
तीसरा मोर्चा—जनमानस का शोधन
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तीसरा मोर्चा उस समुदाय के साथ बनता है, जिन्हें अचिन्त्य-चिन्तन से, अनुचित गति-विधियों से पीछे हटने का परामर्श दिया जाता है। वे भी इतने भले कहां होते हैं कि भ्रान्तियों के विपरीत जो श्रेयस्कर अनुरोध किया जा रहा है, उसे सहज स्वीकार कर लें। पूर्वाग्रहों से जकड़ी मान्यताएं और आदतें, वह कुछ भी सुनना-स्वीकारना नहीं चाहतीं, जो अभ्यास में गहराई तक घुसकर बैठ गया है। परामर्श कितना ही तथ्यपूर्ण क्यों न हो, पर नशेबाज के गले वह शिक्षा कहां उतरती है कि इस आत्मघाती कुटेव से विरत होने में ही भलाई है। वह परामर्शदाता से तर्क से जीत सकने की संभावना देखते हुए कभी-कभी हां-हां भी कर देता है। पर वह आश्वासन बहकावा भर होता है। नशेबाजी छोड़ने का न उसका मन बनता है और न वैसा साहस उभरता है। ठीक ऐसी ही कठिनाई तब सामने आती है, जब पैर से सिर तक कीचड़ में धंसे हुए लोगों को अपनी स्थिति बदल लेने के लिए कहा जाता है। दुर्बुद्धि ऐसी पिशाचिनी है कि वह जिसे एक बार पकड़ लेती है, उसे आसानी से चंगुल में से छूटने नहीं देती।
इतना होते हुए युग सृजेताओं के सामने इसके अलावा कोई चारा भी नहीं कि वे अचिन्त्य-चिंतन से लोगों को छुड़ायें और कुमार्ग पर चलने से लौटाने का प्रयास करें। यह कार्य प्रत्यक्षतः झंझट भरा है। तर्क, तथ्य, प्रमाण, उदाहरण प्रस्तुत करते हुए अपने प्रतिवेदन का औचित्य तो अकाट्य सिद्ध किया जा सकता है; पर उस हठवादिता के लिए क्या किया जाय, जो आम आदमी पर विशेषतया अनगढ़ वर्ग पर पूरी तरह सवार रहती देखी जाती है। ऐसी दशा में उपदेष्टाओं का परामर्श भी अरण्य-रोदन बनकर रह जाता है। बहुतों को बहुत बातें समझाते रहने पर भी लोग आदर्शों की ओर मुड़ने को तैयार नहीं हैं। लाभ को हानि और हानि को लाभ समझने की दृष्टि, जो उनकी परिपक्व हो गई होती है।
सृजन शिल्पी के करने के लिए काम तो अनेकों सामने ही हैं। पर सबसे बड़ा कार्य एक ही होता है, प्रवाह को-प्रतिबन्ध-प्रचलन को अमान्य कर सकने वाले लोकमानस का नव-सृजन करना। प्रतिकूलताओं को अनुकूल स्तर की बनाकर दिखाना। युग शिल्पियों को प्रधानतया इस एक ही प्रयत्न में आजीवन निरत रहना पड़ता है। भले ही प्रत्यक्ष क्रियाकलाप परिस्थिति के अनुरूप बदल जाते हों। जब करना यही है, उसका कोई विकल्प हो नहीं सकता, तो नये सिरे से नया निर्धारण करने और नये हथियार संजोने के लिए कुछ समय वस्तुस्थिति को समझने और उसका उपयुक्त समाधान खोज निकालने की आवश्यकता पड़ेगी।
बड़े काम हलके साधनों के सहारे सम्पन्न नहीं हो पाते। उनके लिए अधिक समर्थ साधन जुटाने होते हैं। बन्दूकों के दांत खट्टे करने के लिए तोप के गोलों का प्रहार ही विकल्प रहता है। मजदूरों द्वारा न उठ सकने वाले भार को मजबूत क्रेनें उठाती हैं। जिन चट्टानों को हथौड़ों से नहीं तोड़ा जा सकता उन्हें डायनामाइट के कारतूसों से उड़ाना पड़ता है या हीरे के टुकड़े वाले औजारों से छेदना पड़ता है। बड़ी समस्याओं को बड़प्पन की अनेक विशेषताओं से सम्पन्न मस्तिष्क ही सुलझा पाते हैं।
