
दोनों प्रचण्ड शक्तियों का समन्वय
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शक्ति और समर्थता का अपना महत्व है, पर उससे लाभ उठाने की एक ही शर्त है कि उस पर दूरदर्शी विवेकशीलता का अंकुश रहे। इसके बिना शक्तिमय उच्छृंखलता अपना लेता है और ऐसा कुछ करने के लिए उतारू होता है जिसे प्रकारान्तर से अनर्थ ही कहा जा सके। दुर्बल खरगोश तो एक सीमा तक ही खेत को उजाड़ सकता है, पर पागल हाथी को उसे खाने ओर खुरतारने की सनक में उस हरितमा को तहस-नहस किये बिना चैन नहीं मिलता। इसीलिए जंगली हाथियों वाले क्षेत्र में कृषि करने वालों को सुरक्षा के लिए विशेष प्रयत्न और प्रबन्ध करना पड़ता है।
पशु पालक बलिष्ठ जानवरों से उपयोगी काम कराते हैं, पर इसलिए उन पर नियन्त्रण की कड़ी व्यवस्था करना आवश्यक हो जाता है। घोड़े के मुंह में लगाम लगानी पड़ती है। ऊंट की नाक में नकेल डाली जाती है, बैल के नथुने छेदने पड़ते हैं। हाथी से सही काम कराने के लिए महावत को न केवल प्रशिक्षित होना पड़ता है, वरन् पैनी नोंक वाले अंकुश का भी लगातार प्रयोग करना पड़ता है। यदि इन जानवरों को अपनी मर्जी पर चलने के लिए खुला छोड़ दिया जाय तो न केवल पालने वालों के लिए, वरन् उनकी चपेट में आने वाले हर किसी का बंटाढार करेंगे। रेल और मोटर को घुमाने, रोकने की प्रणाली सही रखनी पड़ती है अन्यथा वे किसी से भी टकरा कर अपना और सामने वाले का विनाश कर सकती है। सरकसों में खूंखार जानवरों के खेल दिखाना तभी सम्भव होता है जब उन्हें चाबुकों की मार से डराकर संचालक को इच्छानुसार काम करने के लिए पूरी तरह सहमत कर लिया जाता है। यदि वे स्वच्छन्द रहे तो पालने वालों से लेकर दर्शकों तक की दुर्गति बना सकते हैं।
विज्ञान को शक्तिपुंज कहा जा सकता है, पर वह जड़ पदार्थों से विनिर्मित होने के कारण विवेक, शून्य स्तर का है। स्वच्छन्दता मिलने पर वह ऐसा भी कर बैठ सकता है, जिससे भारी हानि उठानी पड़े और पछताते हुए सिर धुनना पड़े। चूल्हे की चिनगारी को उचटने का अवसर मिल जाय तो वह अपने घर का छप्पर ही नहीं जलायेगी, वरन् पास-पड़ोस को चपेट में लेते हुए पूरे गांव को भस्मसात करके रहेगी। इसलिए आग को सतर्कतापूर्वक ढक कर रखा जाता है।
समर्थता अच्छी बात है, पर उसके साथ सदुपयोग करने और सुरक्षा में रखने की शर्त अनिवार्य रूप से जुड़ी हुई है अन्यथा खतरा ही खतरा मंडराता रहेगा। धन-दौलत को जहां-तहां पड़ी रहने देने पर चोर-डाकुओं का आक्रमण हुए बिना नहीं रह सकता। अस्त्र-शस्त्रों को लूट ले जाने की घात में लुटेरे रहते हैं। विषैले रसायनों की बिक्री पर लाइसेन्स रहता है। मादक पदार्थों के सेवन की भी खुली छूट नहीं रहती। कारण कि वे सब असाधारण शक्तिशाली होते हैं और बारूद भड़क उठने पर उत्पन्न होने वाले विनाश की तरह संकट खड़े करते हैं।
भौतिक विज्ञान और उनके सशक्त उत्पादनों का लाभ तभी है जब उनके ऊपर दूरदर्शी प्रणाली का समुचित अंकुश नियन्त्रण हो अन्यथा असुरक्षित छोड़ देने पर लाभ के स्थान पर हानि सहने का संकट ही सहन करना होगा। भूल यहीं हुई है और हो रही है। समर्थ होने के अहंकार ने अपने आप को सर्वत्र स्वतन्त्र मान लिया है, उसके ऊपर नियन्त्रण की भी आवश्यकता है, यह किसी ने अनुभव नहीं किया। फलस्वरूप स्वच्छन्दता इस कदर बढ़ गयी कि विज्ञान ने पदार्थ सम्पदा की उधेड़बुन करते रहने तक सीमित न रहकर तत्वदर्शन को भी अपने ढांचे में ढालना आरम्भ कर दिया। अब भौतिकवाद एक दर्शन भी बन गया है, उसका प्रतिपादन है कि जो इन्द्रियों या यन्त्रों की पकड़ में आ सकता है उतना ही सत्य और तथ्य है। ईश्वर द्वारा विनिर्मित क्रिया की प्रतिक्रिया को भी नकारा गया है और कहा गया है कि उसे भावनात्मक मामले में दखल नहीं देना चाहिए। विष खाने से मृत्यु हो जाती है और टॉनिक पीने से फुर्ती आती है, इतना ही प्रतिपादन पर्याप्त है। चेतना पक्ष में क्या उचित और क्या अनुचित है? इसे किन्हीं ने जानने और सदुपयोग करने का महत्व ही नहीं समझा।
