
यथार्थता तो स्वीकारनी ही पड़ेगी
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श्रुति का वचन है कि ‘सर्व खल्विदं ब्रह्म’ अर्थात् यह सब विशद ब्रह्माण्ड ब्रह्म ही है। विराट् ब्रह्म की परिकल्पना में इस विश्व को ही ईश्वर का दृश्य स्वरूप माना गया है। अर्जुन, कौशल्या, काकभुशुण्डि आदि ने ईश्वर दर्शन का आग्रह किया जो उन्हें विराट् विश्व की झांकी करके ही सन्तोष करना पड़ा। निराकार का अपना निजी स्वरूप कोई हो ही नहीं सकता। कलेवर समेत ही उसकी झांकी होने की अपेक्षा की जाती है, यह कलेवर और कुछ नहीं प्रकृतिपरक ही हो सकता है, भले ही वह प्रत्यक्ष हो अथवा परोक्ष, दृश्य हो या अदृश्य, वह वस्तु रूप भी हो सकता है और कल्पना शक्ति के आधार पर स्व-विनिर्मित भी।
ईश्वर सान्निध्य की चर्चा का जहां प्रसंग आता है उसे अन्तराल में, हृदय देश में, अन्तः गुहा में अवस्थित ही बताया जाता है। चेतना का अणु पक्ष आत्म सत्ता में है और विभु पक्ष ब्रह्माण्डीय चेतना में। दोनों एक ही तत्व के बने हैं। चिनगारी और आग, बूंद और जलाशय, घटाकाश और महाकाश में मात्र आकार भिन्नता है। सत्ता एक ही है, ब्रह्म सान्निध्य का लक्ष्य प्राप्त करने के लिए आत्म परिष्कार ही एक मात्र उपाय माना गया है। इसी के निमित्त उपासना, साधना और आराधना का त्रिविध प्रयास करना पड़ता है। योग और तप का बहुमुखी आधार इसी निमित्त जाना और किया जाता है। मैले दर्पण में अपनी छवि दिखाई नहीं पड़ती, मैले पानी में सूर्य का प्रतिबिम्ब नहीं चमकता—इसी प्रकार दुश्चिन्तन और कुकर्मों से, सड़े-गले जीवन से अन्तःकरण ऐसा दूषित हो जाता है कि उसमें ईश्वर सत्ता विद्यमान होते हुए भी आभास मिल नहीं पाता। इस अवरोध को दूर करने के लिए आत्मशोधन के ही प्रयास करने पड़ते हैं। अपूर्णता से उबरकर पूर्णता प्राप्त करने का यही एक मात्र मार्ग है। अध्यात्म तत्वदर्शन में इसी का प्रतिपाद है। साधनापरक समस्त कर्मकाण्ड इसी की पूर्ति के लिए विनिर्मित किये गये हैं। जो जिस अनुपात से आत्मशोधन करता जाता है, उसके भवबन्धन उसी मात्रा में कटते हैं। ब्रह्म सान्निध्य का रसास्वादन करने का अवसर उसे उसी अनुपात में मिलता चला जाता है। जीव का ब्रह्म सान्निध्य की लालसा को मृग की नाभि में कस्तूरी भरी होने पर भी उसे अन्यत्र ढूंढ़ते-फिरने की तरह प्रयत्न करना बताया गया है।
तात्विक प्रतिपादन और अनुभवों का निर्धारण जीव और ब्रह्म की एकता का समर्थन है, इसे जड़ चेतन का समन्वय भी कह सकते हैं। इतना होते हुए भी यह देखा जाता है कि दोनों सत्ताओं में पृथकता ही नहीं प्रतिकूलता भी है। ईश्वर के गुण जीव में नहीं पाये जाते और जीव स्तर की गतिविधियां न अपनाने के लिए ईश्वर की विवशता भी समझी जा सकती है। जो व्यापक है वह एक केन्द्र पर सिकुड़कर केन्द्रित कैसे हो सके, यदि होने का प्रयास भी करे तो सृष्टि में वह अन्यत्र कैसे उपस्थित हो सकेगा? शून्य को पूरा कौन करेगा?
