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Books - स्वामी दयानंद सरस्वती

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अंध परंपराओं का निराकरण

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स्वामी दयानंदजी के जीवन का सर्वोपरि उद्देश्य जाति में प्रचलित हानिकारक विश्वास, कुरीतियों और रूढि़यों को मिटाकर उनके स्थान में समयोचित लाभकारी प्रथाओं का प्रचार करना था। इसके लिए उन्होंने सबसे पहले "मूर्तिपूजा" को ही अपना लक्ष्य बनाया, क्योंकि उस समय इस संबंध में बडा़ अधं विश्वास उत्पन्न हो गया था, जिससे धर्म की हानि हो रही थी। अनेक संप्रदायों के "गुरूओं" और "आचार्यों" ने जनता की भेड़चाल को देखकर देवी- देवताओं के नाम पर तरह- तरह के पाखंड और जाल फैला रखे थे। लोग पाप- पुण्य के वास्तविक स्वरूप, संयम, शुद्धाचार, परोपकार, सेवा आदि सत्कर्मों को भूल कर केवल किसी देवता की मूर्ति के आगे मस्तक झुका देना और कुछ चढा़वा चढा़ देना मात्र को ही 'धर्म- पालन समझने लग गए थे। इस कारण दिन पर दिन धर्म और जाति की अवनति होती जाती थी और समझदार व्यक्ति उससे उदासीन होते जाते थे।
यह दशा देखकर अन्य धर्म वाले हिंदूओं को अपने मत का अनुयायी बानाने की चेष्टा करने लगे थे। उस समय राज्य की शक्ति को अपनी सहायक समझकर ईसाई पादरी विशेष रूप से सक्रिय हो उठे थे और उन्होंने अर्द्ध सभ्य और पहाडी़ जातियों को ही नहीं, अनेक सुशिक्षित और उच्च वंशीय लोगों को भी अपने धर्म में दीक्षित कर लिया था। हिंदू- समाज पर इस तरह विपत्ति के बादलों को घहराते देखकर अनेक धर्मप्राण और समाज के हितैषी लोगों को मानसिक कष्ट हो रहा था। पर कार्य की कठिनता और कोई उचित मार्ग न सूझ सकने के कारण वे विशेष प्रयत्न न कर पाते थे। स्वामी दयानंदजी के हृदय पर इस अवस्था को देख कर चोट लगी और वे सब प्रकार संकटों और भय की संभावनाओं का ख्याल छोड़कर इस दुरावस्था के सुधार का निश्चय करके कर्म क्षेत्र में उतर पडे़ ! उन्होंने भली प्रकार अनुभव किया कि, हिंदू जाति जैसी प्रागढ़ निद्रा में ग्रसित है, उसे जाग्रत करना सहज नहीं है। इसकी निद्रा भंग करके सावधान करने के किए जब तक कोई शक्तिशाली उपाय न किया जायेगा, तब तक यह होश में न आयेगी और न अपना भला- बुरा समझकर अपने घर की रखवाली में प्रवृत्त होगी। इसलिए उन्होंने आरंभ से ही मूर्ति- पूजा, तीर्थ यात्रा, श्राद्ध आदि ऐसे विषयों की त्रुटियाँ दिखलाना आरंभ किया, जिनको लोग अनुचित महत्त्व देने लग गए थे और जिनमें स्वार्थी जनों के लोभ लालच के कारण तरह- तरह के दोष दिखलाई पड़ने लगे थे। यद्यपि इस प्रकार खंडन की बातों से आरंभ में लोग बहुत चौंके और स्वामी जी के लिए 'नास्तिक' 'अधार्मिक' कृस्तान आदि अपशब्दों का प्रयोग करने लगे, पर इस 'खंडन' से स्वामी जी का वास्तविक आशय क्या था, यह स्वयं उन्होंने एक भाषण में बतलाया था-