स्वभाव की शालीनता
युग प्रवर्त्तकों, विचारक्रान्ति के सूत्रधारों का स्वभाव इतना शिष्ट, मृदुल और शालीनता-सम्पन्न होना चाहिए कि जिससे भी बात करनी पड़े, वह मिलने भर से पुलकित हो उठे। उस पर सज्जनता की छाप पड़े और यह मान्यता अनायास ही उभरे, कि व्यक्ति अपने में ऐसे तत्त्व समाविष्ट कर चुका है—जिसके आधार पर सहज सद्भाव की मनःस्थिति बनती है।
इतनी स्थिति कर लेने के उपरान्त प्रतिकूलता को मोड़-मरोड़ देते हुए, अनुकूलता तक घुमा लाना कुछ कठिन नहीं रह जाता है। संकट तब खड़ा होता है, जब दोनों ही पक्ष ऐंठ-अकड़ में होते हैं, विचार-विनिमय में ही अपनी बात पर अड़ कर प्रतिष्ठा का प्रश्न बना लेते हैं। ऐसी स्थिति कभी भी, कहीं भी बननी नहीं चाहिए। एक बार में बात बनती न दीख पड़े, तो झगड़कर प्रसंग को समाप्त कर देने की अपेक्षा यह गुंजाइश छोड़ दी जाय, कि भविष्य में समय मिलते ही नये सिरे से, नये दृष्टिकोण से उस पर चर्चा की जा सके। अंतर्राष्ट्रीय राजनीति में मतभेदों को किसी हद तक दूर करने में ऐसे ही विचार विनिमय काम देते हैं। इसके लिए जो प्रतिनिधि नियुक्त किये जाते हैं उनमें यह विशिष्टता परखी जाती है कि वह घोर मतभेद के बीच भी सरलता और तरलता की दृष्टि से लोचदान-लचकदार बने रहें और उलझनों को सुलझाने की दिशा में क्रमशः आगे सफल होते रहें। ऐसे ही कूटनीतिज्ञ प्रतिष्ठा पाते और महानीति के लिए अधिकारी समझे जाते हैं।
नागरिकता, सामाजिकता, सभ्यता, शालीनता का समन्वय ही शिष्टाचार बन जाता है। उसके प्रदर्शन का व्यावहारिक स्वरूप तो क्षेत्रों और वर्गों की स्थानीय प्रचलित परम्पराओं के अनुरूप बनता है, पर उसके मोटे सिद्धान्त दो हैं—एक अपनी नम्रता और दूसरों की प्रतिष्ठा को समुचित रूप से बनाये रहना। उद्दण्डता का, असभ्यता का तनिक सा भी पुट, बनी बात बिगाड़ देता है। प्रतिपक्षियों को अनुकूल बनाना तो दूर, इस कारण अपने समर्थक समझे जाने वाले लोग तक सामान्य बात का बतंगड़ बना देते हैं। युगशिल्पियों को अधिकांश समय जन सम्पर्क में ही बिताना पड़ता है और मान्यताओं के क्षेत्र में प्रायः अपनी भूमिका इतनी लचीली रखनी पड़ती है कि इच्छित परिवर्तन तो होता रहे, पर उसमें अभद्रता कहीं आड़े न आये। अभीष्ट सफलता का बहुत कुछ श्रेय इन्हीं छोटी-छोटी बातों पर निर्भर रहता है। कलावन्त इसका प्रदर्शन करने से चूकते नहीं।
प्रामाणिकता अनिवार्य
युगशिल्पी को अपने व्यवहार में दो अन्य बातों का समावेश करना चाहिए, जो देखने में साधारण मालूम पड़ती है, पर ऊर्जा-प्रतिक्रिया असाधारण स्तर की होती है। उनमें से एक है—सार्वजनिक पैसे को अत्यन्त पवित्र धरोहर मानकर उसकी एक-एक पाई का इतनी सावधानी से प्रयोग करना कि जांच करने वाले को इसमें कहीं खोट दिखाई न पड़े। साथ ही अपनी अन्तरात्मा और सर्वसाधारण को यह विश्वास बना रहे कि दान के पैसे में कहीं किसी प्रकार की कोई गड़बड़ी नहीं हुई है। जिसके भी हाथ में वह धन रहा, उसने सन्तों जैसी निस्पृहता का परिचय दिया है—लोकसेवी द्वारा प्रामाणिकता की दृष्टि से इस प्रसंग में सतर्कता बरती ही जानी चाहिए।
