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Tuesday 12, August 2025

कृष्ण पक्ष तृतीया, भाद्रपद 2025




पंचांग 12/08/2025 • August 12, 2025

भाद्रपद कृष्ण पक्ष तृतीया, कालयुक्त संवत्सर विक्रम संवत 2082, शक संवत 1947 (विश्वावसु संवत्सर), श्रावण | तृतीया तिथि 08:41 AM तक उपरांत चतुर्थी | नक्षत्र पूर्वभाद्रपदा 11:52 AM तक उपरांत उत्तरभाद्रपदा | सुकर्मा योग 06:53 PM तक, उसके बाद धृति योग | करण विष्टि 08:41 AM तक, बाद बव 07:40 PM तक, बाद बालव |

अगस्त 12 मंगलवार को राहु 03:39 PM से 05:18 PM तक है | 06:10 AM तक चन्द्रमा कुंभ उपरांत मीन राशि पर संचार करेगा |

 

सूर्योदय 5:47 AM सूर्यास्त 6:57 PM चन्द्रोदय 8:55 PM चन्द्रास्त 9:38 AM अयन दक्षिणायन द्रिक ऋतु वर्षा 

 

  1. विक्रम संवत - 2082, कालयुक्त
  2. शक सम्वत - 1947, विश्वावसु
  3. पूर्णिमांत - भाद्रपद
  4. अमांत - श्रावण

तिथि

  1. कृष्ण पक्ष तृतीया   - Aug 11 10:34 AM – Aug 12 08:41 AM
  2. कृष्ण पक्ष चतुर्थी   - Aug 12 08:41 AM – Aug 13 06:36 AM

नक्षत्र

  1. पूर्वभाद्रपदा - Aug 11 01:00 PM – Aug 12 11:52 AM
  2. उत्तरभाद्रपदा - Aug 12 11:52 AM – Aug 13 10:32 AM


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अमृतवाणी:- जीभ का स्वाद नहीं, संस्कार जरूरी है | Jeebh Ka Swad Nhi Sanskar Jaruri Hai पंडित श्रीराम शर्मा आचार्य

अमृतवाणी:- जीभ का स्वाद नहीं, संस्कार जरूरी है | Jeebh Ka Swad Nhi Sanskar Jaruri Hai पंडित श्रीराम शर्मा आचार्य

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 अमृतवाणी: साहस से ही महानता की प्राप्ति |Sahas Se Hi Mahanta Ki Prapti | पं श्रीराम शर्मा आचार्य जी

अमृतवाणी: साहस से ही महानता की प्राप्ति |Sahas Se Hi Mahanta Ki Prapti | पं श्रीराम शर्मा आचार्य जी

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गायत्रीतीर्थ शांतिकुंज, नित्य दर्शन

गायत्री माता
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गायत्री माता - अखंड दीपक
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चरण पादुका
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चरण पादुका
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सजल श्रद्धा - प्रखर प्रज्ञा (समाधि स्थल)
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प्रज्ञेश्वर महादेव - देव संस्कृति विश्वविद्यालय
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शिव मंदिर - शांतिकुंज
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हनुमान मंदिर - शांतिकुंज
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आज का सद्चिंतन (बोर्ड)

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आज का सद्वाक्य

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नित्य शांतिकुंज वीडियो दर्शन


!! शांतिकुंज दर्शन 12 August 2025 !! गायत्री तीर्थ शांतिकुञ्ज हरिद्वार !!

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अमृतवाणी: नए युग की तैयारी पंडित श्रीराम शर्मा आचार्य

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परम् पूज्य गुरुदेव का अमृत संदेश