पुरातन प्रतिपादनों और निर्धारणों को समझ सकने के उपरान्त वस्तुस्थिति सहज समझी जा सकती है, फिर भी इन दिनों दोनों के पृथक होने की कठिनाई का जो वर्णन किया जाता है, पृथकता के कारण होने वाली हानियों का जो वर्णन किया जाता है, एक अध्यात्म और विज्ञान के समन्वय पर जो जोर दिया जाता है, उन प्रतिपादन कर्त्ताओं के मन्तव्य को समझना चाहिए। शब्दों के भ्रम-जंजाल में कई बार वह बात स्पष्ट नहीं हो पाती कि जो कुछ कहा जा रहा था, चाहा जा रहा था उसके पीछे वास्तविक उद्देश्य क्या था और किस कठिनाई का क्या समाधान खोजा जा रहा था। इन दिनों चल रही चर्चा के सम्बन्ध में ऐसा ही शब्द जंजाल बाधक हो रहा है, उस उलझन की वास्तविकता को गहराई में उतरकर समझना होगा ताकि जो तथ्य विचारशीलों को उद्विग्न करते हैं, उन्हें समझा और उनका समाधान खोजा जा सके।
विज्ञान पक्ष की मान्यता है कि जो प्रत्यक्ष है वह उतना ही सत्य है। इसमें जो तुरन्त लाभ दीख सके, अपनी सत्ता का परिचय दे सके वही मान्य है। चूंकि ईश्वर, धर्म और तत्वदर्शन के प्रतिपादन प्रत्यक्ष नहीं है, इसलिए उन्हें मान्यता क्यों दी जाय?
अध्यात्म का कथन है—शास्त्रों-आप्तवचनों में ही पूर्ण सत्य समाहित है, उन्हें झुठलाना ऋषियों और शास्त्रों का अपमान है। विज्ञान की खोजें नित नई सामने आती हैं, पिछले कथनों को झुठलाती चलती हैं—ऐसे अपरिपक्व प्रतिपादनों की बात क्यों सुनी जाय?
विरोध के मुख्य तथ्य यही हैं, विरोध चल पड़ने पर कटु प्रहार एवं दोषारोपण के अनेकों प्रसंग आते हैं और परस्पर गाली-गलौज की भाषा का प्रयोग होने लगता है। मन्तव्यों को मिथ्या ही नहीं, निहित स्वार्थों से प्रेरित तक कहा जाने लगता है। आस्तिक-नास्तिक स्तर का यही मल्लयुद्ध खून-खराबे तक पहुंचता रहा है। विज्ञान के सम्बन्ध में अध्यात्म पक्ष द्वारा कहा जाता है कि उसके द्वारा प्रकृति का असाधारण दोहन किये जाने पर भविष्य के लिए कुछ न बचेगा। प्रदूषण फैलने की विषाक्तता प्राणघातक होगी, लोग काहिल बनेंगे—इसके करण समस्त सत्ता सम्पदा सिमट कर कुछ ही हाथों में सीमित हो जायेगी। नीति-मर्यादाओं का कोई मूल्य न रहेगा आदि-आदि।
इसी प्रकार विज्ञान ने अध्यात्म को अन्ध-विज्ञान बताया है। धर्म को अफीम की गोली कहा है, आधार रहित कल्पनाओं की उड़ानें बताया है। ईश्वर यदि नियामक है तो वही कर्म अपनी विशेषताओं के कारण प्रकृति क्यों नहीं कर सकती। अध्यात्म परावलम्बन है, वह पराक्रम साहस को काटता और व्यक्ति को दीन-दुर्बल बनाता है। दोनों पक्ष अपने-अपने समर्थन में बहुत कुछ कहते रहे हैं, दूसरों पर लांछन लगाने में कोई कसर नहीं रहने देते रहे हैं। किसी ने भी यह नहीं सोचा कि दूसरे पक्ष के प्रतिपादनों और आक्षेपों में क्या कुछ सच्चाई भी है। भ्रान्तियों के निराकरण और उपयोगी प्रतिपादनों को ग्रहण करने की यदि मनोभूमि रही होती तो जो खाई लगातार बढ़ती चली आई है वह घटती। एक, दूसरे के परिश्रम को सराहता और जो ग्रहण योग्य होता— अपनाता। जहां सहमति नहीं बन पड़ रही हो उसे सुलझाने के लिए कभी उचित अवसर आने की प्रतीक्षा करता तो ऐसी स्थिति न बन पड़ती जैसी आज है।