दर्शन के क्षेत्र में विज्ञान का हस्तक्षेप बढ़ने का प्रतिफल लगभग नास्तिकता जैसा हुआ। प्राणी को जब पदार्थ मात्र मान लिया गया तो उस पर भी जड़ नियम लागू करने की बात सोचना स्वाभाविक है। ऐसी दशा में चेतना की स्वतन्त्र सत्ता नहीं रहती तो उस पर उन कर्तव्यों और दायित्वों का आरोपण कैसे किया जाय जो भाव संवेदना, उदारता, परमार्थ-परायणता, सेवा-सद्भावना, शालीनता, संयम जैसी दिव्य विभूतियों से सम्बन्धित है। यदि इन्हें अनावश्यक ठहरा दिया जाय तो मानवी मर्यादाओं का पालन और वर्जनाओं का अनुशासन मानने की कोई आवश्यकता ही नहीं रह जाती। ऐसी दशा में समाजनिष्ठ और परस्पर आदान-प्रदान पर निर्भर मानवी सत्ता की चारित्रिक उत्कृष्टता को मान्यता मिलना कठिन हो जायेगा। भौतिक दर्शन या दमन मनुष्य जैसे अति चतुर प्राणी को सज्जनता के अनुबन्ध में बांधे रह सकेगा, यह सम्भव नहीं। वह पग-पग पर धूर्तता का प्रयोग करते हुए ऐसा कुछ कर सकता है जिससे नीति, सदाचार, न्याय, सहकार, सद्भाव जैसे मानवी सद्गुणों की चूलें ही हिल जाय। धूर्तता में कौए और लोमड़ी को बदनाम करने वाली कहानियां कही जाती हैं, पर असल में नीचे स्तर पर उतरा हुआ मनुष्य ही वह प्राणी है जिसे दूसरे शब्दों में प्रेत-पिशाच कह सकते हैं। वह जब अनाचार पर उतारू होता है तो वैसे असंख्यों कुचक्र रच देता है, जिससे अपना ही नहीं अन्यान्यों का, प्राणियों का एवं पदार्थ जगत का भी सर्वनाश करके रख दे। प्राचीनकाल की असुर उपाख्यानों की वृहत्तर श्रृंखला इसकी प्रत्यक्ष प्रमाण है। आधुनिक काल में हर क्षेत्र में उफनती विपन्नता भी यही बताती है कि मनुष्य भटका हुआ देवता ही नहीं, छद्मवेषधारी दैत्य-दानव भी है।
संव्याप्त विपत्तियों, समस्याओं, विडम्बनाओं और अनिष्ट आशंकाओं के मूल में एक ही कारण है—मनुष्य के स्तर में निकृष्टता का समावेश। उसकी कृतियां संसार में स्वर्ग भी उतार सकती हैं और देखते-देखते नरक का माहौल भी बना सकती हैं। यदि संसार को सुखी-समुन्नत बनाना है तो प्रधानतया एक ही उपाय अपनाना होगा—उसे सुसंस्कृत बनाना, शालीनता अपनाने के लिए भावना स्तर पर तैयार करना। यह कैसे बन पड़ें? इसके उत्तर में एक ही बात कही जा सकती है कि उसके दृष्टिकोण में उत्कृष्ट आदर्शवादिता का समावेश कर सकने वाले तत्वदर्शन का अपनाने के लिए उसके अन्तराल को सहमत करना।
दबावों से कुटिलों को एक सीमा तक ही बदला जा सकता है। अवसर पाते ही जिस भी परिस्थिति में रहना पड़े, उसी में ‘बेशरम बेल’ जलकुम्भी की तरह अपना विस्तार करने लगते हैं और अमरबेल जैसा अपना परिचय देने लगते हैं। प्राचीनकाल का दैत्य अभी भी मौजूद है, मात्र उसके क्रिया-कलाप में परिस्थिति के अनुरूप अन्तर हुआ है। नृशंसता अभी भी मौजूद है, मात्र उसने वेश बदला है। तर्कों के सहारे अपने कुकृत्यों को औचित्य बनाना शुरू कर दिया है, उसमें बाधक बनने का अपयश लेने के स्थान पर शोषण, छद्म, विश्वासघात और भ्रमजंजाल में फंसाकर उल्लू सीधा करना सरल पड़ता है। जल्लाद की तुलना में चिड़ीमार अधिक सरल मालूम पड़ते हैं। इसी प्रकार तर्कों का आवरण पहनाकर सच को झूठ और झूठ को सच सिद्ध करना अधिक सरल पड़ता है। कई अधिवक्ता इसी आधार पर अपनी आजीविका चलाते हैं। मार्गदर्शन का दायित्व उठाने वाले नेता भी कई बार अभिनेता और बहरूपिये विदूषकों की भूमिका निभाते देखे जाते हैं, इन्हें कैसे समझाया और राह-रास्ते पर लाया जाय, यह प्रश्न बड़ा टेढ़ा और जटिल मालूम देता है। समझाने-बुझाने का तरीका भी कुछ अधिक कारगर सिद्ध नहीं होता। कारण कि वह सब प्रायः सभी ने पहले से ही सुना समझा होता है। कहने की प्रथा का जहां तक सम्बन्ध है वहां तक