दूसरा प्रसंग है—नर और नारी के मध्यवर्त्ती सम्बन्धों का। सार्वजनिक क्षेत्र में नर और नारी मिल-जुलकर ही सामूहिक कार्यक्रमों और आयोजनों को सम्पन्न करते हैं। ऐसी दशा में इस आशंका की गुंजाइश रहती है कि कहीं अनैतिक चिन्तन और आचरण आड़े न आने लगा हो। भावनाओं की पवित्रता तो ऐसे प्रसंगों में अक्षुण्ण रहनी ही चाहिए, पर साथ ही यह भी नहीं भूलना चाहिए कि तरुण और तरुणियों की घनिष्ठता, निकटता और असाधारण सहकारिता भी साधारण जनों की आंखों में खटकती है। उतने भर से आशंकाओं का ऐसा बवण्डर बन पड़ता है, जो बदनामी के स्तर तक पहुंचा देता है। ऐसी दशा में न केवल संबंधित व्यक्तियों को, वरन् उस लक्ष्य को भी भारी क्षति पहुंचती है, जिसके लिए एकत्रित हुआ गया था और मिल-जुलकर काम करने में कुछ अनुचित नहीं माना गया था।
अपनी दृष्टि और क्रिया कुछ भी क्यों न रही हो, पर लोग तो लोग हैं। संसार में प्रचलित अनेकानेक विसंगतियों को देखते हुए अशुभ आशंका कहीं भी की जा सकती है। इस लोक मान्यता को ध्यान में रखते हुए, संस्थागत हिसाब-किताब में तथा नर-नारी की निकटता वाले अवसरों पर, इतनी अधिक सावधानी बरतनी चाहिए कि कुकल्पना के लिए कहीं कोई गुंजाइश ही शेष न रहे।
यहां एक बात और हर समाज सेवी को नोट कर लेनी चाहिए कि श्रेय पाने, हर प्रसंग में अपने को अग्रणी सिद्ध करने वाले लोग जन साधारण की दृष्टि में ओछे-बचकाने समझे जाते हैं और लोकसेवी का बाना पहनने पर भी बहुत घटिया समझे जाते हैं। उनको सम्मान यदि धोखे से कभी मिल भी जाय, तो वह कागज के फूल की तरह थोड़े ही समय में अपना आकर्षण खो बैठता है। नेता बनने के लिए लालायित लोग नाम छपाने, चेहरा मटकाने और माइक पर छाये रहने की कोशिश करते हैं। बड़प्पन जताने के लिए व्याकुल लोग, कुछ हाथ में रहा हो, तो उसे भी गंवा बैठते हैं। इनके अनेकों प्रतिस्पर्धी, विरोधी और ईर्ष्यालु उपज पड़ते हैं। ऐसे विग्रहों का परिणाम उस संगठन या मंच को भी बदनाम करता है, जिस पर चलकर वे ऊंचे बनना चाहते हैं। वे स्वयं बदनाम होते हैं और उस संगठन को ले डूबते हैं, जिसके कि वे नेता कहलाना चाहते थे। गांधीजी की सादगी, सज्जनता और विनम्रता प्रसिद्ध थी। इसलिए वे कांग्रेस के कोई नियुक्त नेता पदाधिकारी न होते हुए भी उस समुदाय के लिए प्राण बने हुए थे। व्यक्तित्व उभारने का यही राजमार्ग है। नेतागिरी के लिए उछल-कूद करने वाले तो मात्र नट-नर्तक स्तर के अभिनेता बन कर रह जाते हैं। प्रामाणिकता के अभाव में कोई भी देर तक श्रद्धास्पद नहीं रह सकता और न उसकी नेतागिरी देर तक चलती है। सृजन शिल्पी इस तथ्य से भली प्रकार अवगत रहें, तो ही ठीक है।