"अनेक जन कहते हैं- कि आपके खंडन- परक व्याख्यानों से तो लोगों में घबराहट उत्पन्न हो जाती है। उनके हृदय भड़क उठते हैं। इसका परिणाम शुभ कैसे होगा? भाई, जब रोग दूर होने में नहीं आता तो अच्छे वैध, देर से बढे़ दोषों को शांत करने और मल को बाहर निकालने के लिये विरेचक (दस्तावर) औषधियाँ दिया करते हैं। निरेचक औषधि पहले घबराहट उत्पन्न करती है। व्याकुलता लाती है। कभी- कभी उससे जी भी मचलाने लगता है। परंतु जब विरेचना होकर कुपित दोष शांत हो जाते हैं, तब प्रसन्न्ता- लाभ होती है, धीरे- धीरे वास्तविक पुष्टि प्राप्त हो जाती है। आर्य जाति में अनेक कुरीतियों के दोष और मिथ्या मंतव्यों के मल बढ़ गये हैं। उनके कारण यह इतनी रुग्ण हो गई है कि इसके स्नेहियों को इसके जीवन में संशय उत्पन्न हो गया है। लोग इसकी आयु के वर्षों को अँगुलियों पर गिनने लगे हैं। हमारे उपदेश आज निरेचक औषधि की भाँति, घबराहट अवश्य लाते हैं, परंतु वे जातीय शरीर के संशोधक और आरोग्यप्रद हैं। वर्तमान आर्य संतान हमें चाहे जो कहे परंतु भारत की भावी संतति हमारे धर्म- सुधारक को और हमारे जातीय संस्कार को अवश्यमेव महत्त्व की दृष्टि से देखेगी। हम लोगों की आत्मिक और मानसिक निरोगिता के लिए जो कुरीतियों का खंडन करते हैं, वह सब कुछ हित भावना से किया जाता है।"

स्वामी जी का उपर्युक्त कथन आज एक "भविष्यवाणी" की तरह यथार्थ सिद्ध हो रहा है। उनके प्रचार- कार्य के आरंभिक वर्षों में और आर्य समाज की स्थापना होते समय उनके विरोध और साक्षेपों का जो तूफान उठा था, आज उसका चिन्ह भी नहीं है। स्वामी जी ने जिन बातों का प्रचार किया था, उनमें से अधिकांश न्यूनाधिक अंशों में पूरी हो चुकी हैं, वरन् अन्य लोग उनसे भी बहुत आगे बढे़ चले जारहे हैं। आज हिंदू- समाज में केवल थोडे़ से पुराने ढर्रे के पंडा- पुजारियों को छोड़ कर कोई स्वामी जी के कार्यों को बुरा कहने वाला न मिलेगा, वरन् अन्य देशों के निष्पक्ष विद्वान् उनके लिए "हिंदू जाति के रक्षक" "हिंदुओं को जगाने वाले" आदि प्रशंसनीय विशेषणों का ही प्रयोग करते हैं। वास्तव में स्वामी जी उन "महापुरुषों" में से थे, जो किसी जाति की अवनति होने पर उसके उद्धार के लिए जन्म लिया करते हैं। ऐसे पुरुषों में ईर्ष्या, द्वेश, स्वार्थ, पक्षपात आदि क्षुद्र भावनाएँ नहीं होती, वरन् वे जो कुछ करते हैं वह मानव मात्र की कल्याण भावना से ही होता है। यह तथ्य स्वामी जी के एक लेखांश से भी प्रकट होता है-

"यद्यपि आजकल बहुत से विद्वान् प्रत्येक मत में पाये जाते हैं। यदि वे पक्षपात छोड़कर सर्व- तंत्र सिद्धांत को स्वीकार करें, जो- जो बातें अनूकुल हैं और जो बार्तें बर्तावें एक- दूसरे के विरुद्ध पाई जाती हैं, उनको त्याग कर परस्पर प्रिति से बर्तें- बर्तावें तो जगत् का पूर्ण हित हो जावे। विद्वानों के विरोध से ही अविद्वानों में विरोध बढ़ कर विविध दुःखों की वृद्धि और सुखों की हानि होती है। यह हानि स्वार्थी मनुष्यों को प्यारी है, पर इसने सर्वसाधारण को दुःख में डुबो दिया है।"

"जो सज्जन सार्वजनिक हित को लक्ष्य में धरकर कार्य में प्रवृत्त होता है, उसका विरोध स्वार्थी जन तत्परता से करने लग जाते हैं। उनके मार्ग में अनेक प्रकार की विघ्न- बाधायें डालते हैं। परंतु "सत्यमेव जयते नानृतम्" के अनुसार सर्वदा सत्य की विजय और असत्य की पराजय होती है। सत्य ही से विद्वानों का मार्ग विस्तृत हो जाता है। इस दृढ़ निश्चय के अवलंबन से आप्त लोग परोपकार करने से उदासीन नहीं होते।"