वस्तुतः दोनों ही पक्ष असाधारण शक्ति सम्पन्न हैं, उनके प्रतिदानों में इतनी सच्चाई एवं उपयोगिता भी है जिसे जन साधारण को बताते हुए औचित्य अपनाने की पृष्ठभूमि तैयार की जा सके। विग्रह से शत्रुता उपजती है, आग्रह प्रतिष्ठा का प्रश्न बनता है और अहंकार इस प्रकार आड़े आता है कि तथ्यों के निरीक्षण-परीक्षण की गुंजाइश तक नहीं रहती वरन् विरोध में मजा आता है, दूसरे पक्ष को नीचा दिखाने की प्रवृत्ति बढ़ती है।
इस तनावपूर्ण स्थिति में एक तीसरा पक्ष उभरा है जिसे विवाद से उत्पन्न दिग्भ्रम ही कहा जा सकता है। सेनायें परस्पर विरोधी युद्ध की साज-सज्जा इसी मनःस्थिति में बनाती हैं। सभी जानते हैं कि उपयोगी पक्षों का विग्रह सर्वसाधारण के लिए संसार के लिए हानिकारक ही सिद्ध होता है। देवासुर संग्राम लम्बे समय तक चलता रहा, पर उससे किसको क्या मिला? दोनों ने ही हानि उठाई, इस स्थिति में किसी को भी शान्ति में रहने एवं प्रगति करने का अवसर न मिला।
अन्ततः दूरदर्शी बुद्धिमत्ता उभरी, सहयोग की बात सोची गयी। समुद्र मंथन की योजना बनी। लड़-झगड़ में खर्च होने वाली शक्ति सृजन प्रयोजन में लगी, इस माहौल में निराश बैठे हुए कच्छप भगवान, वासुकि महासर्प, मन्दिराचल पर्वत उस प्रयास में सहयोग के लिए कटिबद्ध हो गये। मन्थन में चौदह रत्न निकले, उनके माध्यम से उन दोनों पक्षों का ही नहीं सर्वसाधारण को भी अनेक प्रकार से लाभान्वित होने का अवसर मिला।
उसी घटनाक्रम का स्मरण करते हुए विचारशील वर्ग द्वारा सोचा जा रहा है कि संसार की इन दोनों सर्वोपरि कही जा सकने योग्य शक्तियों को परस्पर सामंजस्य और सहयोग का तालमेल बिठाने की स्थिति में लाया जाय, अध्यात्म और विज्ञान का समन्वय किया जाय—यह आवाज आज हर दिशा में उठ रही है। विश्व के मूर्धन्य विचारकों का यही अभिमत है कि इनके मध्य जो खाई खुद गयी है, उसे पाटने के लिए प्रबल प्रयत्न किया जाय।
वास्तविकता यह है कि दोनों के बीच सामंजस्य की परम्परा अनादिकाल से चली आ रही है, वे एक दूसरे के विरोधी नहीं पूरक हैं। एक से सर्वथा पृथक रहकर दूसरा अपना अस्तित्व तक बनाये नहीं रह सकता। पदार्थ के बिना चेतना पंगु है और चेतना की प्रखरता के बिना पदार्थ अन्धे के समतुल्य। अन्धे-पंगे परस्पर मिल कर नदी पार करने की योजना बना सकते हैं और पार जाने में सफल हो सकते हैं, यही स्थिति उपरोक्त विवाद के सम्बन्ध में भी है। पृथक रहकर तो वे अभीष्ट लाभ उठाने से वंचित ही रहेंगे और असहयोग एवं विग्रहजन्य घाटा ही उठाते रहेंगे। अब समय आ गया है कि विरोध को मैत्री में परिणत किया जाय।
अध्यात्म और विज्ञान दोनों का ही एक लक्ष्य है—सत्य की खोज। यह तभी बन पड़ता है जब मस्तिष्क खुला रखा जाय, पिछली मान्यताओं में यदि नये तथ्य सामने आने पर परिवर्तन करने की आवश्यकता पड़े तो उसके लिए तैयार रहा जाय। शोध प्रक्रिया इसी प्रकार सम्पन्न होती है।
अब तक दोनों पक्षों ने बहुत कुछ जाना है, पर जो जानने के लिए शेष है, वह उससे भी कहीं अधिक है जो अब तक हस्तगत हो चुका। विज्ञान अपेक्षाकृत अधिक अच्छी तरह समझता और अपनाता है, तभी तो पुराने शोध निष्कर्षों से सन्तुष्ट न रहकर आगे की बात जानने, अधिक गहराई में उतरने और यदि पिछले में सुधार-संशोधन करना पड़े तो उसके लिए तैयार रहा है। उपलब्धियों को पूर्ण मानने की उसकी प्रवृत्ति है ही नहीं, इसी का परिणाम है कि नित नये आविष्कार प्रकट होते चलते हैं और उनके द्वारा अधिक क्षमतायें प्राप्त करते चलने के अवसर मिलते रहते हैं। यदि पूर्णता का आग्रह किया गया होता तो उसका परिणाम निश्चित रूप से यही होता कि अग्रगमन की संभावनायें समाप्त हो जातीं एवं अधिक नया जानने और अधिक महत्वपूर्ण प्राप्त करने का चलता हुआ उपक्रम अवरुद्ध होकर रह जाता।
