
कोठरी मन की सदा रख
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व्याख्या- स्वच्छता एवं शुद्धता प्रभु आगमन की पहली शर्त है। अतः
हम अपने मन की कोठरी को सदैव स्वच्छ एवं शुद्ध रखें। पता नहीं
कब उसमें प्रभु आ विराजें। क्योंकि यदि हम प्रभु को भाव विहृल होकर बुलाते रहे तो वे हमारा भावभीना निमंत्रण किसी भी क्षण स्वीकार कर सकते हैं।
स्थाई- कोठरी मन की सदा रख साफ वन्दे।
कौन जाने कब स्वयं प्रभु आन बैठे॥
तुम बुलाते हो उसे यदि भावना से।
कौन जाने कब निमंत्रण मान बैठे॥
यदि हमारा हृदय पीर से भर उठे तो उस पीर को व्यर्थ ही मत गंवा देना। कारण प्रभु का पीर से सघन रिश्ता है। क्योंकि वे करुणा सिंधु जो हैं। अतः अपना एक भी आँसू व्यर्थ न गंवाओ। क्योंकि करुणा के सिंधु न जाने कब आँसू की बूंद ही माँग लें।
अ.1- दर्द यदि उभरे कभी मन में तुम्हारे।
खर्च मत करना बिना सोचे विचारे॥
दर्द से रिश्ता सदा प्रभु का रहा है।
नाम करूणा सिंधु ही उसका रहा है॥
एक भी आंसू न कर बर्बाद वन्दे।
कौन जाने कब समन्दर मांग बैठे॥
वास्तव में सच्चे मन से चाह की जाये तो राह निकल ही आती है और मन उत्साहित हो उठता है। वैसे इच्छा पूर्ति तो सब चाहते हैं किन्तु उसका मर्म कोई नहीं पहचान पाता। हम नारकीय वातावरण में ही सुख मान लेते हैं तो फिर परमात्मा धरती पर स्वर्ग का सृजन कैसे करें। स्वर्ग नरक तो हमारे मन की ही सृष्टि है।
अ.2- चाह हो तो राह बन जाती गगन में।
चाह से उत्साह भरता मन बदन में॥
चाह पूरी हो यही सब मांगते हैं।
किन्तु उसका मर्म कब पहचानते हैं॥
स्वर्ग भूतल पर गढ़े कैसे विधाता।
नर्क में ही सुख मनुज यदि मान बैठे॥
हर मनुष्य रोज ही दुःखों की शिकायत करता है पर फिर भी दुष्टता का साथ देता है जो दुःखों का कारण है। यह सही है कि प्रभु दुःख दूर करते हैं पर उसमें मनुज का पुरुषार्थ भी आवश्यक है। यदि हम आँखों से पट्टी बाँधे रहें तो दमकता सूर्य भी हमें कैसे प्रकाश दे सकेगा। परमात्मा भी हमारे सामान्य पुरुषार्थ के बिना, हमारी मदद करने में मजबूर रहता है।
अ.3- रोज मानव कर रहा दु:ख की शिकायत।
दुष्टता की कर रहा फिर क्यों हिमायत॥
दुःख हरेंगे प्रभु स्वयं अवतार लेकर।
मानवी पुरूषार्थ को पर साथ लेकर॥
सूर्य उगकर भी भला क्या हित करेगा।
आँख से पट्टी अगर हम बाँध बैठे॥
लोग स्वार्थ के लिए मांगते रहते हैं किन्तु देने की बारी आती है तो कृपण बन जाते हैं। न तो परमार्थ भरा जीवन जीते हैं, और न ही इन्सानियत की शान रखते हैं। मनुष्य दाता है किन्तु भिखारी बन बैठा है। इस मान्यता को छोड़ना चाहिए।
अ.4- मांगने की रीति सी कुछ चल पड़ी है।
