Wednesday 14, May 2025
कृष्ण पक्ष द्वितीया, जेष्ठ 2025
पंचांग 14/05/2025 • May 14, 2025
ज्येष्ठ कृष्ण पक्ष द्वितीया, कालयुक्त संवत्सर विक्रम संवत 2082, शक संवत 1947 (विश्वावसु संवत्सर), बैशाख | द्वितीया तिथि 02:29 AM तक उपरांत तृतीया | नक्षत्र अनुराधा 11:47 AM तक उपरांत ज्येष्ठा | परिघ योग 06:33 AM तक, उसके बाद शिव योग | करण तैतिल 01:35 PM तक, बाद गर 02:29 AM तक, बाद वणिज |
मई 14 बुधवार को राहु 12:13 PM से 01:54 PM तक है | चन्द्रमा वृश्चिक राशि पर संचार करेगा |
सूर्योदय 5:28 AM सूर्यास्त 6:58 PM चन्द्रोदय8:51 PM चन्द्रास्त 6:50 AM अयन उत्तरायण द्रिक ऋतु ग्रीष्म
- विक्रम संवत - 2082, कालयुक्त
- शक सम्वत - 1947, विश्वावसु
- पूर्णिमांत - ज्येष्ठ
- अमांत - बैशाख
तिथि
- कृष्ण पक्ष द्वितीया
- May 14 12:36 AM – May 15 02:29 AM
- कृष्ण पक्ष तृतीया
- May 15 02:29 AM – May 16 04:03 AM
नक्षत्र
- अनुराधा - May 13 09:09 AM – May 14 11:47 AM
- ज्येष्ठा - May 14 11:47 AM – May 15 02:07 PM

गायत्री मन्त्र के 'ॐ' अक्षर की व्याख्या | Om Akshar Ki Vyakhaya

ज्ञान-दान की परंपरा चलती रहे | Gyandan Ki Parampara Chalti Rahe

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महाशून्य की यात्रा | Mahashunya Ki Yatra

अमृत सन्देश:- स्वर्ग के समान जीवन | Swarg ke Samaan Jivan | पं श्रीराम शर्मा आचार्य जी

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इन्द्रियों के अपव्यय से बचें | Indriyon Ke Apvyaya Se Bache

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गायत्रीतीर्थ शांतिकुंज, नित्य दर्शन







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!! शांतिकुंज दर्शन 14 May 2025 !! !! गायत्री तीर्थ शांतिकुञ्ज हरिद्वार !!

