Thursday 07, August 2025
शुक्ल पक्ष त्रयोदशी, श्रवण 2025
पंचांग 07/08/2025 • August 07, 2025
श्रावण शुक्ल पक्ष त्रयोदशी, कालयुक्त संवत्सर विक्रम संवत 2082, शक संवत 1947 (विश्वावसु संवत्सर), श्रावण | त्रयोदशी तिथि 02:28 PM तक उपरांत चतुर्दशी | नक्षत्र पूर्वाषाढ़ा 02:01 PM तक उपरांत उत्तराषाढ़ा | विष्कुम्भ योग 06:42 AM तक, उसके बाद प्रीति योग 05:38 AM तक, उसके बाद आयुष्मान योग | करण तैतिल 02:28 PM तक, बाद गर 02:24 AM तक, बाद वणिज |
अगस्त 07 गुरुवार को राहु 02:02 PM से 03:42 PM तक है | 08:11 PM तक चन्द्रमा धनु उपरांत मकर राशि पर संचार करेगा |
सूर्योदय 5:44 AM सूर्यास्त 7:01 PM चन्द्रोदय 5:59 PM चन्द्रास्त 4:16 AM अयन दक्षिणायन द्रिक ऋतु वर्षा
- विक्रम संवत - 2082, कालयुक्त
- शक सम्वत - 1947, विश्वावसु
- पूर्णिमांत - श्रावण
- अमांत - श्रावण
तिथि
- शुक्ल पक्ष त्रयोदशी
- Aug 06 02:08 PM – Aug 07 02:28 PM
- शुक्ल पक्ष चतुर्दशी
- Aug 07 02:28 PM – Aug 08 02:12 PM
नक्षत्र
- पूर्वाषाढ़ा - Aug 06 12:59 PM – Aug 07 02:01 PM
- उत्तराषाढ़ा - Aug 07 02:01 PM – Aug 08 02:28 PM

अमृतवाणी: प्रातः काल का महत्व पंडित श्रीराम शर्मा आचार्य

अमृतवाणी:- मेरी इज्जत टिकिया और मूंगफली ने बिगाड़ दी | Meri ijjat tikiya Aur Moongphali Ne Bigad Di पंडित श्रीराम शर्मा आचार्य

सुनो युग ऋषि के जीवन की पुण्य कहानी | Suno Yug Rishi Ke Jeevan Ki Punya Kahani | स्तुति पंड्या
गायत्रीतीर्थ शांतिकुंज, नित्य दर्शन









आज का सद्चिंतन (बोर्ड)




आज का सद्वाक्य




नित्य शांतिकुंज वीडियो दर्शन

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!! शांतिकुंज दर्शन 07 August 2025 !! गायत्री तीर्थ शांतिकुञ्ज हरिद्वार !!

