
प्राचीन तथा नवीन का संघर्ष
Listen online
View page note
इस उत्तर में स्वामी जी का दृष्टिकोण पूरी तरह समाया हुआ है। वे हिंदू- समाज को अपने से पृथक् या विरोधी तनिक भी नहीं मानते थे और न कभी उसकी अकल्याण भावना कर सकते थे। वे तो अपने को सच्चा हिंदू ही मानते थे और इसलिए हर प्रकार की कठिनाई सहकर अपने धर्म- भाईयों के सुधार की चेष्टा करते थे। वे तो वेदों को प्राचीन और धर्म का मूल स्त्रोत जानते हुए, पुराणों के बाजाय उन्हीं का अनुकरण करने का उपदेश देते थे, पर आजकल ऐसे सुधारकों अथवा आंदोलकारियों की भी कमी नहीं, जो भारतीय धर्म का पूरी तरह से उच्छेद करने का ही प्रतिपादन करते हैं। इस दृष्टि से स्वामी जी को हिंदुओं का अहितकर्ता तो किसी प्रकार कहा ही नहीं जा सकता। यद्यपि उनका दृष्टिकोण कुछ संप्रदायवादी पंडित- पुरोहितों से नहीं मिलता था और वे प्राचीन परंपरा में समयानुकूल परिवर्तन करने की सलाह देते थे तो इसको कोई बुरा नहीं कह सकता।हिंदू- धर्म जैसे विशाल और प्राचीन में संगठन में मतभेद और झगडों़ का होना कोई आश्चर्य की बात नहीं। हजार- डेढ़ हजार वर्ष पहले हिंदू- धर्म के दो अंग- शैवों और वैष्णवों में जिस प्रकार धार्मिक कलह हुई थी और उसके फलस्वरूप जैसे पारस्परिक अत्याचार हुए थे, उनकी तुलना में पिछले वर्षों की सनातनी और आर्यसमाजियों के बीच का वैमनस्य कुछ भी न था। इसी प्रकार एक ही ईसाई धर्म की दो शाकाएँ होते हुए भी रोमनकैथेलिक और प्रोटेस्टेंट के मध्य जो अमानुषी और रोमांचक हत्याकांड किए गए, मुसलमानों में सुन्नी और शिया अभी तक जिस प्रकार खून खराबा करते रहते हैं, स्वयं शियाओं में भी ईरान में बहाई- समाज वालों के साथ जैसा बर्बरतापूर्ण व्यवहार किया है, उस सबको देखते हुए स्वामी जी के प्रचार और संगठन कार्य के संबंध में तो प्रशंसा के अतिरिक्त और कुछ कहा नहीं जा सकता।
रह गई मूर्ति- पूजा, तीर्थ यात्रा, पितृ श्राद्ध आदि की बात, तो अब उनका मूल रूप कहाँ रह गया है? जैसे वैदिक यज्ञों में समय के प्रभाव से विकृति उत्पन्न होते- होते, वे पूरी तरह "हिंसा आयोजन" बन गये थे, सी प्रकार मूर्तिपूजा भी शिवा- योग और विष्णु- भक्ति के अभ्यास का एक साधन होने के बजाय कालक्रम में बडे़- बडे़ धर्मोत्सवों, छप्पन भोगों और आरती तथा पूजा के नाम पर बडी़- बडी़ धनराशि के अपव्यय का कारण बनगई।अगर लोगों का अनुमान सही हो तो आजकल भारत भर के मंदिरों में २५० से ५०० अरब अधिक की संपत्ति लगी है और उनका खर्च भी प्रति वर्ष १० से २० अरब से कम न होगा। इतनी बडी़ धनराशि का यदि विवेकपूर्वक धर्म- प्रचार और समाज- सुधार के ठोस कार्यों में खर्च किया जाए और लाखों मुफ्तखोरों की जो पलटन उन मंदिरों के सहारे पल रही है, उसे उपयोगी कामों में संलग्न कर दिया जाए तो क्या दस- पाँच वर्ष में ही हिंदू धर्म तथा हिंदू- जाति की काया पलट न हो जाए?
