आस्तिकता की कसौटी

सन्त प्रवर महात्मा तुलसीदास की अनुभूति है-
उमा जे रामचरन रत बिगत काम मद क्रोध। निल प्रभुमय देखहिं जगत कासन करहिं विरोध॥
जो भगवान को मानते हैं, उन पर श्रद्धा करते हैं, उनके अस्तित्व में विश्वास रखते हैं उनके न काम होता है, न मद् होता है और न क्रोध। वे संसार के अणु-अणु में प्रभु का दर्शन करते हैं तब उनका विरोध किसके साथ हो? तुलसीदास जी की आस्तिकता की इस परिभाषा पर किन किन आस्तिकों को आज परखा जा सकता है?
धर्म के नाम पर बड़े बड़े आडंबर करने वालों की आज कमी नहीं है, लेकिन उनके जीवन में प्रभु के दर्शन नहीं होते। ऐसा मालूम होता है जैसे जीवन के अन्य व्यापारों की तरह धर्म का भी वे एक व्यापार कर लेते हैं और सबसे अधिक उसकी कोई कीमत नहीं है।
भगवान पर मेरा विश्वास है ऐसे कहने वाले भी मिलते हैं लेकिन ये शब्द मुँह से निकलते हैं या हृदय से इसका निर्णय करना कठिन है। उनका व्यवहार रागद्वेष पूर्ण देखा जाता है और स्वयं भी उन्हें अपने विश्वास शब्द का विश्वास नहीं होता। प्रभु आज उपेक्षणीय हो गये हैं लेकिन तब भी हम आस्तिक हैं इसे बड़े जोर से चिल्लाकर कहते लोग पाये जाते हैं।
जिसके हृदय में प्रभु का निवास है और जो उसका दर्शन करता है उसका जीवन प्रभुमय होता है। उसके जीवन में समत्व होता है। वह संसार को प्रभु का विग्रह केवल मानता ही नहीं, अनुभव भी करता है। प्रभु उसके आचार में, प्रभु उसके जीवन में समा जाते हैं। वह व्यक्ति प्रभु की अर्चना के लिये किसी समय को अपने कार्यक्रम में अलग नहीं रखता। उसके जीवन का कार्यक्रम ही प्रभुमय होता है। उसका खाना पीना सोना जागना चलना फिरना तथा जगत के समस्त व्यवहारों में प्रभु समाये रहते हैं। ऐसे आस्तिक के लिए सम्प्रदायों के अलग नाम नहीं हैं, उसके लिए प्रत्येक घर प्रभु का मन्दिर है। और प्रत्येक शरीर प्रभु का विग्रह वहाँ भेदभाव की गुँजाइश ही नहीं रहती । वह संसार में भगवान की नित्य लीला का रसास्वादन करना है और स्वयं को भी भगवान की लीला का एक पात्र मात्र समझना है।
आस्तिक की न अपनी कोई कामना होती है, न माँग। वह न किसी से ऊंचा होता है न नीचा, न बड़ा न छोटा, न पवित्र न अपवित्र। उसको किसी प्रकार का अभाव नहीं सताता ।
आज की दुनिया रागद्वेष से पूर्ण है। ऊंच नीच के भावों से भरी हुई है। यद्यपि मन्दिर मस्जिद और गिरजाघरों की संख्या बराबर बढ़ रही है लेकिन आस्तिकता की सब ओर उपेक्षा की जा रही है। हम कहने को तो आस्तिक बनते हैं लेकिन हृदय में उसके लिए कोई स्थान नहीं है। इस तरह हमारा जीवन आत्म प्रवञ्चना से भरा हुआ है। हम अपने आपको धोखा दे रहे हैं या अपनी समझ को लेकर हम धोखा खा रहें हैं धोखे का यह जीवन आस्तिक जीवन नहीं है इसे भी समझने वालो की संख्या उत्तरोत्तर बढ़ रही है।
भारत के जीवन में जब जब आस्तिकता का जमाना रहा है, वह हमेशा खुशहाल रहा है लेकिन जैसे जैसे उसकी उपेक्षा की जाती रही है उसकी खुशहाली हटती गई है। आज कलह और क्लेशों से भरा हुआ भारत हम सब की आस्तिकता का डिमडिम घोष कर रहा है और फिर भी हम अपने आपको आस्तिक समझे बैठे हैं।
आस्तिकता अनन्त शान्ति की जननी है। जहाँ आस्तिकता होगी वहाँ अशांति का कोई चिन्ह दृष्टि गोचर नहीं होना चाहिए। ईश्वर का सच्चा विश्वासी पवित्र अन्तःकरण का होता है तदनुसार उसके व्यवहार तथा कर्म परिपाक भी सुमधुर ही होते हैं।
पं श्रीराम शर्मा आचार्य
अखण्ड ज्योति-1950 अप्रैल पृष्ठ 10
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