इस सम्बन्ध में अध्यात्म पक्ष ने भूल की है। शास्त्र उल्लेख और आप्त-वचनों को ही पूर्ण न मानकर नये अनुसंधानों के लिए द्वार खुला रखा गया होता तो आज उसकी प्रखरता, प्रामाणिकता और उपयोगिता इतनी अधिक रही होती कि किसी को उंगली उठाने की चुनौती देने का अवसर ही न मिलता।
उदाहरण के लिए अगणित सम्प्रदायों की परस्पर विरोधी असंख्य मान्यताओं को लिया जा सकता है, उन्हें सोचना चाहिए था कि सच्चाई तो एक ही हो सकती है, उसकी समग्रता को समझते हुए असहमतियों को शिथिल करते हुए किसी एक निश्चय पर क्यों न पहुंचा जाय ताकि न मतभेदों-विरोधों के लिए गुंजाइश रहे और न जन समुदायों को इस आधार पर एक दूसरे को दुराग्रही-विग्रही ठहराना पड़े। यहां हाथी वाली कहानी याद आती है, जिसमें अन्धों के एक समूह ने उसका स्वरूप निर्धारित करने का प्रयत्न किया था, पर हाथ से जिन अंगों को वे छू सके उसी आकार का हाथी बताने की जिद करने लगे। फलतः वे किसी निष्कर्ष पर भी न पहुंच सके और परस्पर लड़ते भी रहे। यह स्थिति धार्मिक मान्यताओं के संबंध में भी है, उनके मूर्धन्य जन सभी पक्षों के स्वरूप को मिलाकर उन्हें एकता के केन्द्र पर केन्द्रित कर सकते हैं और धर्मों में जो सर्वोपयोगी है उसे एकत्रित करके सर्वसाधारण तक एक सुनिश्चित मान्यता के रूप में पहुंचा सकते हैं। यदि इतना बन पड़े तो सम्प्रदायों की भिन्नता-एकता में विकसित होकर लोककल्याण में भली प्रकार समर्थ हो सकती है। विग्रहों में, भिन्नताओं में जो शक्ति खर्च होती है उसका उपयोग सदुद्देश्य के लिए बन पड़ना सम्भव हो सकता है। विज्ञान ने वही किया है, उसके सिद्धांत सार्वभौम हैं। सभी देश उनसे समान रूप से लाभ उठाते हैं। बिजली, रेडियो, टेलीविजन, टेलीफोन, मशीनें सभी का स्वरूप संसार भर में प्रायः एक जैसा है। सच्चाई एक होनी चाहिए, सूर्य एक है, चन्द्रमा एक है, आकाश एक है, फिर विज्ञान के मूलभूत सिद्धांतों और प्रयोगों में भी एकता क्यों न होगी। इस प्रयोग ने सर्वसाधारण के मन में, विज्ञान सिद्धांत की सच्चाई के सम्बन्ध में आस्था उत्पन्न की है और उसका समुचित लाभ भी उठाया है। धर्म को भी प्रामाणिकता के लिए एकता का, एकात्मता का सिद्धांत अपनाना होगा तभी विग्रह और भ्रम फैलाने के लांछन से मुक्ति मिल सकेगी। सभी एक न हो सकें तो कम से कम सहिष्णुता, समन्वय, समभाव तो अपनाना ही चाहिए, भले ही निजी अभिरुचि के अनुरूप कोई किसी प्रकार का प्रयोग-उपयोग अपनाता रहे। विज्ञान सार्वभौम, सर्वजनीन और सर्वोपयोगी है। अध्यात्म को भी इसी स्तर का बनकर अपनी महत्ता प्रतिपादित करनी चाहिए और वह स्थिति नहीं बनने देनी चाहिए, जिसमें उंगली उठाने और निन्दा होने की स्थिति बने। विज्ञान को, प्रत्यक्षवाद को झुठलाया नहीं जा सकता, उसकी प्रकृति और उपलब्धि का लाभ उठाया जाना चाहिए। भूतकाल के आरम्भिक चरणों में भी उसने इस विश्व वसुधा की, विशेषतया मानव जाति की महती सेवा-साधना की है। अब जब वह प्रौढ़ता के चरण में प्रवेश कर रहा है तो उससे और भी बड़ी आशायें की जा सकती हैं। उसकी उपयोगिता से इनकार न करते हुए देखना इतना भर है कि जो उसने कमाया है उसका दुरुपयोग न होने पावे, वरन् ऐसा सदुपयोग बने, जिससे वह अध्यात्म की परोक्ष सत्ता का पूरक बन सके।