आदर्शवाद की शिक्षा दूसरों को देने में सभी प्रवीण पाये जाते हैं। स्वयं भी चोर को नौकर रखने, नशेबाज के साथ व्यवहार रखने को तैयार नहीं होते, क्योंकि उनके हानिकारक अनौचित्य को पहले से ही समझते हैं। फिर भी जब अपनी बात आती है तो उन्हीं बुराइयों को कार्यान्वित करने में सकुचाते नहीं, इस छद्म के रहते सदाचार की शिक्षा देना भी एक प्रकार से निरर्थक हो जाता है। क्योंकि अन्तराल की गहराई में अनाचार का पक्षधर अविवेक पहले से ही जड़ जमाये बैठा होता है। उखाड़ना इसी क्षेत्र में गड़ी हुई जड़ों को है। परिवर्तन उस दृष्टिकोण का किया जाना चाहिए जिसका स्थायित्व आस्थाओं और भावनाओं से सम्बन्धित है।
यह हेर-फेर जीवन दर्शन आस्थाओं के अभ्यास पर, प्रचलन के प्रभाव पर निर्भर है। इसके लिए अध्यात्मपरक मान्यताओं, आस्थाओं और आदतों को स्वभाव में सम्मिलित करना होगा, यही है व्यक्तित्व के स्तर का मूलभूत आधार। इसी को परिष्कृत करने के लिए अध्यात्म का समग्र ताना-बाना बुना गया है। इस भाव संवेदना में जिस आधार पर उत्कृष्टता का मानवी गरिमा के अनुरूप समावेश किया जा सके, उसी आस्था नियोजन के आधार पर व्यक्ति के गुण, कर्म और स्वभाव का निर्माण होता है। यही है वह मेरुदण्ड जिसके सही सीधा होने पर कोई सीधा खड़ा होने और तनकर चलने में समर्थ हो सकता है।
इस तथ्य को इतिहास और वर्तमान के जन स्तर पर दृष्टिपात करके भली प्रकार जाना जा सकता है कि ऊंचे दृष्टिकोण एवं अच्छे स्वभाव के कारण ही लोग सर्वसाधारण की दृष्ट में अपने को प्रामाणिक एवं विश्वस्त सिद्ध कर पाते हैं, उसी को सम्मान और सहयोग मिलता है। इसी के आधार पर किसी का मनोबल, चरित्रबल और कौशल बढ़ता है। ऊंचे उठने, आगे बढ़ने और सफलतायें अर्जित करने का यही मार्ग है। इसी विशिष्ठता के आधार पर कोई महा मानव स्तर के, अपना और अन्यान्यों का कल्याण कर सकने वाले परमार्थ स्तर के कार्य कर पाता है। इस प्रकार अध्यात्म का अवलम्बन प्रत्यक्ष और परोक्ष रूप से हर किसी के लिए लाभदायक ही सिद्ध होता है। नीति-निष्ठा अपनाये रहने पर आत्मसंतोष का, हलके-फुलके प्रसन्न चित्त बने रहने का लाभ मिलता है। उसी में वह शक्ति होती है कि अपने अनुकरण से सम्पर्क क्षेत्र वालों को अधिक श्रेष्ठ समुन्नत बना सकने में समर्थ हो सके। संसार के हर क्षेत्र की चिरस्थाई और दूरगामी सत्परिणाम उत्पन्न कर सकने वाली मनःस्थिति और परिस्थिति हाथ लगती है। दूसरों को सुधारना-समझाना भी ऐसे ही लोगों के लिए सम्भव है। उसी का परामर्श विश्वस्त समझा जाता है जो अपनी कथनी और करनी को एक कर चुका हो। व्यक्तित्व को इस स्तर का बना सकना संभव है जिनने मानवी गरिमा के साथ जुड़े हुए नीतिनिष्ठ, समाजनिष्ठ एवं आदर्शनिष्ठ तत्वज्ञान को चिन्तन और चरित्र में गहराई तक स्थापित किया है। इस प्रकार आस्था संस्थान को उत्कृष्ट बना लेना हर किसी के लिए हर प्रकार लाभदायक सिद्ध होता है। समझा जाना चाहिए कि अध्यात्म तत्वदर्शन से सम्बन्धित अनेकानेक प्रतिपादन, अनुभव एवं कर्मकाण्ड इसी एक उद्देश्य को लेकर बनाये गये हैं जो लोक और परलोक को, प्रत्यक्ष और परोक्ष हर कसौटी पर बहुमूल्य सिद्ध करने में समर्थ होते हैं। जिस आस्था संकट ने अनेकानेक समस्याओं, उलझनों, विपत्तियों, विडम्बनाओं और आशंकाओं को जन्म दिया है उन्हें निरस्त करने का वास्तविक उपाय यही है कि लोकमानस को आदर्शवादी निष्ठाओं से अनुप्राणित किया जाय। हर किसी का हर प्रकार कल्याण इसी अवलम्बन को अपनाने में है।