कृपणता से प्रीति सी कुछ हो चली है॥
क्यों नहीं परमार्थ पथ का मान रखते।
क्यों नहीं इन्सानियत की शान रखते॥
है तुम्हें दाता विधाता ने बनाया।
क्यों अरे खुद को भिखारी मान बैठे॥
स्थाई- कोठरी मन की सदा रख साफ वन्दे।
कौन जाने कब स्वयं प्रभु आन बैठे॥
तुम बुलाते हो उसे यदि भावना से।
कौन जाने कब निमंत्रण मान बैठे॥
यदि हमारा हृदय पीर से भर उठे तो उस पीर को व्यर्थ ही मत गंवा देना। कारण प्रभु का पीर से सघन रिश्ता है। क्योंकि वे करुणा सिंधु जो हैं। अतः अपना एक भी आँसू व्यर्थ न गंवाओ। क्योंकि करुणा के सिंधु न जाने कब आँसू की बूंद ही माँग लें।
अ.1- दर्द यदि उभरे कभी मन में तुम्हारे।
खर्च मत करना बिना सोचे विचारे॥
दर्द से रिश्ता सदा प्रभु का रहा है।
नाम करूणा सिंधु ही उसका रहा है॥
एक भी आंसू न कर बर्बाद वन्दे।
कौन जाने कब समन्दर मांग बैठे॥
वास्तव में सच्चे मन से चाह की जाये तो राह निकल ही आती है और मन उत्साहित हो उठता है। वैसे इच्छा पूर्ति तो सब चाहते हैं किन्तु उसका मर्म कोई नहीं पहचान पाता। हम नारकीय वातावरण में ही सुख मान लेते हैं तो फिर परमात्मा धरती पर स्वर्ग का सृजन कैसे करें। स्वर्ग नरक तो हमारे मन की ही सृष्टि है।
अ.2- चाह हो तो राह बन जाती गगन में।
चाह से उत्साह भरता मन बदन में॥
चाह पूरी हो यही सब मांगते हैं।
किन्तु उसका मर्म कब पहचानते हैं॥
स्वर्ग भूतल पर गढ़े कैसे विधाता।
नर्क में ही सुख मनुज यदि मान बैठे॥
हर मनुष्य रोज ही दुःखों की शिकायत करता है पर फिर भी दुष्टता का साथ देता है जो दुःखों का कारण है। यह सही है कि प्रभु दुःख दूर करते हैं पर उसमें मनुज का पुरुषार्थ भी आवश्यक है। यदि हम आँखों से पट्टी बाँधे रहें तो दमकता सूर्य भी हमें कैसे प्रकाश दे सकेगा। परमात्मा भी हमारे सामान्य पुरुषार्थ के बिना, हमारी मदद करने में मजबूर रहता है।
अ.3- रोज मानव कर रहा दु:ख की शिकायत।
दुष्टता की कर रहा फिर क्यों हिमायत॥
दुःख हरेंगे प्रभु स्वयं अवतार लेकर।
मानवी पुरूषार्थ को पर साथ लेकर॥
सूर्य उगकर भी भला क्या हित करेगा।
आँख से पट्टी अगर हम बाँध बैठे॥
लोग स्वार्थ के लिए मांगते रहते हैं किन्तु देने की बारी आती है तो कृपण बन जाते हैं। न तो परमार्थ भरा जीवन जीते हैं, और न ही इन्सानियत की शान रखते हैं। मनुष्य दाता है किन्तु भिखारी बन बैठा है। इस मान्यता को छोड़ना चाहिए।
अ.4- मांगने की रीति सी कुछ चल पड़ी है।
कृपणता से प्रीति सी कुछ हो चली है॥
क्यों नहीं परमार्थ पथ का मान रखते।
क्यों नहीं इन्सानियत की शान रखते॥
है तुम्हें दाता विधाता ने बनाया।
क्यों अरे खुद को भिखारी मान बैठे॥