ईश्वर सान्निध्य की चर्चा का जहां प्रसंग आता है उसे अन्तराल में, हृदय देश में, अन्तः गुहा में अवस्थित ही बताया जाता है। चेतना का अणु पक्ष आत्म सत्ता में है और विभु पक्ष ब्रह्माण्डीय चेतना में। दोनों एक ही तत्व के बने हैं। चिनगारी और आग, बूंद और जलाशय, घटाकाश और महाकाश में मात्र आकार भिन्नता है। सत्ता एक ही है, ब्रह्म सान्निध्य का लक्ष्य प्राप्त करने के लिए आत्म परिष्कार ही एक मात्र उपाय माना गया है। इसी के निमित्त उपासना, साधना और आराधना का त्रिविध प्रयास करना पड़ता है। योग और तप का बहुमुखी आधार इसी निमित्त जाना और किया जाता है। मैले दर्पण में अपनी छवि दिखाई नहीं पड़ती, मैले पानी में सूर्य का प्रतिबिम्ब नहीं चमकता—इसी प्रकार दुश्चिन्तन और कुकर्मों से, सड़े-गले जीवन से अन्तःकरण ऐसा दूषित हो जाता है कि उसमें ईश्वर सत्ता विद्यमान होते हुए भी आभास मिल नहीं पाता। इस अवरोध को दूर करने के लिए आत्मशोधन के ही प्रयास करने पड़ते हैं। अपूर्णता से उबरकर पूर्णता प्राप्त करने का यही एक मात्र मार्ग है। अध्यात्म तत्वदर्शन में इसी का प्रतिपाद है। साधनापरक समस्त कर्मकाण्ड इसी की पूर्ति के लिए विनिर्मित किये गये हैं। जो जिस अनुपात से आत्मशोधन करता जाता है, उसके भवबन्धन उसी मात्रा में कटते हैं। ब्रह्म सान्निध्य का रसास्वादन करने का अवसर उसे उसी अनुपात में मिलता चला जाता है। जीव का ब्रह्म सान्निध्य की लालसा को मृग की नाभि में कस्तूरी भरी होने पर भी उसे अन्यत्र ढूंढ़ते-फिरने की तरह प्रयत्न करना बताया गया है।
तात्विक प्रतिपादन और अनुभवों का निर्धारण जीव और ब्रह्म की एकता का समर्थन है, इसे जड़ चेतन का समन्वय भी कह सकते हैं। इतना होते हुए भी यह देखा जाता है कि दोनों सत्ताओं में पृथकता ही नहीं प्रतिकूलता भी है। ईश्वर के गुण जीव में नहीं पाये जाते और जीव स्तर की गतिविधियां न अपनाने के लिए ईश्वर की विवशता भी समझी जा सकती है। जो व्यापक है वह एक केन्द्र पर सिकुड़कर केन्द्रित कैसे हो सके, यदि होने का प्रयास भी करे तो सृष्टि में वह अन्यत्र कैसे उपस्थित हो सकेगा? शून्य को पूरा कौन करेगा?
पुरातन प्रतिपादनों और निर्धारणों को समझ सकने के उपरान्त वस्तुस्थिति सहज समझी जा सकती है, फिर भी इन दिनों दोनों के पृथक होने की कठिनाई का जो वर्णन किया जाता है, पृथकता के कारण होने वाली हानियों का जो वर्णन किया जाता है, एक अध्यात्म और विज्ञान के समन्वय पर जो जोर दिया जाता है, उन प्रतिपादन कर्त्ताओं के मन्तव्य को समझना चाहिए। शब्दों के भ्रम-जंजाल में कई बार वह बात स्पष्ट नहीं हो पाती कि जो कुछ कहा जा रहा था, चाहा जा रहा था उसके पीछे वास्तविक उद्देश्य क्या था और किस कठिनाई का क्या समाधान खोजा जा रहा था। इन दिनों चल रही चर्चा के सम्बन्ध में ऐसा ही शब्द जंजाल बाधक हो रहा है, उस उलझन की वास्तविकता को गहराई में उतरकर समझना होगा ताकि जो तथ्य विचारशीलों को उद्विग्न करते हैं, उन्हें समझा और उनका समाधान खोजा जा सके।
विज्ञान पक्ष की मान्यता है कि जो प्रत्यक्ष है वह उतना ही सत्य है। इसमें जो तुरन्त लाभ दीख सके, अपनी सत्ता का परिचय दे सके वही मान्य है। चूंकि ईश्वर, धर्म और तत्वदर्शन के प्रतिपादन प्रत्यक्ष नहीं है, इसलिए उन्हें मान्यता क्यों दी जाय?
