गुरुवर की वाणी
आज उस समय की उन मान्यताओं का समर्थन नहीं किया जा सकता जिनमें संतान वालों को सौभाग्यवान और संतानरहित को अभागी कहा जाता था। आज तो ठीक उलटी परिभाषा करनी पड़ेगी। जो जितने अधिक बच्चे उत्पन्न् करता है, वह संसार में उतनी ही अधिक कठिनाई उत्पन्न करता है और समाज का उसी अनुपात से भार बढ़ाता है, जबकि करोड़ों लोगों को आधे पेट सोना पड़ता है, तब नई आबादी बढ़ाना उन विभूतियों के ग्रास छीनने वाली नई भीड़ खड़ी कर देना है। आज के स्थित में संतानोत्पादन को दूसरे शब्दों में समाज द्रोह का पाप कहा जाय तो तनिक भी अत्युक्ति नहीं होगी।
□ राजनैतिक परतंत्रता दूर हो गई, पर आज जीवन के हर क्षेत्र में बौद्धिक पराधीनता छाई हुई है। गरीबी, बीमारी, अशिक्षा, अनैतिकता, अधार्मिकता, अनीति, उच्छृंखलता, नशेबाजी आदि अगणित दुष्प्रवृत्तियों से लोहा लेने की आवश्यकता है। यह कार्य भी यदि कोई पूरा कर सकता है तो वह नई पीढ़ी ही हो सकती है। अगले दिनों जिन प्रभा संपन्न महापुरुषों की राष्ट्र को आवश्यकता पड़ेगी, वह वर्तमान पीढ़ी से ही निकलेंगे, पर यह कसौटी यह होगी कि वे सामाजिक क्रान्ति के लिए कितनी हिम्मत रखते हैं। दहेज विरोधी आन्दोलन उसका एक आवश्यक अंग है, इससे युवकों की विचारशीलता एवं समाज के प्रति दर्द का प्रमाण मिलेगा।
◆ अपनी तपश्चर्या और ईमानदारी में कहीं कोई कमी ही होगी जिसके कारण जिन व्यक्तियों के साथ पिछले ढेरों वर्षों से संबन्ध बनाया, उनमें कोई आध्यात्मिक साहस उत्पन्न न हो सका। वह भजन किस काम का, जिसके फलस्वरूप आत्मनिर्माण एवं परमार्थ के लिए उत्साह उत्पन्न न हो ।। किन्हीं को हमने भजन में लगा भी दिया है पर उनमें भजन का प्रभाव बताने वाले उपरोक्त दो लक्षण उत्पन्न न हुए हों तो हम कैसे माने कि उन्हें सार्थक भजन करने की प्रक्रिया समझाई जा सकी? हमारा परिवार संगठन तभी सफल कहा जा सकता था जब उसमें ये सम्मिलित व्यक्ति उत्कृष्टता और आदर्शवादिता की कसौटी पर खरे सिद्ध होते चलते। अन्यथा संख्या वृद्धि की विडम्बना से झूँठा मन बहलाव करने से क्या कुछ बनेगा?
◇ आपको वह काम करना चाहिए, जो कि हमने किया है। हमने आस्था जगाई, श्रद्धा जगाई, निष्ठा जगाई। निष्ठा, श्रद्धा और आस्था किसके प्रति जगाई? व्यक्ति के ऊपर? व्यक्ति तो माध्यम होते हैं। हमारे प्रति, गुरुजी के प्रति श्रद्धा है। बेटा! यह तो ठीक है, लेकिन वास्तव में सिद्धांतों के प्रति श्रद्धा होती है। हमारी सिद्धान्तों के प्रति निष्ठा रही। वहाँ से जहाँ से हम चले, जहाँ से विचार उत्पन्न किया है, वहाँ से लेकर आजीवन निरन्तर अपनी श्रद्धा की लाठी को टेकते-टेकते यहाँ तक चले आए। यदि सिद्धान्तों के प्रति हम आस्थावान न हुए होते तो सम्भव है कि कितनी बार भटक गए होते और कहाँ से कहाँ चले गए होते और हवा का झोंका उड़ाकर हमको कहाँ ले गया होता? लोभों के झोंके, मोहों के झोंके, नामवरी के झोंके, यश के झोंके, दबाव के झोंके ऐसे हैं कि आदमी को लम्बी राह पर चलते हुए भटकने के लिए मजबूर कर देते हैं और कहीं से कहीं घसीट ले जाते हैं।
पं श्रीराम शर्मा आचार्य
Recent Post
विचारणीय
मुफ्त में अनुदान-वरदान पाने की अपेक्षा, किसी को भी, किसी से भी नहीं करनी चाहिए। देवताओं से वरदान और धन-कुबेरों से अनुदान प्राप्त करने के लिए अपनी पात्रता का परिचय देना पड़ता है। मुफ्तखोरों के लिए तो...
