AKHAND JYOTI
प्रत्येक परिस्थिति में प्रसन्नता का राजमार्ग (भाग 4)
बुराई की शक्ति अपनी सम्पूर्ण प्रबलता के साथ टक्कर लेती है। इसमें सन्देह नहीं है। ऐसे भी व्यक्ति संसार में हैं जिनसे ‘‘कुशल क्षेम तो है’’ पूछने पर ‘‘आपको क्या गरज पड़ी’’ जैसे उत्तर मिल जाते हैं। ऐसे प्रसंगों से आये दिन भेंट होती है। इनसे टकराया जाये तो मनुष्य का सारा जीवन टकराने में ही चला जाता है। उनसे निबटा न जाय यह तो नहीं कहा जाता, पर किसी भी काम में हमारी विचार और ग्रहण शक्ति सात्विक और ऊर्ध्ववती रहनी चाहिये। शत्रु से युद्ध करते हुये भी उसके गुण, साहस और सूझ-बूझ की प्रशंसा करनी चाहिये।
यही बात भगवान कृष्ण ने अर्जुन को सिखाई। जब उसे पता चला कि इस संसार में सब विरोधी ही विरोधी हैं तो भगवान कृष्ण ने समझाया—अर्जुन! भद्रं मनः कृणुष्व वृत्रतूर्ये इस संसार संग्राम में तू भद्र मनस्कता के साथ ...
प्रगति के पाँच आधार
अरस्तू ने एक शिष्य द्वारा उन्नति का मार्ग पूछे जाने पर उसे पाँच बातें बताई।
(1) अपना दायरा बढ़ाओ, संकीर्ण स्वार्थ परता से आगे बढ़कर सामाजिक बनो।
(2) आज की उपलब्धियों पर संतोष करो और भावी प्रगति की आशा करो।
(3) दूसरों के दोष ढूँढ़ने में शक्ति खर्च न करके अपने को ऊँचा उठाने के प्रयास में लगे रहो।
(4) कठिनाई को देख कर न चिन्ता करो न निराश होओ वरन् धैर्य और साहस के साथ उसके निवारण का उपाय करने में जुट जाओ।
(5) हर किसी में अच्छाई खोजो और उससे कुछ सीख कर अपना ज्ञान और अनुभव बढ़ाओ। इन पाँच आधारों पर ही कोई व्यक्ति उन्नति के उच्च शिखर पर पहुँच सकता है।
अखण्ड ज्योति- अप्रैल 1973 पृष्ठ 1
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कुसंगत में मत बैठो!
पानी जैसी जमीन पर बहता है, उसका गुण वैसा ही बदल जाता है। मनुष्य का स्वभाव भी अच्छे बुरे लोगों के अनुसार बदल जाता है। इसलिए चतुर मनुष्य बुरे लोगों का साथ करने से डरते हैं, लेकिन अच्छे व्यक्ति बुरे आदमियों के साथ घुल−मिल जाते हैं और अपने को भी वैसा ही बना लेते हैं। मनुष्य की बुद्धि तो मस्तिष्क में रहती है, परन्तु कीर्ति उस स्थान पर निर्भर रहती है जहाँ वह उठता बैठता है। आदमी का घर चाहे कहीं भी हो, पर असल में उसका निवास स्थान वह है जहाँ वह उठता बैठता है और जिन लोगों की सोहबत पसन्द करता है। आत्मा की पवित्रता मनुष्य के कार्यों पर निर्भर है और उसके कार्य संगति के ऊपर निर्भर है। बुरे लोगों के साथ रहने वाला अच्छे काम करे यह बहुत कठिन है। धर्म से स्वर्ग की प्राप्ति होती है, लेकिन धर्माचरण करने की बुद्...