विज्ञान का दुराग्रह यह है कि उसने प्रत्यक्षवाद को ही सब कुछ मान लिया है और उसे के आधार पर हर विषय का प्रतिपादन आरम्भ कर दिया है। इस आधार पर तो हर अनैतिकता की निर्दोष ठहराया जा सकता है। यदि धर्म और अध्यात्म के सिद्धांतों की अवहेलना चल पड़े तो फिर बूढ़े बैल की तरह बूढ़े बाप को भी कसाईखाने पहुंचाने में लाभ सोचा जाने लगेगा। नारी मात्र को अश्लील उपयोग का आधार मानने में कोई संकोच न होगा, शोषण-अपहरण और आक्रमण में भी कोई दोष न माना जायेगा। चूंकि पशु स्वभाव में इन्हीं बातों का समावेश है और मनुष्य को भी जब एक पशु ही मान लिया गया तो उस पर भी उन अनुबन्धों को लागू किस प्रकार किया जा सकता है, जिन्हें सभ्यता और संस्कृति के नाम से जाना जाता है जो अब तक की सराहनीय प्रगति के लिए एकमात्र श्रेयाधिकारी भी है।
अध्यात्म का विशुद्ध दर्शन मनोविज्ञान, परामनोविज्ञान, नीतिशास्त्र, समाजशास्त्र आदि के आधार पर सही बैठता है और आवश्यक समझा जा सकता है। उसके साथ जुड़े हुए प्रतिपादनों और कर्मकाण्डों को भी इस दृष्टि से स्वीकार किया जा सकता है कि वे अन्ततः व्यक्ति को संयमी, अनुशासित, प्रामाणिक, सद्गुणी एवं परमार्थ-परायण बनाने की भूमिका निबाहते हैं। ऐसे उपचार भी प्रत्यक्ष के आधार पर परोक्ष को प्रशिक्षित करने की नीति के अंग ही बनते हैं और प्रत्यक्ष दृष्टि से उनकी उपयोगिता में संदेह उठने पर भी समाधान इसलिए हो जाता है कि उनका प्रभाव-परिणाम अन्ततः व्यक्तित्व को अधिक शालीन बनाने में सहायक होता है, जिसकी कि आज अन्यान्य प्रयोजनों की अपेक्षा अत्यधिक आवश्यकता है। इस तथ्य पर विचार करते हुए विज्ञान को, अविज्ञात को भी एक विधा मानना चाहिए, जो सुविधा-संवर्धन की ही तरह सभ्यता और संस्कृति का स्तर बढ़ाने में सहायक सिद्ध होता है।
अध्यात्म दर्शन के प्रति उपेक्षा और अवमानना इसलिए नहीं बनी है कि उसके प्रतिपादन गलत हैं वरन् इसलिए विग्रह उपजा है कि उसकी आड़ में अनेकानेक अवांछनीयताओं ने अपना अड्डा जमा लिया है। अन्धविश्वासों, मूढ़ मान्यताओं और अवांछनीयताओं के पक्ष में ऐसा समर्थन भी प्रस्तुत किया है जो कबीलों की गुटबन्दी की दृष्टि से किन्हीं को भले ही रास आता, पर उसे सर्वोपयोगी नहीं कहा जा सकता। विशेषतया यह अनौचित्य तब असह्य हो जाता है जब उसमें से समन्वय की, सहिष्णुता की और मिल-जुलकर रहने की वृत्ति समाप्त हो जाती है। हमारा पक्ष शत-प्रतिशत सत्य और अन्यान्यों की मान्यता सर्वथा झूठी, इसी को मतान्धता, धर्मान्धता, असहिष्णुता आदि के नाम से पुकारा जाता है। इसी पर अड़ जाने के कारण आये दिन विग्रह खड़े होते और खून-खराबे के दृश्य नजर आते हैं। इस प्रकार प्रचलनों को पत्थर की लकीर मानकर उनके अनुपयोगी होने पर भी अपनाने के लिए अड़े रहना भी ऐसा अनौचित्य है जिसके कारण धर्म और अध्यात्म के प्रति विरोध भाव उपजता है और उसकी उपेक्षा, हठवादिता हर विचारशील पर बुरा असर छोड़ती है।
निहित स्वार्थों वाले चतुर वर्ग ने अध्यात्म से सम्बन्धित अनेक प्रचलनों को अपने ढंग से तोड़-मरोड़कर आजीविका का माध्यम बना लिया। अन्य व्यवसायों की तरह यदि धर्मधुरीण कहलाने वाले व्यक्ति अपनी सेवा का उचित पुरस्कार मांगते तो हर्ज न होगा, पर अन्धविश्वासों में भावुक जनों को फंसाकर उनके भोलेपन का अनुचित लाभ उठाना अखरता है और इस औचित्य के प्रति उपजा आक्रोश समूचे धर्म या अध्यात्म क्षेत्र के प्रति तिरस्कार का भाव उत्पन्न करता है और इसी कारण सीमित विरोध असीम विग्रह तक जा पहुंचता है।
विज्ञान ने सत्य की शोध को लक्ष्य बनाया है, जब भी भूल मालूम हुई है सुधारा है। जो हस्तगत हुआ है उसे आत्यंतिक सत्य न मानकर आगे भी खोज चलते रहने की उपयोगिता को स्वीकार किया है। इन्हीं मान्यताओं के आधार पर उनने इतनी प्रगति की है और भविष्य में और भी अधिक कर गुजरने की संभावना है। यही तथ्य यदि अध्यात्म क्षेत्र में अपनाया गया होता और सत्य के अधिक निकट पहुंचने के लिए आग्रह रहित मानस बनाकर रखा गया होता तो क्रमशः निखार आता चलता और अध्यात्म में भी वह विश्वास मिला होता जो विज्ञान को उपलब्ध है।