स्वामी जी केवल हिंदुओं के ही अंध विश्वासों का खंडन नहीं करते थे, वरन् संसार के अन्य धर्मों की भ्रमपूर्ण धारणाओं के विरुद्ध भी निर्भयतापूर्वक बोलते थे। पर इसमें भी उनका भाव द्वेष अथवा पक्षपात का नहीं रहता था। इसका स्पष्टीकरण करते हुए उनके लेख में कहा गया था- "यद्यपि मैं आर्यावर्त देश में उत्पन्न हुआ और बसता हूँ तथापि जैसे इसके मतमतांतरों की झूठी बातों का पक्षपात किये बिना यथातथ्य प्रकाश करता हूँ। वैसा ही व्यवहार दूसरे देश के मजहब वालों के साथ करता हूँ। मेरा मनुष्यों की उन्नति का व्यवहार जैसा स्वदेशियों के साथ है। वैसा ही विदेशियों के साथ है।सब सज्जनों को इसी प्रकार बर्तना योग्य है। यदि मैं किसी एक का पक्षपाती होता तो जैसे आजकल के मतवादी अपने मत का मंडन और प्रचार करते है और दूसरे मतों की निंदा तथा हानि करते हैं, वैसा ही मैं भी करता, पर ऐसा करना अमानुषी कर्म है।जैसे बलवान् पशु निर्बलों को दुःख देते हैं और मार डालते हैं, ऐसा ही काम यदि मनुष्य- तन पाकर भी किया तो यह मानुषी स्वभाव के विपरीत है, पशुओं के सदृश है। जो बलवान् होकर निर्बलों की रक्षा करता है वही मनुष्य कहा जाता है। और जो स्वार्थवश पराई हानि पर तुला रहता है वह तो मानो पशुओं का भी बडा़ बंधु है।"

स्वामी जी ने हिंदुओं की निद्रा भंग के जिस लक्ष्य को सम्मुख रखकर प्रचार कार्य आरंभ किया था, उसमें वे असफल हुए अथवा उससे समाज की हानि हुई- यह कोई नहीं कह सकता। इधर स्वामी जी ने लोगों के मूढ़ विश्वासों पर निर्ममता से प्रहार किए और उधर लोगों ने भी उनके वास्तविक आशय को न समझकर उन पर अपशब्दों तथा ईंट- पत्थरों की वर्षा की, पर अंत में दोनों अपनी स्थिति को समझ गये और बाद में आर्य- समाज द्वारा सुधार का काम नियमित रूप से होने लगा। आज हवन, यज्ञ, वेद- प्रचार, स्त्री शिक्षा, विधवा- विवाह, अस्पृश्यता- निवारण आदि अनेक सुधारों को सनातन धर्म साभाएँ स्वयं करने लग गई हैं। सन् १९२२- २३ में जब शुद्धि आंदोलन ने जोर पकडा़ तब बडे़ पुराने पंडितों ने उस कार्य में सहयोग दिया और विधवाओं को विधर्मियों के चंगुल से बचाने के लिए खुले आम विधवा- विवाह का समर्थन करने लगे। माननीय मालवीय जी जैसे प्रमुख सनातनी नेता ने गंगा तट पर बैठकर हजारों अछूतों को मंत्र- दीक्षा दी। गांधी जी भी अपने को सनतन धर्म का अनुयायी ही मानते थे, पर उन्होंने सभी हानिकारक परंपराओं और रूढि़यों को इस प्रकार हटाया कि उनकी जड़ बहुत अधिक हिल गई और आज सौ वर्ष पहले की अपेक्षा सुधार- कार्य अपने आप तीव्र गति से हो रहा है।

पर यह सब होते हुए भी इस कार्य में स्वामी जी का जो योगदान है, उसे भुलाया नहीं जा सकता। हम इससे इनकार नहीं कर सकते कि आज हम 'धर्मक्षेत्र' में जो प्रगति देख रहे हैं, उसमें स्वामी जी ने भी कम त्याग और बलिदान नहीं किया है। यद्यपि इससे पहले भी राजा राममोहन राय, केशवचंद्र सेन, श्री रानाडे, विवेकानंद आदि ने समाज- सुधार का कार्यारंभ किया था, पर उत्तर प्रदेश, राजस्थान, पंजाब जैसे हिंदी प्रांतों और गुजरात में इस प्रवृत्ति को जन्म देने और जड़ जमाने का श्रेय अधिकांश में स्वामी जी को ही है।

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