चाहिए, जब वे सुधार, संयम जैसे आदर्शवादी पक्ष के साथ जुड़े हुए हों। रामायण की यह चौपाई हर प्रामाणिक व्यक्ति को ध्यान में रखे ही रहना चाहिए जिसमें कहा गया है कि—‘‘प्राण जाहिं पर वचन न जाई’’। नित नई प्रतिज्ञाएं करने और जोश ठंडा होते ही गिरगिट की तरह कुछ से कुछ बन जाने वाले लोग अपनी हंसी कराते और अविश्वास का वातावरण बनाते हैं।