अध्यात्म और विज्ञान के समन्वय का तात्पर्य यह है—मनुष्य जीवन को भौतिक और आत्मिक प्रगति का संतुलन बिठाने, मिल-जुलकर काम करने के लिए सहमत किया जाय, वैसे ही प्रचलन को जन्म दिया जाय। सत्य की शोध के लिए दोनों में समान रूप से उत्साह रहे। सम्भव सत्प्रगति के मार्ग में किन्हीं भी पूर्वाग्रहों को बाधक न बनने दिया जाय, इसी में सबका सब प्रकार कल्याण है।
पशु पालक बलिष्ठ जानवरों से उपयोगी काम कराते हैं, पर इसलिए उन पर नियन्त्रण की कड़ी व्यवस्था करना आवश्यक हो जाता है। घोड़े के मुंह में लगाम लगानी पड़ती है। ऊंट की नाक में नकेल डाली जाती है, बैल के नथुने छेदने पड़ते हैं। हाथी से सही काम कराने के लिए महावत को न केवल प्रशिक्षित होना पड़ता है, वरन् पैनी नोंक वाले अंकुश का भी लगातार प्रयोग करना पड़ता है। यदि इन जानवरों को अपनी मर्जी पर चलने के लिए खुला छोड़ दिया जाय तो न केवल पालने वालों के लिए, वरन् उनकी चपेट में आने वाले हर किसी का बंटाढार करेंगे। रेल और मोटर को घुमाने, रोकने की प्रणाली सही रखनी पड़ती है अन्यथा वे किसी से भी टकरा कर अपना और सामने वाले का विनाश कर सकती है। सरकसों में खूंखार जानवरों के खेल दिखाना तभी सम्भव होता है जब उन्हें चाबुकों की मार से डराकर संचालक को इच्छानुसार काम करने के लिए पूरी तरह सहमत कर लिया जाता है। यदि वे स्वच्छन्द रहे तो पालने वालों से लेकर दर्शकों तक की दुर्गति बना सकते हैं।
विज्ञान को शक्तिपुंज कहा जा सकता है, पर वह जड़ पदार्थों से विनिर्मित होने के कारण विवेक, शून्य स्तर का है। स्वच्छन्दता मिलने पर वह ऐसा भी कर बैठ सकता है, जिससे भारी हानि उठानी पड़े और पछताते हुए सिर धुनना पड़े। चूल्हे की चिनगारी को उचटने का अवसर मिल जाय तो वह अपने घर का छप्पर ही नहीं जलायेगी, वरन् पास-पड़ोस को चपेट में लेते हुए पूरे गांव को भस्मसात करके रहेगी। इसलिए आग को सतर्कतापूर्वक ढक कर रखा जाता है।
समर्थता अच्छी बात है, पर उसके साथ सदुपयोग करने और सुरक्षा में रखने की शर्त अनिवार्य रूप से जुड़ी हुई है अन्यथा खतरा ही खतरा मंडराता रहेगा। धन-दौलत को जहां-तहां पड़ी रहने देने पर चोर-डाकुओं का आक्रमण हुए बिना नहीं रह सकता। अस्त्र-शस्त्रों को लूट ले जाने की घात में लुटेरे रहते हैं। विषैले रसायनों की बिक्री पर लाइसेन्स रहता है। मादक पदार्थों के सेवन की भी खुली छूट नहीं रहती। कारण कि वे सब असाधारण शक्तिशाली होते हैं और बारूद भड़क उठने पर उत्पन्न होने वाले विनाश की तरह संकट खड़े करते हैं।
भौतिक विज्ञान और उनके सशक्त उत्पादनों का लाभ तभी है जब उनके ऊपर दूरदर्शी प्रणाली का समुचित अंकुश नियन्त्रण हो अन्यथा असुरक्षित छोड़ देने पर लाभ के स्थान पर हानि सहने का संकट ही सहन करना होगा। भूल यहीं हुई है और हो रही है। समर्थ होने के अहंकार ने अपने आप को सर्वत्र स्वतन्त्र मान लिया है, उसके ऊपर नियन्त्रण की भी आवश्यकता है, यह किसी ने अनुभव नहीं किया। फलस्वरूप स्वच्छन्दता इस कदर बढ़ गयी कि विज्ञान ने पदार्थ सम्पदा की उधेड़बुन करते रहने तक सीमित न रहकर तत्वदर्शन को भी अपने ढांचे में ढालना आरम्भ कर दिया। अब भौतिकवाद एक दर्शन भी बन गया है, उसका प्रतिपादन है कि जो इन्द्रियों या यन्त्रों की पकड़ में आ सकता है उतना ही सत्य और तथ्य है। ईश्वर द्वारा विनिर्मित क्रिया की प्रतिक्रिया को भी नकारा गया है और कहा गया है कि उसे भावनात्मक मामले में दखल नहीं देना चाहिए। विष खाने से मृत्यु हो जाती है और टॉनिक पीने से फुर्ती आती है, इतना ही प्रतिपादन पर्याप्त है। चेतना पक्ष में क्या उचित और क्या अनुचित है? इसे किन्हीं ने जानने और सदुपयोग करने का महत्व ही नहीं समझा।