आदमी के भीतर एक सोच काम करती है, एक चेतना काम करती है। चेतना की खुराक और चेतना की राहत, चेतना का नियंत्रण अगर ना मिल सका तो बाहर की वस्तुएं क्या कर लेंगी? बाहर की वस्तुएं क्या कर लेंगी?
हम देखते हैं रोज, देखते हैं पैसे वालों को, देखते हैं विद्वानों को, देखते हैं धनवानों को, मालदारों को, सेहतवानों को, ताकतवानों को, पहलवानों को। और उनकी घिसौनी जिंदगी को देखते हैं और उनके सामने चारों ओर जो परिस्थितियां पड़ी हुई हैं, उससे हम भाग खड़े होते हैं और कहते हैं — हे भगवान, हमको मत बनाना ऐसा धनवान। हमको मत बनाना ऐसा बलवान। हमको मत बनाना ऐसा विद्वान।
क्योंकि हमको इधर मालूम पड़ता है, जिस विद्या से हम चाहते हैं कि हमारी शराफत हमारे पल्ले बंधा रह जाए, तो अच्छा है।
इस तरक्की की वजह से, बेटे, नए जमाने में मैं ये देखता हूं कि नया युग आएगा। नया युग आएगा।
ऐसा युग आएगा? ऐसा युग आएगा, जिसमें आदमी के पास नीति, आदर्श, दर्शन, सिद्धांत, धर्म-सार — ये सिद्धांत उसके पास होंगे। और थोड़ा सामान होते हुए भी आदमी अपना गुजारा कर लेगा।
ऐसा युग आएगा। आएगा, जब आदमी संयम से रहना सीखेगा और इसी शरीर में से अपनी मजबूती पैदा कर लेगा और दीर्घ जीवन पैदा कर लेगा।
और ऐसा जमाना आएगा जिसमें हम अपने घरों में, घरों में अपने बाल-बच्चों के साथ प्यार-मोहब्बत के साथ हंसते-हंसाते जिंदगी व्यतीत करेंगे।
बच्चे अपने पापा से लिपट जाया करेंगे, और पापा अपने बच्चे को कंधे पर रखकर के ये अनुभव करेगा — ये भगवान का बेटा और भगवान का दिया हुआ छोटा सा खिलौना है।
खुशी। स्त्री अपने पति को देखकर के खुश हो जाया करेगी, कि कमल जिस तरीके से सूरज को देखकर खिल जाता है, उस तरीके से स्त्रियां अपनी पतियों को देखकर खिला करेंगी। और पति अपनी स्त्रियों को देखकर के घर में कहेंगे — यह साक्षात लक्ष्मी हमारे घर में विद्यमान है, सरस्वती हमारे घर में विद्यमान है, गायत्री हमारे घर में विद्यमान है।
फिर क्या कमी हमारे घर में रहेगी?
ऐसे, बेटे, हम भी एक प्रेम-मोहब्बत की दुनिया को आता हुआ देखते हैं। और हमको लगता है कि उसके लिए तैयारी करने में हमको कोई निराशा नहीं होती।
क्योंकि हमको मालूम पड़ता है — भगवान उस जमाने को लाएंगे।
रात के बाद जब दिन आ सकता है, तो खराब और गंदे जमाने के बाद अच्छा समय क्यों नहीं आएगा?
तर्क हमको कहती है, दलील हमको कहती है, भविष्य की आशाएं हमको कहती हैं, प्रतीत का चक्र हमको बताता है।
हर चीज बताती है कि नया युग और नया जमाना बदलने के लिए जा रहा है।

 

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अखण्ड-ज्योति से



शंकराचार्य जी अपनी माता की इकलौती संतान थे। माता ने सतान प्राप्ति के लिये शिव की घोर तपस्या की। तपस्या के फलस्वरूप जो संतान मिली-उसका नाम शंकर रखा।

साधारण स्त्रियों की तरह वे भी यही स्वप्न देखा करतीं थी कि कुछ ही दिनों में जब हमारा शंकर और बड़ा हो जायेगा तो उसका ब्याह करुँगी। बहू घर में आयेगी। हमारा घर भी कुछ ही दिनों में नाती पोतों से भरा-पूरा हो जायेगा। बहू की सेवाओं से हमें भी तृप्ति मिलेगी। जीवन की अंतिम घडियाँ सुख-शांति और वैभवपूर्ण ढ़ंग से समाप्त होंगी। ज्यो-ज्यों शकर बडे होते जाते, माता का वह स्वप्न और भी तीव्र होता जाता।

