Tuesday 26, August 2025
शुक्ल पक्ष तृतीया, भाद्रपद 2025
पंचांग 26/08/2025 • August 26, 2025
भाद्रपद शुक्ल पक्ष तृतीया, कालयुक्त संवत्सर विक्रम संवत 2082, शक संवत 1947 (विश्वावसु संवत्सर), भाद्रपद | तृतीया तिथि 01:54 PM तक उपरांत चतुर्थी | नक्षत्र हस्त | साध्य योग 12:08 PM तक, उसके बाद शुभ योग | करण गर 01:55 PM तक, बाद वणिज 02:46 AM तक, बाद विष्टि |
अगस्त 26 मंगलवार को राहु 03:31 PM से 05:07 PM तक है | चन्द्रमा कन्या राशि पर संचार करेगा |
सूर्योदय 5:55 AM सूर्यास्त 6:42 PM चन्द्रोदय 8:30 AM चन्द्रास्त 8:23 PM अयन दक्षिणायन द्रिक ऋतु शरद
- विक्रम संवत - 2082, कालयुक्त
- शक सम्वत - 1947, विश्वावसु
- पूर्णिमांत - भाद्रपद
- अमांत - भाद्रपद
तिथि
- शुक्ल पक्ष तृतीया
- Aug 25 12:35 PM – Aug 26 01:54 PM
- शुक्ल पक्ष चतुर्थी
- Aug 26 01:54 PM – Aug 27 03:44 PM
नक्षत्र
- हस्त - Aug 26 03:49 AM – Aug 27 06:04 AM

क्यों जरूरी है जीवन में परिवर्तन | समस्या का समाधान ऋषि चिंतन से | पं श्रीराम शर्मा आचार्य

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सफलता का रहस्य | Safalta Ka Reshay

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अमृतवाणी:- सफल साधना का रहस्य | Safal Sadhna Ka Rehsay पंडित श्रीराम शर्मा आचार्य

प्रगति के पथ पर बढ़ते ही जाइए | Pragati Ke Patha Par Badhate Hi Jaaye | Pt Shriram Sharma Acharya
गायत्रीतीर्थ शांतिकुंज, नित्य दर्शन







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नित्य शांतिकुंज वीडियो दर्शन

!! शांतिकुंज दर्शन 26 August 2025 !! गायत्री तीर्थ शांतिकुञ्ज हरिद्वार !!