दर्शन के क्षेत्र में विज्ञान का हस्तक्षेप बढ़ने का प्रतिफल लगभग नास्तिकता जैसा हुआ। प्राणी को जब पदार्थ मात्र मान लिया गया तो उस पर भी जड़ नियम लागू करने की बात सोचना स्वाभाविक है। ऐसी दशा में चेतना की स्वतन्त्र सत्ता नहीं रहती तो उस पर उन कर्तव्यों और दायित्वों का आरोपण कैसे किया जाय जो भाव संवेदना, उदारता, परमार्थ-परायणता, सेवा-सद्भावना, शालीनता, संयम जैसी दिव्य विभूतियों से सम्बन्धित है। यदि इन्हें अनावश्यक ठहरा दिया जाय तो मानवी मर्यादाओं का पालन और वर्जनाओं का अनुशासन मानने की कोई आवश्यकता ही नहीं रह जाती। ऐसी दशा में समाजनिष्ठ और परस्पर आदान-प्रदान पर निर्भर मानवी सत्ता की चारित्रिक उत्कृष्टता को मान्यता मिलना कठिन हो जायेगा। भौतिक दर्शन या दमन मनुष्य जैसे अति चतुर प्राणी को सज्जनता के अनुबन्ध में बांधे रह सकेगा, यह सम्भव नहीं। वह पग-पग पर धूर्तता का प्रयोग करते हुए ऐसा कुछ कर सकता है जिससे नीति, सदाचार, न्याय, सहकार, सद्भाव जैसे मानवी सद्गुणों की चूलें ही हिल जाय। धूर्तता में कौए और लोमड़ी को बदनाम करने वाली कहानियां कही जाती हैं, पर असल में नीचे स्तर पर उतरा हुआ मनुष्य ही वह प्राणी है जिसे दूसरे शब्दों में प्रेत-पिशाच कह सकते हैं। वह जब अनाचार पर उतारू होता है तो वैसे असंख्यों कुचक्र रच देता है, जिससे अपना ही नहीं अन्यान्यों का, प्राणियों का एवं पदार्थ जगत का भी सर्वनाश करके रख दे। प्राचीनकाल की असुर उपाख्यानों की वृहत्तर श्रृंखला इसकी प्रत्यक्ष प्रमाण है। आधुनिक काल में हर क्षेत्र में उफनती विपन्नता भी यही बताती है कि मनुष्य भटका हुआ देवता ही नहीं, छद्मवेषधारी दैत्य-दानव भी है।
संव्याप्त विपत्तियों, समस्याओं, विडम्बनाओं और अनिष्ट आशंकाओं के मूल में एक ही कारण है—मनुष्य के स्तर में निकृष्टता का समावेश। उसकी कृतियां संसार में स्वर्ग भी उतार सकती हैं और देखते-देखते नरक का माहौल भी बना सकती हैं। यदि संसार को सुखी-समुन्नत बनाना है तो प्रधानतया एक ही उपाय अपनाना होगा—उसे सुसंस्कृत बनाना, शालीनता अपनाने के लिए भावना स्तर पर तैयार करना। यह कैसे बन पड़ें? इसके उत्तर में एक ही बात कही जा सकती है कि उसके दृष्टिकोण में उत्कृष्ट आदर्शवादिता का समावेश कर सकने वाले तत्वदर्शन का अपनाने के लिए उसके अन्तराल को सहमत करना।
दबावों से कुटिलों को एक सीमा तक ही बदला जा सकता है। अवसर पाते ही जिस भी परिस्थिति में रहना पड़े, उसी में ‘बेशरम बेल’ जलकुम्भी की तरह अपना विस्तार करने लगते हैं और अमरबेल जैसा अपना परिचय देने लगते हैं। प्राचीनकाल का दैत्य अभी भी मौजूद है, मात्र उसके क्रिया-कलाप में परिस्थिति के अनुरूप अन्तर हुआ है। नृशंसता अभी भी मौजूद है, मात्र उसने वेश बदला है। तर्कों के सहारे अपने कुकृत्यों को औचित्य बनाना शुरू कर दिया है, उसमें बाधक बनने का अपयश लेने के स्थान पर शोषण, छद्म, विश्वासघात और भ्रमजंजाल में फंसाकर उल्लू सीधा करना सरल पड़ता है। जल्लाद की तुलना में चिड़ीमार अधिक सरल मालूम पड़ते हैं। इसी प्रकार तर्कों का आवरण पहनाकर सच को झूठ और झूठ को सच सिद्ध करना अधिक सरल पड़ता है। कई अधिवक्ता इसी आधार पर अपनी आजीविका चलाते हैं। मार्गदर्शन का दायित्व उठाने वाले नेता भी कई बार अभिनेता और बहरूपिये विदूषकों की भूमिका निभाते देखे जाते हैं, इन्हें कैसे समझाया और राह-रास्ते पर लाया जाय, यह प्रश्न बड़ा टेढ़ा और जटिल मालूम देता है। समझाने-बुझाने का तरीका भी कुछ अधिक कारगर सिद्ध नहीं होता। कारण कि वह सब प्रायः सभी ने पहले से ही सुना समझा होता है। कहने की प्रथा का जहां तक सम्बन्ध है वहां तक आदर्शवाद की शिक्षा दूसरों को देने में सभी प्रवीण पाये जाते हैं। स्वयं भी चोर को नौकर रखने, नशेबाज के साथ व्यवहार रखने को तैयार नहीं होते, क्योंकि उनके हानिकारक अनौचित्य को पहले से ही समझते हैं। फिर भी जब अपनी बात आती है तो उन्हीं बुराइयों को कार्यान्वित करने में सकुचाते नहीं, इस छद्म के रहते सदाचार की शिक्षा देना भी एक प्रकार से निरर्थक हो जाता है। क्योंकि अन्तराल की गहराई में अनाचार का पक्षधर अविवेक पहले से ही जड़ जमाये बैठा होता है। उखाड़ना इसी क्षेत्र में गड़ी हुई जड़ों को है। परिवर्तन उस दृष्टिकोण का किया जाना चाहिए जिसका स्थायित्व आस्थाओं और भावनाओं से सम्बन्धित है।