!! परम पूज्य गुरुदेव का कक्ष 07 August 2025 गायत्री तीर्थ शांतिकुञ्ज हरिद्वार !!
परम् पूज्य गुरुदेव का अमृत संदेश
प्रातः काल का जब सूर्य निकलता है, सुनहरे रंग का, सब में उमंग और नया उत्साह देखा जा सकता है। प्रातः काल में पक्षी चहचहाते हुए पेड़ों पर देखे जा सकते हैं, और हर आदमी की नींद खुलने लगती है। बच्चे उठने लगते हैं और सब आदमी अपने काम पर लग जाते हैं।
प्रातः काल होते ही हर एक के भीतर उमंग और हर एक के भीतर हलचल। एक प्रातः काल, एक ऐसा प्रातः काल, नया प्रारंभ होने जा रहा है। रात्रि मालूम पड़ता है कि समाप्त होने को आ गई, मालूम पड़ता है कि अब नया दिनमान शुरू होने वाला है। और नया दिन हमारे लिए भेजा गया है।
हम और आप जिन दिनों में रह रहे और जी रहे हैं, उसमें प्रातः काल का समय महत्वपूर्ण है। प्रातः काल की स्वर्णिम उषा का चिन्ह हमने आपके शरीर पे पहना दिया है। आप संदेश वाहक हैं इस मिशन के।
यह इस बात की घोषणा करती है कि अब नया युग चला आ रहा है। अब समय बदल रहा है, युग बदल रहा है, वक्त बदल रहा है, मनुष्य बदल रहा है, परिस्थितियाँ बदल रही हैं।
जिन परिस्थितियों में और जिस ढंग से हम बहुत दिनों से चले आ रहे हैं, अब उसी ढंग में हमारा गुजारा नहीं हो सकता। अब हमको नई परिस्थितियों में निवास करना पड़ेगा।
विज्ञान ने जिस हिसाब से तरक्की की है, उसी हिसाब से दुनिया बहुत नजदीक आ गई है। नजदीक आ गई है। थोड़े घंटे में, थोड़े घंटे में अमेरिका से लेकर के पाताल लोक से लेकर के हम यहाँ आना चाहें तो 24 घंटे के भीतर आ जाते हैं।
और टेलीफोन से कभी बात करना चाहें तो इंग्लैंड और अमेरिका से हम 15 मिनट के भीतर अभी-अभी बात कर सकते हैं। पहले बात हो सकती थी? नहीं, पहले नहीं हो सकती थी।
अब यह दुनिया विज्ञान ने बहुत नजदीक लाकर रख दी है, इतनी नजदीक लाकर के रखी है। अब हमारे लिए नए ढंग से विचार करना आवश्यक है।
पुराने ढंग से विचार करके अब हम जिंदा नहीं रह सकते। नई परिस्थितियों का हमको मुकाबला करना पड़ेगा और मनुष्य को ढलना पड़ेगा। और समय को ढलना पड़ेगा।
जो ढलना है और जो बदलना है, उसकी तैयारी के लिए, तैयारी के लिए आप अग्रदूत की तरीके से आगे-आगे काम करते हैं, तो आपका बड़ा सौभाग्य है और बड़ा महत्व है।
अखण्ड-ज्योति से
किसी भी कार्य की सिद्धि में आलस्य सबसे बड़ा बाधक है, उत्साह की मन्दता प्रवृत्ति में शिथिलता लाती है। हमारे बहुत से कार्य आलस्य के कारण ही सम्पन्न नहीं हो पाते। दो मिनट के कार्य के लिए आलसी व्यक्ति फिर करूंगा, कल करूंगा-करते-करते लम्बा समय यों ही बिता देता है। बहुत बार आवश्यक कार्यों का भी मौका चूक जाता है और फिर केवल पछताने के आँतरिक कुछ नहीं रह जाता।
(1) सात्विक सीमित आहार। जिससे पेट तनकर भारा रखने के कारण आलस्य प्रमाद न सताये। दूसरे अन्न के अनुरूप मन बने और भगवान में रुचिपूर्वक लग सके। अभक्ष्य, अनीति उपार्जित धान्य खाने से मन उद्विग्न एवं चंचल बनता है और भगवत् प्रसंग से हटकर बार बार दूर भागता है।
(2) वाक् संयम। कटु वचन, मिथ्या भाषण, असत्य मखौल जैसे भ्रष्ट वचन न बोलकर वाणी को इस योग्य बना लेना जिससे किया हुआ नाम स्मरण सार्थक हो सके।
(3) इन्द्रिय निग्रह- चटोरापन, कामुकता, मनोरंजक दृश्य देखने की चंचलता, संगीत आदि आकर्षणों की ओर दौड़ पड़ना जैसे चित्त को चंचल बनाने वाले उपक्रमों से दूर रहना। उन आकर्षणों के लिए उमंगें उठती हों तो उन्हें रोकना।
(4) स्वाध्याय और सत्संग का सुयोग बनाते रहना जिससे भगवद् भक्ति में श्रद्धा विश्वास बढ़े। जमे हुए संचित कुसंस्कारों के उन्मूलन का क्रम चलता रहे। उनके आधार पर ही लोभ मोह का दुष्परिणाम विदित होते हैं। उच्चस्तरीय चिन्तन मनन से ही मन की भ्रष्टता का निराकरण होता है।
माता पिता के निकट जाना या उनकी गोदी में बैठना किसी बच्चे के लिए कठिन नहीं होना चाहिए। यह सरल है और स्वाभाविक भी। भगवान के साथ मनुष्य का घनिष्टतम सम्बन्ध है। आत्मा परमात्मा से ही उत्पन्न हुई है। उसके साथ सम्बन्ध बनाये रहने से कोई मनुहार करने या अनुदान देने की आवश्यकता नहीं है। अनुनय विनय तो परायों से करनी पड़ती है। भेंट पूजा तो उनकी जेब में डालनी पड़ती है जिनसे कोई अनुचित प्रयोजन सिद्ध करना है।
बालक की जितनी उत्कण्ठा अभिभावकों की गोदी में चढ़ने की होती है उसकी तुलना में माता-पिता भी कम उत्सुक आतुर नहीं होते। पर इस प्रयोजन की पूर्ति में एक ही व्यवधान अड़ जाता है- बालक का शरीर गन्दगी से सना होना। मल मूत्र से बच्चे ने अपना शरीर गन्दा कर लिया हो और गोदी में चढ़ने का आग्रह कर रहा हो तो माता मन को कठोर करके उसे रोकती है, पहले स्नान कराती, पोछती और सुखाती है। उसके उपरान्त ही छाती से लगाकर दुलार करती और दूध पिलाती है। उसे अपना शरीर गन्दा और दुर्गन्धित होने का भय जो रहता है। विलम्ब का व्यवधान उसी कारण अड़ता है। यह विलम्ब बच्चे के हित में भी है और माता के हित में भी।
भगवद् भक्त कहलाने के लिए साधक को इस योग्य बनाना पड़ता है जिससे पास बिठाने वाले की भी निन्दा न हो। जिन अधम और अनाचारियों को भगवत् अनुग्रह प्राप्त हुआ है उन सभी को अपने दुर्गुणों का परिशोधन करना पड़ता है। इसके बिना अब तक किसी को भी उपासना का आनन्द नहीं मिला। परिशोधन भक्त की अनिवार्य कसौटी है। उसका श्रेय चाहे भक्त स्वयं ले ले या भगवान को दे दे। पर है इस प्रक्रिया की हर हालत में अनिवार्यता। मनुष्य एक ओर तो अनाचाररत रहे और दूसरी और उथले कर्मकाण्डों के बल पर ईश्वरीय अनुकम्पा का आनन्द लेना चाहे तो उसे अब तक की परम्परा और शास्त्र मर्यादा के सर्वथा प्रतिकूल ही समझना चाहिए। श्रीमद् भागवत् में इसी तथ्य को उपासना प्रेमियों के सम्मुख उद्घाटित किया है।
पं श्रीराम शर्मा आचार्य
अखण्ड ज्योति अगस्त 1985 पृष्ठ 26
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