अध्यात्म का कथन है—शास्त्रों-आप्तवचनों में ही पूर्ण सत्य समाहित है, उन्हें झुठलाना ऋषियों और शास्त्रों का अपमान है। विज्ञान की खोजें नित नई सामने आती हैं, पिछले कथनों को झुठलाती चलती हैं—ऐसे अपरिपक्व प्रतिपादनों की बात क्यों सुनी जाय?
विरोध के मुख्य तथ्य यही हैं, विरोध चल पड़ने पर कटु प्रहार एवं दोषारोपण के अनेकों प्रसंग आते हैं और परस्पर गाली-गलौज की भाषा का प्रयोग होने लगता है। मन्तव्यों को मिथ्या ही नहीं, निहित स्वार्थों से प्रेरित तक कहा जाने लगता है। आस्तिक-नास्तिक स्तर का यही मल्लयुद्ध खून-खराबे तक पहुंचता रहा है। विज्ञान के सम्बन्ध में अध्यात्म पक्ष द्वारा कहा जाता है कि उसके द्वारा प्रकृति का असाधारण दोहन किये जाने पर भविष्य के लिए कुछ न बचेगा। प्रदूषण फैलने की विषाक्तता प्राणघातक होगी, लोग काहिल बनेंगे—इसके करण समस्त सत्ता सम्पदा सिमट कर कुछ ही हाथों में सीमित हो जायेगी। नीति-मर्यादाओं का कोई मूल्य न रहेगा आदि-आदि।
इसी प्रकार विज्ञान ने अध्यात्म को अन्ध-विज्ञान बताया है। धर्म को अफीम की गोली कहा है, आधार रहित कल्पनाओं की उड़ानें बताया है। ईश्वर यदि नियामक है तो वही कर्म अपनी विशेषताओं के कारण प्रकृति क्यों नहीं कर सकती। अध्यात्म परावलम्बन है, वह पराक्रम साहस को काटता और व्यक्ति को दीन-दुर्बल बनाता है। दोनों पक्ष अपने-अपने समर्थन में बहुत कुछ कहते रहे हैं, दूसरों पर लांछन लगाने में कोई कसर नहीं रहने देते रहे हैं। किसी ने भी यह नहीं सोचा कि दूसरे पक्ष के प्रतिपादनों और आक्षेपों में क्या कुछ सच्चाई भी है। भ्रान्तियों के निराकरण और उपयोगी प्रतिपादनों को ग्रहण करने की यदि मनोभूमि रही होती तो जो खाई लगातार बढ़ती चली आई है वह घटती। एक, दूसरे के परिश्रम को सराहता और जो ग्रहण योग्य होता— अपनाता। जहां सहमति नहीं बन पड़ रही हो उसे सुलझाने के लिए कभी उचित अवसर आने की प्रतीक्षा करता तो ऐसी स्थिति न बन पड़ती जैसी आज है।
वस्तुतः दोनों ही पक्ष असाधारण शक्ति सम्पन्न हैं, उनके प्रतिदानों में इतनी सच्चाई एवं उपयोगिता भी है जिसे जन साधारण को बताते हुए औचित्य अपनाने की पृष्ठभूमि तैयार की जा सके। विग्रह से शत्रुता उपजती है, आग्रह प्रतिष्ठा का प्रश्न बनता है और अहंकार इस प्रकार आड़े आता है कि तथ्यों के निरीक्षण-परीक्षण की गुंजाइश तक नहीं रहती वरन् विरोध में मजा आता है, दूसरे पक्ष को नीचा दिखाने की प्रवृत्ति बढ़ती है।
इस तनावपूर्ण स्थिति में एक तीसरा पक्ष उभरा है जिसे विवाद से उत्पन्न दिग्भ्रम ही कहा जा सकता है। सेनायें परस्पर विरोधी युद्ध की साज-सज्जा इसी मनःस्थिति में बनाती हैं। सभी जानते हैं कि उपयोगी पक्षों का विग्रह सर्वसाधारण के लिए संसार के लिए हानिकारक ही सिद्ध होता है। देवासुर संग्राम लम्बे समय तक चलता रहा, पर उससे किसको क्या मिला? दोनों ने ही हानि उठाई, इस स्थिति में किसी को भी शान्ति में रहने एवं प्रगति करने का अवसर न मिला।