अहिंसा और हिंसा
अहिंसा को शास्त्रों में परम धर्म कहा गया है, क्योंकि यह मनुष्यता का प्रथम चिन्ह है। दूसरों को कष्ट, पीड़ा या दुःख देना निःसंदेह बुरी बात है, इस बुराई के करने पर हमें भयंकर पातक लगता है। और उस पातक के कारण नारकीय रारव यातनायें सहन करनी पड़ती हैं। बौद्ध और जैन धर्म तो अहिंसा को ही संपूर्ण धर्म मानते हैं। अन्य धर्मों में भी अहिंसा के लिए बहुत ऊँचा स्थान है।
ऐसे प्रधान धर्म का पालन करने के लिए यह आवश्यक है कि उसके तत्वज्ञान पर एक विवेचनात्मक दृष्टि डाली जाय। हमें जानना चाहिए कि हिंसा क्या है। और दूसरों को दुःख की व्याख्या क्या है। किसी को दुख न देने की मोटी कहावत तो इतनी स्थूल है कि उसका आचरण करने पर एक घंटे भी कोई प्राणी जीवित नहीं रह सकता और एक दिन भी ऐसी अहिंसा काम में आने लगे तो सृष्टि सर्...
अहिंसा और हिंसा (भाग 2)
बड़े बुद्धिमान, ज्ञानवान, शरीरधारी प्राणियों को दुख देने, दण्ड देने या मार डालने या हिंसा करने के समय यह विचारना आवश्यक है। कि यह दुख किस लिए दिया जा रहा है। सब प्रकार के दुख को पाप और सब प्रकार के सुख को पुण्य नहीं कहा जा सकता। गरीब भेड़ों के खून के प्यासे भेड़ियों को मार डालना न तो पाप है और न सर्प को दूध पिलाना पुण्य है। हिंसा अहिंसा की परिभाषा कष्ट या आराम के आधार पर करना एक बड़ा घातक भ्रम है। जिसके कारण केवल पाप का विकास और धर्म का नाश होता है।
एक आप्त वचन है कि- वैदिकी हिंसा, हिंसा न भवति अर्थात्- विवेकपूर्वक की गई हिंसा हिंसा नहीं है।
अविवेकपूर्वक दूसरों को जो कष्ट दिया गया है वह हिंसा है। जिह्वा की चटोरेपन के लोभ में निरपराध और उपयोगी पशु पक्षियों का माँस खाने के लिए उनकी गरदन पर छ...
अहिंसा और हिंसा (अंतिम भाग)
यह सोचना गलती है कि दुख देना हिंसा और आराम देना अहिंसा है। तत्वतः काम के परिणाम और करने वाले की नियत के अनुसार हिंसा अहिंसा का निर्णय होना चाहिये। तात्कालिक और क्षणिक दुख-सुख में दृष्टि को अटकाकर उससे उत्पन्न होने वाले परिणाम की ओर से आँखें बन्द कर लेना बुद्धिमानी न होगी। किये हुए कार्य के परिणाम का गंभीरतापूर्वक सूक्ष्म दृष्टि से विचार करने के उपरान्त उसके उचित या अनुचित होने का निर्णय करना चाहिए और उसी के आधार पर उस कार्य को हिंसा या अहिंसा ठहराना चाहिये।
विवेकपूर्वक पालन की जाने वाली अहिंसा में दंड देने की, शस्त्र प्रहार करने की युद्ध और संघर्ष करने की गुंजाइश है। एक विचारवान व्यक्ति नेक नीयती, परोपकार और धर्म भावना से अहिंसा धर्म के अनुसार दुष्ट को जान से भी मार सकता है और इसके लिए वह ...
मौन साधना के सिद्ध साधक- महर्षि रमण
मदुरै जिले के तिरुचुपि नामक एक देहान्त में उत्पन्न वैंकट रमण अपनी ही साधना से इस युग के महर्षि बन गये। आत्मज्ञान उन्होंने अपनी ही साधना से उपलब्ध किया। अठारह वर्ष की आयु में उनने अपना विद्यार्थी जीवन पूर्ण कर लिया। दक्षिण भारत में बोली जाने वाली चारों भाषाओं का उन्हें अच्छा ज्ञान था। साथ ही अंग्रेजी और संस्कृत का भी। यह भाषा ज्ञान उन्होंने किशोरावस्था में ही प्राप्त कर लिया था। अब आत्म-ज्ञान की बारी थी, जिसके लिए उनकी आत्मा निरन्तर बेचैन थी।
एक दिन जीवन और मृत्यु का मध्यवर्ती अन्तर समझने के लिए उन्होंने अपने मकान की छत पर ही एकाकी अभ्यास किया। शरीर को सर्वथा ढीला करके अनुभव करले लगे कि उनके प्राण निकल गये, काया सर्वथा निर्जीव पड़ी है। प्राण अलग है। प्राण के द्वारा शरीर की उलट-पलट कर देखने ...