यह हेर-फेर जीवन दर्शन आस्थाओं के अभ्यास पर, प्रचलन के प्रभाव पर निर्भर है। इसके लिए अध्यात्मपरक मान्यताओं, आस्थाओं और आदतों को स्वभाव में सम्मिलित करना होगा, यही है व्यक्तित्व के स्तर का मूलभूत आधार। इसी को परिष्कृत करने के लिए अध्यात्म का समग्र ताना-बाना बुना गया है। इस भाव संवेदना में जिस आधार पर उत्कृष्टता का मानवी गरिमा के अनुरूप समावेश किया जा सके, उसी आस्था नियोजन के आधार पर व्यक्ति के गुण, कर्म और स्वभाव का निर्माण होता है। यही है वह मेरुदण्ड जिसके सही सीधा होने पर कोई सीधा खड़ा होने और तनकर चलने में समर्थ हो सकता है।
इस तथ्य को इतिहास और वर्तमान के जन स्तर पर दृष्टिपात करके भली प्रकार जाना जा सकता है कि ऊंचे दृष्टिकोण एवं अच्छे स्वभाव के कारण ही लोग सर्वसाधारण की दृष्ट में अपने को प्रामाणिक एवं विश्वस्त सिद्ध कर पाते हैं, उसी को सम्मान और सहयोग मिलता है। इसी के आधार पर किसी का मनोबल, चरित्रबल और कौशल बढ़ता है। ऊंचे उठने, आगे बढ़ने और सफलतायें अर्जित करने का यही मार्ग है। इसी विशिष्ठता के आधार पर कोई महा मानव स्तर के, अपना और अन्यान्यों का कल्याण कर सकने वाले परमार्थ स्तर के कार्य कर पाता है। इस प्रकार अध्यात्म का अवलम्बन प्रत्यक्ष और परोक्ष रूप से हर किसी के लिए लाभदायक ही सिद्ध होता है। नीति-निष्ठा अपनाये रहने पर आत्मसंतोष का, हलके-फुलके प्रसन्न चित्त बने रहने का लाभ मिलता है। उसी में वह शक्ति होती है कि अपने अनुकरण से सम्पर्क क्षेत्र वालों को अधिक श्रेष्ठ समुन्नत बना सकने में समर्थ हो सके। संसार के हर क्षेत्र की चिरस्थाई और दूरगामी सत्परिणाम उत्पन्न कर सकने वाली मनःस्थिति और परिस्थिति हाथ लगती है। दूसरों को सुधारना-समझाना भी ऐसे ही लोगों के लिए सम्भव है। उसी का परामर्श विश्वस्त समझा जाता है जो अपनी कथनी और करनी को एक कर चुका हो। व्यक्तित्व को इस स्तर का बना सकना संभव है जिनने मानवी गरिमा के साथ जुड़े हुए नीतिनिष्ठ, समाजनिष्ठ एवं आदर्शनिष्ठ तत्वज्ञान को चिन्तन और चरित्र में गहराई तक स्थापित किया है। इस प्रकार आस्था संस्थान को उत्कृष्ट बना लेना हर किसी के लिए हर प्रकार लाभदायक सिद्ध होता है। समझा जाना चाहिए कि अध्यात्म तत्वदर्शन से सम्बन्धित अनेकानेक प्रतिपादन, अनुभव एवं कर्मकाण्ड इसी एक उद्देश्य को लेकर बनाये गये हैं जो लोक और परलोक को, प्रत्यक्ष और परोक्ष हर कसौटी पर बहुमूल्य सिद्ध करने में समर्थ होते हैं। जिस आस्था संकट ने अनेकानेक समस्याओं, उलझनों, विपत्तियों, विडम्बनाओं और आशंकाओं को जन्म दिया है उन्हें निरस्त करने का वास्तविक उपाय यही है कि लोकमानस को आदर्शवादी निष्ठाओं से अनुप्राणित किया जाय। हर किसी का हर प्रकार कल्याण इसी अवलम्बन को अपनाने में है।
विज्ञान का दुराग्रह यह है कि उसने प्रत्यक्षवाद को ही सब कुछ मान लिया है और उसे के आधार पर हर विषय का प्रतिपादन आरम्भ कर दिया है। इस आधार पर तो हर अनैतिकता की निर्दोष ठहराया जा सकता है। यदि धर्म और अध्यात्म के सिद्धांतों की अवहेलना चल पड़े तो फिर बूढ़े बैल की तरह बूढ़े बाप को भी कसाईखाने पहुंचाने में लाभ सोचा जाने लगेगा। नारी मात्र को अश्लील उपयोग का आधार मानने में कोई संकोच न होगा, शोषण-अपहरण और आक्रमण में भी कोई दोष न माना जायेगा। चूंकि पशु स्वभाव में इन्हीं बातों का समावेश है और मनुष्य को भी जब एक पशु ही मान लिया गया तो उस पर भी उन अनुबन्धों को लागू किस प्रकार किया जा सकता है, जिन्हें सभ्यता और संस्कृति के नाम से जाना जाता है जो अब तक की सराहनीय प्रगति के लिए एकमात्र श्रेयाधिकारी भी है।