अन्ततः दूरदर्शी बुद्धिमत्ता उभरी, सहयोग की बात सोची गयी। समुद्र मंथन की योजना बनी। लड़-झगड़ में खर्च होने वाली शक्ति सृजन प्रयोजन में लगी, इस माहौल में निराश बैठे हुए कच्छप भगवान, वासुकि महासर्प, मन्दिराचल पर्वत उस प्रयास में सहयोग के लिए कटिबद्ध हो गये। मन्थन में चौदह रत्न निकले, उनके माध्यम से उन दोनों पक्षों का ही नहीं सर्वसाधारण को भी अनेक प्रकार से लाभान्वित होने का अवसर मिला।
उसी घटनाक्रम का स्मरण करते हुए विचारशील वर्ग द्वारा सोचा जा रहा है कि संसार की इन दोनों सर्वोपरि कही जा सकने योग्य शक्तियों को परस्पर सामंजस्य और सहयोग का तालमेल बिठाने की स्थिति में लाया जाय, अध्यात्म और विज्ञान का समन्वय किया जाय—यह आवाज आज हर दिशा में उठ रही है। विश्व के मूर्धन्य विचारकों का यही अभिमत है कि इनके मध्य जो खाई खुद गयी है, उसे पाटने के लिए प्रबल प्रयत्न किया जाय।
वास्तविकता यह है कि दोनों के बीच सामंजस्य की परम्परा अनादिकाल से चली आ रही है, वे एक दूसरे के विरोधी नहीं पूरक हैं। एक से सर्वथा पृथक रहकर दूसरा अपना अस्तित्व तक बनाये नहीं रह सकता। पदार्थ के बिना चेतना पंगु है और चेतना की प्रखरता के बिना पदार्थ अन्धे के समतुल्य। अन्धे-पंगे परस्पर मिल कर नदी पार करने की योजना बना सकते हैं और पार जाने में सफल हो सकते हैं, यही स्थिति उपरोक्त विवाद के सम्बन्ध में भी है। पृथक रहकर तो वे अभीष्ट लाभ उठाने से वंचित ही रहेंगे और असहयोग एवं विग्रहजन्य घाटा ही उठाते रहेंगे। अब समय आ गया है कि विरोध को मैत्री में परिणत किया जाय।
अध्यात्म और विज्ञान दोनों का ही एक लक्ष्य है—सत्य की खोज। यह तभी बन पड़ता है जब मस्तिष्क खुला रखा जाय, पिछली मान्यताओं में यदि नये तथ्य सामने आने पर परिवर्तन करने की आवश्यकता पड़े तो उसके लिए तैयार रहा जाय। शोध प्रक्रिया इसी प्रकार सम्पन्न होती है।
अब तक दोनों पक्षों ने बहुत कुछ जाना है, पर जो जानने के लिए शेष है, वह उससे भी कहीं अधिक है जो अब तक हस्तगत हो चुका। विज्ञान अपेक्षाकृत अधिक अच्छी तरह समझता और अपनाता है, तभी तो पुराने शोध निष्कर्षों से सन्तुष्ट न रहकर आगे की बात जानने, अधिक गहराई में उतरने और यदि पिछले में सुधार-संशोधन करना पड़े तो उसके लिए तैयार रहा है। उपलब्धियों को पूर्ण मानने की उसकी प्रवृत्ति है ही नहीं, इसी का परिणाम है कि नित नये आविष्कार प्रकट होते चलते हैं और उनके द्वारा अधिक क्षमतायें प्राप्त करते चलने के अवसर मिलते रहते हैं। यदि पूर्णता का आग्रह किया गया होता तो उसका परिणाम निश्चित रूप से यही होता कि अग्रगमन की संभावनायें समाप्त हो जातीं एवं अधिक नया जानने और अधिक महत्वपूर्ण प्राप्त करने का चलता हुआ उपक्रम अवरुद्ध होकर रह जाता।
इस सम्बन्ध में अध्यात्म पक्ष ने भूल की है। शास्त्र उल्लेख और आप्त-वचनों को ही पूर्ण न मानकर नये अनुसंधानों के लिए द्वार खुला रखा गया होता तो आज उसकी प्रखरता, प्रामाणिकता और उपयोगिता इतनी अधिक रही होती कि किसी को उंगली उठाने की चुनौती देने का अवसर ही न मिलता।