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अमृत सन्देश: देवतओं को दक्षिणा के रूप में क्या दें |गुरुदेव पं श्रीराम शर्मा आचार्य
परम् पूज्य गुरुदेव का अमृत संदेश
सवेरे प्रातःकाल सूर्योदय के समय पर यज्ञ प्रारंभ हो जाना चाहिए। जब तक धूप फैलती है, ठंडक फैलती है, अपने घर का काम का वक्त होता है, दुकान खोलने का वक्त होता है, और समय से सवेरे का कार्यक्रम जो वैसे ही समाप्त हो जाएगा।
सायंकाल का एक और कार्यक्रम है, वो भी आपको भुला नहीं देना चाहिए। सायंकाल का कार्यक्रम क्या है? सायंकाल को कीर्तन किया जाए।
कीर्तन पुराने कीर्तन में और हमारे कीर्तनों में तो फर्क है। पुराने कीर्तन में तो केवल राम धुन हुआ करती थी, राम धुन हरे रामा हरे रामा हरे कृष्णा हरे कृष्णा, बस केवल राम धुन होती थी।
हमारे कीर्तनों में विचार और टिप्पणियाँ भी जुड़ी हुई हैं। भगवान का नाम भी है, और भगवान के नाम के साथ में विचार भी जुड़े हुए हैं और टिप्पणियाँ भी जुड़ी हुई हैं।
यज्ञ के बाद में जब दक्षिणा दी जाए तो उसमें कोई न कोई एक अपनी बुराई छोड़ी जाए और कोई न कोई एक अच्छाई बढ़ाई जाए। यह काम करना भी आवश्यक है। यह यही दक्षिणा है।
दक्षिणा के लिए पंडित जी को हजार रुपया देंगे और उनको पांच कपड़े देंगे और फलाने देंगे, नहीं। किसी पंडित को जरूरत नहीं है। यह सामूहिक यज्ञ है।
देवता मिलकर के गए थे, वो कोई रैली लेकर थोड़ी गए थे, की बसें भेजी जाएंगी और ठेले भेजे जाएंगे, और सब देवताओं को इकट्ठा करके लाएंगे। उनको खाना दिया जाएगा, इसलिए थोड़ी गए थे। देवता अपना सम्मान दे करके गए थे।
इसमें यज्ञ में भी जो आदमी आएंगे, यह भी सामूहिक होंगे। जो भी हवन के मंत्र बोलेंगे, जो भी आहुति देंगे, वो सारे के सारे सहयोगी होंगे, सहकर्मी होंगे। उनमें से कोई पंडित नहीं होगा जो दक्षिणा के लिए आता है और यह पैसे की नौकरी के लिए आता है। पैसे की नौकरी की जरूरत नहीं है आपको।
लेकिन देवताओं को दक्षिणा तो देनी पड़ेगी। जिनको आपने बुलाया है, जिनसे आपने उम्मीद रखी है कि इंद्र देवता वर्षा करें, तो आखिर हमें उनके चरणों पर फूल तो चढ़ाना चाहिए, पाद्यम, अघ्र्यम, आचमन, कुछ तो पूजन करना ही चाहिए आपको।
तो वह पूजन करने की विधि में यही विधि शामिल है कि आपको देव दक्षिणा के रूप में कोई न कोई अपनी एक बुराई त्यागनी पड़ेगी और कोई न कोई बुराई अच्छाई त्याग पालन करनी पड़ेगी।
अखण्ड-ज्योति से
मैं काया हूँ। यह जन्म के दिन से लेकर-मौत के दिन तक मैं मानता रहा। यह मान्यता इतनी प्रगाढ़ थी कि कथा पुराणों की चर्चा में आत्मा काया की पृथकता की चर्चा आये दिन सुनते रहने पर भी गले से नीचे नहीं उतरती थी। शरीर ही तो मैं हूँ-उससे अलग मेरी सत्ता भला किस प्रकार हो सकती है? शरीर के सुख-दुख के अतिरिक्त मेरा सुख-दुख अलग क्यों कर होगा? शरीर के लाभ और मेरे लाभ में अन्तर कैसे माना जाय? यह बातें न तो समझ में आती थीं और न उन पर विश्वास जमता था। परोक्ष पर प्रत्यक्ष कैसे झुठलाया जाय? काया प्रत्यक्ष है-आत्मा अलग है, उसके स्वार्थ, सुख-दुःख अलग हैं, यह बातें कहने सुनने भर की ही हो सकती हैं। सो रामायण गीता वाले प्रवचनों की हाँ में हाँ तो मिलाता रहा पर उसे वास्तविकता के रूप में कभी स्वीकार न किया।
पर आज देखता हूँ कि वह सचाई थी जो समझ में नहीं आई और वह झुठाई थी जो सिर पर हर घड़ी सवार रही। शरीर ही मैं हूँ। यही मान्यता-शराब की खुमारी की तरह नस-नस में भरी रही। बोतल पर बोतल छानता रहा तो वह खुमारी उतरती भी कैसे? पर आज आकाश में उड़ता हुआ वायुभूत-एकाकी-’मैं’ सोचता हूँ। झूठा जीवन जिया गया। झूठ के लिए जिया गया, झूठे बनकर जिया गया। सचाई आँखों से ओझल ही बनी रही। मैं एकाकी हूँ, शरीर से भिन्न हूँ। आत्मा हूँ। यह सुनता जरूर रहा पर मानने का अवसर ही नहीं आया। यदि उस तथ्य को जाना ही नहीं-माना भी होता तो वह अलभ्य अवसर जो हाथ से चला गया, इस बुरी तरह न जाता। जीवन जिस मूर्खता पूर्ण रीति-नीति से जिया गया वैसा न जिया जाता।
शरीर मेरा है-मेरे लिए है, मैं शरीर नहीं हूँ। यह छोटी-सी सच्चाई यदि समय रहते समझ में आ गई होती तो कितना अच्छा होता। तब मनुष्य जीवन जैसे सुर-दुर्लभ सौभाग्य का लाभ लिया गया होता, पर अब क्या हो सकता है। अब तो पश्चाताप ही शेष है। भूल भरी मूर्खता के लिए न जाने कितने लम्बे समय तक रुदन करना पड़ेगा?
.... समाप्त
पं श्रीराम शर्मा आचार्य
अखण्ड ज्योति मार्च 1972 पृष्ठ 5
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