अध्यात्म का विशुद्ध दर्शन मनोविज्ञान, परामनोविज्ञान, नीतिशास्त्र, समाजशास्त्र आदि के आधार पर सही बैठता है और आवश्यक समझा जा सकता है। उसके साथ जुड़े हुए प्रतिपादनों और कर्मकाण्डों को भी इस दृष्टि से स्वीकार किया जा सकता है कि वे अन्ततः व्यक्ति को संयमी, अनुशासित, प्रामाणिक, सद्गुणी एवं परमार्थ-परायण बनाने की भूमिका निबाहते हैं। ऐसे उपचार भी प्रत्यक्ष के आधार पर परोक्ष को प्रशिक्षित करने की नीति के अंग ही बनते हैं और प्रत्यक्ष दृष्टि से उनकी उपयोगिता में संदेह उठने पर भी समाधान इसलिए हो जाता है कि उनका प्रभाव-परिणाम अन्ततः व्यक्तित्व को अधिक शालीन बनाने में सहायक होता है, जिसकी कि आज अन्यान्य प्रयोजनों की अपेक्षा अत्यधिक आवश्यकता है। इस तथ्य पर विचार करते हुए विज्ञान को, अविज्ञात को भी एक विधा मानना चाहिए, जो सुविधा-संवर्धन की ही तरह सभ्यता और संस्कृति का स्तर बढ़ाने में सहायक सिद्ध होता है।
अध्यात्म दर्शन के प्रति उपेक्षा और अवमानना इसलिए नहीं बनी है कि उसके प्रतिपादन गलत हैं वरन् इसलिए विग्रह उपजा है कि उसकी आड़ में अनेकानेक अवांछनीयताओं ने अपना अड्डा जमा लिया है। अन्धविश्वासों, मूढ़ मान्यताओं और अवांछनीयताओं के पक्ष में ऐसा समर्थन भी प्रस्तुत किया है जो कबीलों की गुटबन्दी की दृष्टि से किन्हीं को भले ही रास आता, पर उसे सर्वोपयोगी नहीं कहा जा सकता। विशेषतया यह अनौचित्य तब असह्य हो जाता है जब उसमें से समन्वय की, सहिष्णुता की और मिल-जुलकर रहने की वृत्ति समाप्त हो जाती है। हमारा पक्ष शत-प्रतिशत सत्य और अन्यान्यों की मान्यता सर्वथा झूठी, इसी को मतान्धता, धर्मान्धता, असहिष्णुता आदि के नाम से पुकारा जाता है। इसी पर अड़ जाने के कारण आये दिन विग्रह खड़े होते और खून-खराबे के दृश्य नजर आते हैं। इस प्रकार प्रचलनों को पत्थर की लकीर मानकर उनके अनुपयोगी होने पर भी अपनाने के लिए अड़े रहना भी ऐसा अनौचित्य है जिसके कारण धर्म और अध्यात्म के प्रति विरोध भाव उपजता है और उसकी उपेक्षा, हठवादिता हर विचारशील पर बुरा असर छोड़ती है।
निहित स्वार्थों वाले चतुर वर्ग ने अध्यात्म से सम्बन्धित अनेक प्रचलनों को अपने ढंग से तोड़-मरोड़कर आजीविका का माध्यम बना लिया। अन्य व्यवसायों की तरह यदि धर्मधुरीण कहलाने वाले व्यक्ति अपनी सेवा का उचित पुरस्कार मांगते तो हर्ज न होगा, पर अन्धविश्वासों में भावुक जनों को फंसाकर उनके भोलेपन का अनुचित लाभ उठाना अखरता है और इस औचित्य के प्रति उपजा आक्रोश समूचे धर्म या अध्यात्म क्षेत्र के प्रति तिरस्कार का भाव उत्पन्न करता है और इसी कारण सीमित विरोध असीम विग्रह तक जा पहुंचता है।
विज्ञान ने सत्य की शोध को लक्ष्य बनाया है, जब भी भूल मालूम हुई है सुधारा है। जो हस्तगत हुआ है उसे आत्यंतिक सत्य न मानकर आगे भी खोज चलते रहने की उपयोगिता को स्वीकार किया है। इन्हीं मान्यताओं के आधार पर उनने इतनी प्रगति की है और भविष्य में और भी अधिक कर गुजरने की संभावना है। यही तथ्य यदि अध्यात्म क्षेत्र में अपनाया गया होता और सत्य के अधिक निकट पहुंचने के लिए आग्रह रहित मानस बनाकर रखा गया होता तो क्रमशः निखार आता चलता और अध्यात्म में भी वह विश्वास मिला होता जो विज्ञान को उपलब्ध है।
अध्यात्म और विज्ञान के समन्वय का तात्पर्य यह है—मनुष्य जीवन को भौतिक और आत्मिक प्रगति का संतुलन बिठाने, मिल-जुलकर काम करने के लिए सहमत किया जाय, वैसे ही प्रचलन को जन्म दिया जाय। सत्य की शोध के लिए दोनों में समान रूप से उत्साह रहे। सम्भव सत्प्रगति के मार्ग में किन्हीं भी पूर्वाग्रहों को बाधक न बनने दिया जाय, इसी में सबका सब प्रकार कल्याण है।