 जन्म-जात प्रतिभा-संपन्न शंकर का ध्यान जप, तप, पूजा-पाठ और दूसरे की सेवा, सहायता में ही अधिक लगता था। ज्ञानार्जन करना और इस प्रसाद को दूसरों तक वितरित करने की एक आकांक्षा हृदय के एक कोने से धीरे-धीरे प्रदीप्त हो रही थी। समाज की दयनीय दशा देखकर, उन्हे तरस आ रहा था। समाज को एक प्रखर, सच्चे और एकनिष्ठ सेवक की उन्हें आवश्यकता प्रतीत हो रही थी। ऐसे विषम समय में वे अपनी प्रतिभा को सांसारिक माया-जाल मे फँसाकर नष्ट नहीं करना चाहते थे।

उधर माता बच्चे की ऐसी प्रवृति को देखकर खिन्न हो रही थी। वे अपने किशोर शंकर को यही समझाया करती थीं कि वह घर गृहस्थी सँभाले, आजीविका कमाए और विवाह कर ले।

किशोर शंकर को माता के प्रति अगाध निष्ठा थी। वे उनका पूरा सम्मान करते थे और सेवा-सुश्रूषा में रंच मात्र भी न्यूनता नहीं आने देते थे। फिर भी अंतरात्मा यह स्वीकार न कर रही थी कि मोहग्रस्त व्यक्ति यदि अविवेकपूर्ण किसी बात का आग्रह कर रहा हो तो भी उसे स्वीकार ही कर लिया जाए। माता की ममता का मूल्य बहुत है, पर विश्व-माता मानवता की सेवा करने का मूल्य उससे भी अधिक है। विवेक ने- "बडे के लिए छोटे का त्याग" उचित बतलाया है। अंतरात्मा ने ईश्वर की अतरंग प्रेरणा का अनुभव किया और उसी को ईश्वर का निर्देश मानकर शंकर ने विश्व-सेवा करने का निश्चय किया।
            

माता को कष्ट न हो, स्वीवृति भी मिल जाए। ऐसा कौन-सा उपाय हो सकता है-यही उनके मस्तिष्क में गूँजने लगा। सोचते-सोचते एक विचित्र उपाय सूझा। एक दिन माता पुत्र दोनों नदी मे स्नान करने साथ-साथ गए। माता तो किनारे पर ही खडी रही, पर बेटा उछलते-कूदते गहरे पानी तक चला गया। वहाँ उसने अपने उपाय का प्रयोग किया। अचानक चिल्लाया-बचाओ। कोई बचाओ 'मुझे मगर पकड़े लिए जा रहा है। बेटे की चीत्कार सुनकर माता घबडा गई।

 किकर्तव्यविमूढ़ता की स्थिति में उन्हें कोई उपाय ही न सूझ रहा था। बेटे ने माता से कहा- 'माता मेरे बचने का एक ही उपाय अब शेष है। तुम मुझे भगवान् शंकर को अर्पित कर दो। वही मेरी प्राण रक्षा कर सकते है'' मर जाने से जीवित रहने का मूल्य अधिक है। भले ही लड़का संन्यासी बनकर रहेगा-यह निर्णय करते माता को देर न लगी। उन्होंने भगवान् शंकर की प्रार्थना की कि- मेरा बेटा मगर के मुख से निकल जाए तो उसे आपको समर्पित कर दूँगी। इतना कहते ही बेटे की आंतरिक प्रसन्नता का ठिकाना न रहा। वह धीरे-धीरे किनारे पर आ गया।

 इस प्रकार विश्व-सेवा के प्रेम और मानवता की सेवा की सच्ची निष्ठा ने ममता और मोह पर विजय पाई। यह युवक शंकर-संन्यासी शंकराचार्य के रूप में धर्म एवं संस्कृति की महान् सेवा में प्रवृत हुए।

~पं श्रीराम शर्मा आचार्य
संस्मरण जो भुलाए न जा सकेंगे पृष्ठ 154, 155

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