इसीलिए व्यावहारिक दृष्टि से हम स्वामी जी के प्रचार- कार्य को बुरा नहीं कह सकते। पर सिद्धांत की दृष्टि से हम यह कह सकते हैं, कि अपने जीवन को धार्मिक, संयमपूर्ण और पारमार्थिक बनाने की दृष्टि से मूर्तिपूजा द्वारा भी बहुत कुछ प्रगति की जा सकती है। यह ठीक है कि वेदों में मूर्तिपूजा का जिक्र नहीं है, पर इस बीसवीं शताब्दी में कोई शिक्षित और सभ्यतानुकूल जीवन व्यतीत करने वाला व्यक्ति पूर्णतः वैदिक समय के रहन- सहन के अनुसार निर्वाह नहीं कर सकता। इस समय यंत्र- युग है और उस समय मनुष्य अधिकांश समय प्रकृति की गोद में रहता था। इन दोनों का सामंजस्य कर सकना प्रायः असंभव ही है। शोध करने वाले विद्वानों के कथनानुसार मूर्ति- पूजा बौद्धकाल के बीच में ही आरंभ हुई और आधुनिक ढंग की मूर्तिपूजा कोरामानुजाचार्य, रामानंद, वल्लभाचार्य आदि के उपदेशों से प्रचलित हुई है। पर यह नहीं कहा जा सकता कि नवीन होने से उसका कोई उपयोग ही नहीं है। इसी मूर्ति- पूजा के माध्यम से इन कुछ सौ वर्षों के भीतर तुलसीदास, चैतन्य, समर्थगुरु रामदास, रामकृष्ण परमहंस, विवेकानंद आदि युगांतकारी दैवी विभुतियाँ उत्पन्न हो चुकी हैं। यह कहने का साहस कोई समझदार व्यक्ति नहीं कर सकता कि ये संत किसी भी अन्य महापुरुष की अपेक्षा कम थे अथवा उन्होंने जाति और धर्म की कम सेवा की थी। यदि स्वामी दयानंद जी ने हिंदू जाति को जगाने का महान् कार्य किया, तो गोस्वामी तुलसीदास और रामदास ने हिंदू जाति के अस्तित्व की ही रक्षा की।
मूर्ति को भगवान् कहना अनेक व्यक्तियों में कुछ भ्रम पैदा कर देता है और इसी के कारण कुछ लोगों को आक्षेप का अवसर मिल जाता है। तथ्य यह है कि मूर्ति द्वारा उपासना करना भी अन्य अनेक धर्म- मार्गों की तरह ईश्वर प्राप्ति का एक साधन है। साथ ही यह भी सत्य है कि हिंदू धर्म के पुराने आचार्यों ने मूर्तिपूजा को मानते हुए भी, उसे र्सवश्रेष्ठ साधन नहीं बताया है। शास्त्रों में एक स्थान पर कहा गया है- "अप्सु देवा बालानाम्दिवि देवता मनीषिणाम्।" अर्थात् "बालबुद्धि वाले सामान्य लोगों के लिए तीर्थ और मूर्ति आदि स्थूल पदार्थ ही ईश्वर हैं और जो विद्वान् लोग हैं वे दिव्य शक्तियों को ईश्वर समझते हैं, पर ज्ञानियों की दृष्टि में एक मात्र उनकी आत्मा ही ईश्वर होती है।"
कुछ भी हो- स्वामी दयानंदजी ने ऐसे समय में हिंदू- जाति को उठाने का कार्य किया, जब उनकी अवस्था बडी़ निर्बल और अस्तव्यस्त हो रही थी। यदि उस समय वे इस तरफ ध्यान न देते और अपने तन- मन तथा समस्त योग्यता को इसके लिए अर्पण न कर देते तो हिंदुओं को विधर्मियों से बहुत अधिक दब जाना पड़ता, जिसका परिणाम शोचनीय ही होता। इसी तथ्य को दृष्टिगोचर रखते हुए श्रीमती ब्रह्मवती नारंग ने स्वामी जी के जीवन- कार्यों का वर्णन करते हुए ठीक ही लिखा है-
"भारत पर स्वामी जी के महान् रिण हैं। अपने छोटे से जीवन में उन्होंने देश के एक कोने से दूसरे कोने तक फैले हुये "पाखंड एवं कुप्रथाओं" का निराकरण करके वैदिक धर्म का नाद बाजाया। 'गौबध' बंद कराने का प्रयत्न किया। 'बाल विवाह' की प्रथा का विरोध करके लोगों को 'ब्रह्मचर्य' का महत्व बताया। स्थान- स्थान पर गुरुकुल खुलवाकर 'संस्कृत शिक्षा' का प्रचार किया। 'विधवा विवाह' की प्रतिष्ठा की और 'मद्य- मांसादि' का घोर विरोध किया। स्त्रियों को स्वतंत्रता दिलाई, राजनीतिक स्वतंत्रता पर बल दिया और हर प्रकार से आर्य- जाति को फिर से उसके अतीत के गौरव पर स्थापित करने का प्रयत्न किया।"