महान कैसे बनें?
मित्रो ! तुम्हें ऐसे व्यक्तियों का प्रेमपात्र बनने का सदैव प्रयत्न करते रहना चाहिए जो कष्ट पडऩे पर तुम्हारी सहायता कर सकते हैं और बुराइयों से बचाने की एवं निराशा में आशा का संचार करने की क्षमता रख्...
संघर्षों की विजयादशमी (Kavita)
संघर्षों की विजयादशमी चढ़ आई है,
तज कर तन्द्रा, आ पंचशील के राम, उठो!
तुम भटक चुके हो नाथ, बहुत दण्डक वन में,
तुम बिलख चुके हो हृदय-विदारक क्रन्दन में,
नीरव आँसू से ...
साहस और संकल्प का महापर्व : विजयादशमी
शहरों, कस्बों और गाँवों में रावण के पुतलों को जलाने की तैयारियाँ देखकर दशहरा के आगमन का अनुमान होने लगा है। 12 अक्टूबर 2024 को विजयादशमी के मनाए जाने की खबर सभी को लग गयी है। इस दिन बाँसों की खपच्च...
शक्ति और मर्यादा की समन्वित सिद्धि
रामकथा के प्रतिनिधि ग्रंथों में शक्ति पूजा का उल्लेख नहीं आता। देवी भागवत और दूसरे पुराणग्रंथों में ही कहा गया है कि लंका विजय से पहले नवरात्र अनुष्ठान किया था और शक्ति ने स्वयं प्रकट होकर राम को व...
शक्ति -उपासना से ही राष्ट्र समर्थ−सशक्त हो सकेगा
देवभूमि भारत में आदिशक्ति के प्रति आस्था अत्यंत प्राचीन है। भारत में पूर्वपाषाणकाल और नवपाषाणकाल में शक्ति −उपासना के संकेत मिलते हैं। इतिहासविदों के अनुसार नवपाषाणकाल में कृषि−क्राँति ...
आनन्द की खोज
मित्रो! आनन्द की खोज में भटकता हुआ इन्सान, दरवाजे-दरवाजे पर टकराता फिरता है। बहुत-सा रुपया जमा करें, उत्तम स्वास्थ्य रहे, सुस्वाद भोजन करें, सुन्दर वस्त्र पहनें, बढिय़ा मकान और सवारियाँ हों, नौकर-च...
श्रेष्ठ जीवन
मित्रो ! भगवान के दो हाथ हैं। एक हाथ से वह पीडि़त होकर के माँगता है, पतित होकर के माँगता है। आप पतितों की सहायता कीजिए, पीडि़तों की सहायता कीजिए। पीडि़तों की और पतितों की आप सहायता न करें तब?...
राष्ट निर्माण
मजबूत राष्ट निर्माण के लिए सर्वप्रथम चरित्रवान नागरिकों को गढऩे की आवश्यकता है। चरित्रवान नागरिक ही किसी राष्ट की बुनियाद से लेकर गुंबद तक के निर्माण में सहायक होते हैं। इसके लिए उनके अंदर पव...
तीसरा चरण संघर्षात्मक
मित्रो ! तीसरा चरण जो अपना रह जाता है, वह संघर्ष का है। संघर्ष के बिना अवांछनीय तत्त्वों को हटाया नहीं जा सकता है। कुछ निहित स्वार्थ ऐसे होते हैं, उनकी दाढ़ में ऐसा लग जाता है अथवा किसी अपनी बेवकूफी...