अमृतवाणी: धर्म की स्थापवी क्यो आवश्यक है पंडित श्रीराम शर्मा आचार्य
परम् पूज्य गुरुदेव का अमृत संदेश
जितने भी भगवान हुए हैं, अवतार हुए हैं, उन्होंने दो काम किए हैं। कौन-कौन से काम किए हैं?
"यदा यदाहि धर्मस्य ग्लानिर्भवति भारत, अभ्युत्थानम् धर्मस्य तदात्मानं सृजाम्यहम।
परित्राणाय साधूनां विनाशाय च दुष्कृताम्, धर्मसंस्थापनार्थाय संभवामि युगे युगे।।"
दो काम करता है। कौन सा है? अधर्म का नाश और धर्म की स्थापना।
धर्म की स्थापना आवश्यक है। कथा कहना आवश्यक है। अखंड कीर्तन और भी ज्यादा आवश्यक है। गंगा नहाना सबसे भी ज्यादा आवश्यक है। लेकिन एक और भी काम आवश्यक है। वह कौन सा है? अवांछनीयताएं घर-घर और मन-मन में समा गई हैं। इनके विरुद्ध लोहा लेना और संघर्ष करना भी आवश्यक है।
अब हमको दो काम करने पड़ेंगे। हमको लड़ाई भी लड़नी पड़ेगी और स्थापना भी करनी पड़ेगी। हमको जमीन खोदनी भी पड़ेगी ताकि नींव रखी जा सके और हमको चिनाई भी करनी पड़ेगी। हमको दो काम करने पड़ेंगे। बेटे, हमको अपने खेत में गुड़ाई भी करनी पड़ेगी और बुवाई भी करनी पड़ेगी। दो काम करेंगे।
हाँ बेटे, हम क्या कर सकते हैं? हम ऐसे समय में पैदा हुए हैं कि जिसमें हमको दो काम किए बिना कोई गति नहीं है। हमको एक आंख प्यार की और एक आंख सुधार की लेकर चलना पड़ेगा। एक आंख में दुलार और एक आंख में सुधार। बच्चे को हम इसी तरीके से काम में लाते हैं, नहीं तो बच्चा हमारा खराब हो जाएगा।
एक से प्यार करते हैं — तू हमारा बेटा है, तू हमारा बच्चा है, तू हमारा बहुत प्यारा लड़का है। अच्छा, हम तुझे मिठाई खिलाएंगे। और एक बार फिर यहाँ पेशाब कर लेता है, और यहाँ घड़ी-घड़ी तोड़ने की कोशिश करता है — मारे, चांटे के मारे, अभी कान उखाड़ देंगे। चुप जा, बैठ, तेरी कान उखाड़ दी जाएगी। बच्चे को डराते हुए।
अगर आप डराएंगे नहीं और प्यार करते रहेंगे तो बच्चा — देख लेना, आपका क्या हाल होता है — बड़ा खराब हो जाएगा।
हमको इस जमाने में दोनों चीजों को लेकर चलना पड़ेगा — एक सुधार को लेकर और एक प्यार को लेकर।
भगवानों ने — हर एक भगवान ने — यही किया है।
श्री कृष्ण भगवान ने अर्जुन को कथा सुनाई, बेशक।
गोवर्धन पहाड़ उठाया, बेशक।
गोपियों के सामने नृत्य किया, बेशक।
लेकिन महाभारत रचाया — बेशक।
उसे क्यों भूल जाते हैं?
"नहीं महाराज जी, रास करूंगा, मैं तो रास करूंगा।"
रास भी करो, महाभारत भी करो और पहाड़ भी उठाओ।
"नहीं महाराज जी, पहाड़ तो नहीं उठा सकता, रास नाच करूंगा।"
तो यह भी बात बंद करो। नाच ही बंद करो।
"नहीं महाराज जी, यह तो जरूर करूंगा — नाच — और उसे नहीं करूंगा।"
उसे भी कर।
रामचंद्र जी — रामचंद्र जी ने दो काम किए।
रामचंद्र जी ने रीछ-बंदरों को राक्षसों से लड़ने के लिए खड़ा कर दिया था।
और क्या कर दिया था?
उन्होंने शबरी की भक्ति की कथा भी बताई थी।
राम गीता भी बताई थी।
ऋषियों के आश्रमों में तत्वज्ञान की शिक्षा भी पाई थी और शिक्षा भी दी थी।
वह भी रामचंद्र जी का काम था।
रामराज्य भी बनाया था, लेकिन उन्होंने लोहा भी लिया था।
पं श्रीराम शर्मा आचार्य
अखण्ड-ज्योति से
प्रगति के पथ पर चलते हुए यदि दूसरों का सहयोग मिल सकता है, तो उसे प्राप्त करने में हर्ज नहीं। सहयोग दिया जाना चाहिए और आवश्यकतानुसार लेना भी चाहिए। पर इस तथ्य को ध्यान में रखना चाहिए कि हमारी मूलभूत आवश्यकता हमें स्वयं ही पूरी करनी पड़ती है, दूसरों के सहयोग से थोड़ा ही सहारा मिलता है।
बाह्य सहयोग को आकर्षित करने और उससे समुचित लाभ उठाने के लिए यह नितांत आवश्यक है कि अपनी निज की मनःस्थिति सही और संतुलित हो। इसलिए प्रथम महत्त्व दूसरों का नहीं रहता, अपना ही होता है। दूसरों के सहयोग की आशा करने में उससे लाभ उठाने की बात सोचने से पूर्व आत्म-निरीक्षण किया जाना चाहिए कि हम सहयोग के अधिकारी भी है या नहीं? कुपात्र तक पहुँचने के बाद विभूतियाँ भी बेकार हो जाती हैं। पत्थर की चट्टान जल प्रवाह में पड़ी रहने पर भी भीतर से सूखी ही निकलती है। मात्र बाहरी सहयोग से न किसी का कुछ काम चल सकता है और न भला हो सकता है।
दूसरों का सहारा तकने की अपेक्षा हमें अपना सहारा तकना चाहिए, क्योंकि वे सभी साधन अपने भीतर प्रचुर मात्रा में भरे पड़े हैं, जो सुव्यवस्था और प्रगति के लिए आवश्यक हैं। यदि सूझ-बूझ की वस्तुस्थिति समझ सकने योग्य यथार्थवादी बनाने की साधना जारी रखी जाय, तो सबसे उत्तम परामर्श दाता सिद्ध हो सकती है। मस्तिष्क में वह क्षमता मौजूद है, जिसे थोड़ा-सा सहारा देकर उच्च कोटि के विद्वान् अथवा बुद्धिमान् कहलाने का अवसर मिल जाय। हाथों की संरचना अद्भुत है। यदि उन्हें सही रीति से उपयुक्त काम करने के लिए सधाया जा सके, तो वे अपने कर्तृत्व से संसार को चमत्कृत कर सकते हैं। मनुष्य का पसीना इतना बहुमूल्य खाद है, जिसे लगाकर हीरे-मोतियों की फसल उगाई जा सकती है।
शरीर विज्ञान और मनोविज्ञान के ज्ञाता आश्चर्य चकित हैं कि विशाल ब्रह्माण्ड की तरह ही इस छोटे से मानव पिण्ड में भी एक से एक बढ़कर कैसी अद्भुत क्षमताओं को किसी कलाकार ने किस कारीगरी के साथ सँजोया है? कोशिकाओं और ऊतकों की क्षमताओं और हलचलों को देखकर लगता है कि जादुई-देवदूतों की सत्ता प्रत्येक जीवाणु में ठूँस-ठूँसकर भर दी गयी है। कायिक क्रियाकलाप और मानसिक चिंतन तंत्र किस जटिल संरचना और किस संरक्षण, संतुलन का प्रदर्शन करता है? उसे देखकर हतप्रभ रह जाना पड़ता है।
पिण्ड की आंतरिक संरचना जैसी अद्भुत है, उससे असंख्य गुनी क्षमता बाह्य जीवन में अग्रगामी और सफल हो सकने की भरी पड़ी है। मनोबल का यदि सही दिशा में प्रयोग हो सके तो फिर कठिनाई नहीं रह जाएगी।
अस्त-व्यस्तता और अव्यवस्था ही है, जो हमें दीन-हीन और लुंज-पुंज बनाये रखती है। दूसरों का सहारा इसलिए तकना पड़ता है कि हम अपने को न तो पहचान सके और न अपनी क्षमताओं को सही दिशा में, सही रीति से प्रयुक्त करने की कुशलता प्राप्त कर सके। शारीरिक आलस्य और मानसिक प्रमाद ने ही हमें इस गई-गुजरी स्थिति में रखा है कि आत्म-विश्वास करते न बन पड़े और दूसरों का सहारा ताकना पड़े। यदि आत्मावलम्बन की ओर मुड़ पड़ें, तो फिर परावलम्बन की कोई आवश्यकता ही प्रतीत न होगी।
पं श्रीराम शर्मा आचार्य
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