ईश्वर के अनुग्रह का सदुपयोग किया जाय
मनुष्य को सोचने और करने की स्वतन्त्रता प्राप्त है। उसका उपयोग भली या बुरी, सही या गलत किसी भी दिशा में वह स्वेच्छापूर्वक कर सकता है। भव बंधन में बँधना भी उसका स्वतन्त्र कर्तृत्व ही है। इसमें माया, प्रारब्ध, शैतान, ग्रह, नक्षत्र आदि किसी अन्य का कोई दोष या हस्तक्षेप नहीं है। जीवन के स्वरूप और उद्देश्य से अपरिचित व्यक्ति भौतिक लालसाओं और लिप्साओं में स्वतः आबद्ध होता है। वह चाहे तो अपनी मान्यता और दिशा बदल भी सकता है और जिस तरह बंधनों को अपने इर्द गिर्द लपेटा था उसी प्रकार उनसे मुक्त भी हो सकता है।
रेशम का कीड़ा अपना खोल आप बुनता है और उसी में बँधकर रह जाता है। मकड़ी को बंधन में बाँधने वाला जाल उसका अपना ही तना हुआ होता है। इसे उनकी प्रवृत्ति की प्रतिक्रिया ही कह सकते हैं। जब रेशम का कीड़ा ख...
अपने ऊपर भरोसा करो!
यदि आप चाहते हैं कि दूसरे लोग आपके ऊपर भरोसा करें तो इसका सबसे सुलभ और सुनिश्चित उपाय यह है कि आप अपने ऊपर भरोसा करें। दुनिया में ऐसे अनेक मनुष्य हैं जिन पर कोई भरोसा नहीं करता, उन्हें गैर जिम्मेदार और बेपैंदी का समझा जाता है तथा जगह जगह दुत्कारा जाता है। ऐसे मनुष्य अपने आपे के प्रति अविश्वासी होते हैं। उनके चेहरे से, भावभंगिमा से, वाणी से, यह स्पष्ट रूप से प्रकट होता रहता है कि वह अपने आपके ऊपर भरोसा नहीं करता।
बाहर के मनुष्य हमें उसी नाम से पुकारते हैं कि जो हम अपना नाम उनके सामने प्रकट करते हैं। जब हमारी भावभंगिमा और वाणी से दीनता तुच्छता, असमर्थता, निराशा, निर्बलता, असमर्थता प्रकट होती है तो तुरन्त ही दूसरे लोग भी हमें वैसे ही मान लेते हैं और तदनुसार ही हमारे साथ व्यवहार करते हैं। जो ल...
कहिए कम-करिये ज्यादा (भाग 1)
मानव स्वभाव की एक बड़ी कमजोरी प्रदर्शन प्रियता है। बाहरी दिखावे को वह बहुत ज्यादा पसन्द करता है। यद्यपि वह जानता और मानता है कि मनुष्य की वास्तविक कीमत उसकी कर्मशीलता, कर्मठता है। ठोस और रचनात्मक कार्य ही स्थायी लाभ, प्रतिष्ठा का कारण होता है। दिखावा और वाक शूरता नहीं। यह जानते हुये भी उसे अपनाता नहीं। इसीलिये उसे एक कमजोरी के नाम से सम्बोधित करना पड़ता है।
प्रकृति ने मनुष्य को कई अंगोपाँग दिये हैं और उनसे उचित काम लेते रहने से ही मनुष्य एवं विश्व की स्थिति रह सकती है। पर मानव स्वभाव कुछ ऐसा बन गया है कि सब अंगों का उपयोग ठीक से न कर केवल वाक्शक्ति का ही अधिक उपयोग करता है। इससे बातें तो बहुत हो जाती हैं, पर तदनुसार कार्य कुछ भी नहीं हो पाता। हो भी कैसे वह करना भी नहीं चाहता और इसीलिये दिन...