उदाहरण के लिए अगणित सम्प्रदायों की परस्पर विरोधी असंख्य मान्यताओं को लिया जा सकता है, उन्हें सोचना चाहिए था कि सच्चाई तो एक ही हो सकती है, उसकी समग्रता को समझते हुए असहमतियों को शिथिल करते हुए किसी एक निश्चय पर क्यों न पहुंचा जाय ताकि न मतभेदों-विरोधों के लिए गुंजाइश रहे और न जन समुदायों को इस आधार पर एक दूसरे को दुराग्रही-विग्रही ठहराना पड़े। यहां हाथी वाली कहानी याद आती है, जिसमें अन्धों के एक समूह ने उसका स्वरूप निर्धारित करने का प्रयत्न किया था, पर हाथ से जिन अंगों को वे छू सके उसी आकार का हाथी बताने की जिद करने लगे। फलतः वे किसी निष्कर्ष पर भी न पहुंच सके और परस्पर लड़ते भी रहे। यह स्थिति धार्मिक मान्यताओं के संबंध में भी है, उनके मूर्धन्य जन सभी पक्षों के स्वरूप को मिलाकर उन्हें एकता के केन्द्र पर केन्द्रित कर सकते हैं और धर्मों में जो सर्वोपयोगी है उसे एकत्रित करके सर्वसाधारण तक एक सुनिश्चित मान्यता के रूप में पहुंचा सकते हैं। यदि इतना बन पड़े तो सम्प्रदायों की भिन्नता-एकता में विकसित होकर लोककल्याण में भली प्रकार समर्थ हो सकती है। विग्रहों में, भिन्नताओं में जो शक्ति खर्च होती है उसका उपयोग सदुद्देश्य के लिए बन पड़ना सम्भव हो सकता है। विज्ञान ने वही किया है, उसके सिद्धांत सार्वभौम हैं। सभी देश उनसे समान रूप से लाभ उठाते हैं। बिजली, रेडियो, टेलीविजन, टेलीफोन, मशीनें सभी का स्वरूप संसार भर में प्रायः एक जैसा है। सच्चाई एक होनी चाहिए, सूर्य एक है, चन्द्रमा एक है, आकाश एक है, फिर विज्ञान के मूलभूत सिद्धांतों और प्रयोगों में भी एकता क्यों न होगी। इस प्रयोग ने सर्वसाधारण के मन में, विज्ञान सिद्धांत की सच्चाई के सम्बन्ध में आस्था उत्पन्न की है और उसका समुचित लाभ भी उठाया है। धर्म को भी प्रामाणिकता के लिए एकता का, एकात्मता का सिद्धांत अपनाना होगा तभी विग्रह और भ्रम फैलाने के लांछन से मुक्ति मिल सकेगी। सभी एक न हो सकें तो कम से कम सहिष्णुता, समन्वय, समभाव तो अपनाना ही चाहिए, भले ही निजी अभिरुचि के अनुरूप कोई किसी प्रकार का प्रयोग-उपयोग अपनाता रहे। विज्ञान सार्वभौम, सर्वजनीन और सर्वोपयोगी है। अध्यात्म को भी इसी स्तर का बनकर अपनी महत्ता प्रतिपादित करनी चाहिए और वह स्थिति नहीं बनने देनी चाहिए, जिसमें उंगली उठाने और निन्दा होने की स्थिति बने। विज्ञान को, प्रत्यक्षवाद को झुठलाया नहीं जा सकता, उसकी प्रकृति और उपलब्धि का लाभ उठाया जाना चाहिए। भूतकाल के आरम्भिक चरणों में भी उसने इस विश्व वसुधा की, विशेषतया मानव जाति की महती सेवा-साधना की है। अब जब वह प्रौढ़ता के चरण में प्रवेश कर रहा है तो उससे और भी बड़ी आशायें की जा सकती हैं। उसकी उपयोगिता से इनकार न करते हुए देखना इतना भर है कि जो उसने कमाया है उसका दुरुपयोग न होने पावे, वरन् ऐसा सदुपयोग बने, जिससे वह अध्यात्म की परोक्ष सत्ता का पूरक बन सके।