जमाना तेजी से बदलेगा
हमारा पहला परामर्श यह है कि अब किसी को भी धन का लालच नहीं करना चाहिए और बेटे-पोतों को दौलत छोड़ मरने की विडम्बना में नहीं उलझना चाहिये। यह दोनों ही प्रयत्न सिद्ध होंगे। अगला जमाना जिस तेजी से बदल रहा है उससे इन दानों विडम्बनाओं से कोई कुछ लाभान्वित न हो सकेगा वरन् लोभ और मोह की इस दुष्प्रवृत्ति के कारण सर्वत्र धिक्कार भर जायेगा। दौलत छिन जाने का दुख और पश्चाताप सताएगा सो अलग। इसलिए यह परामर्श हर दृष्टि से सही ही सिद्ध होगा कि मानव जीवन जैसी महान् उपलब्धि का उतना ही अंश खर्च करना चाहिए जितना निर्वाह के लिये अनिवार्य रूप से आवश्यक हो। इस मान्यता को हृदयंगम किये बिना आज की युग पुकार के लिये किसी के लिये कुछ ठोस कार्य कर सकना सम्भव न होगा। एक ओर से दिशा पड़े बिना दूसरी दिशा में चल सकना सम्भव ही न होगा। लोभ-मोह में जो जितना डूबा हुआ होगा उसे लोक मंगल के लिए न समय मिलेगा न सुविधा। सो परमार्थ पक्ष पर चलने वालों को सबसे प्रथम अपने इन दो शत्रुओं को-रावण कुम्भ करण को- कंस, दुर्योधन को निरस्त करना होगा।
यह दो आन्तरिक शत्रु ही जीवन-विभूति को नष्ट करने के सब से बड़े कारण है। सो इनसे निपटने का अन्तिम महाभारत हमें सबसे पहले आरम्भ करना चाहिए। देश के सामान्य नागरिक जैसे स्तर का सादगी और मितव्ययिता पूर्ण जीवन स्तर बनाकर स्वल्प व्यय में गुजारे की व्यवस्था बनानी चाहिए और परिवार को स्वावलम्बी बनाने की योग्यता उत्पन्न करने और हाथ-पाँव से कमाने में समर्थ बना कर उन्हें अपना वजन आप उठा सकने की सड़क पर चला देना चाहिये। बेटे-पोतों के लिये अपनी कमाई की दौलत छोड़ मरना भारत की असंख्य कुरीतियों और दुष्ट परम्पराओं में से एक है। संसार में अन्यत्र ऐसा नहीं होता। लोग अपनी बची हुई कमाई को जहाँ उचित समझते हैं वसीयत कर जाते हैं। इसमें न लड़कों की शिकायत होती है न बाप को कंजूस कृपण को गालियाँ पड़ती है।
सो हम लोगों में से जो विचारशील है, उन्हें तो ऐसा साहस इकट्ठा करना चाहिए। जिनके पास इस प्रकार का ब्रह्म वर्चस न होगा। वे माला सटक कर, पूजा-पत्री उलट-पलट कर मिथ्या आत्म प्रवंचना भले ही करते रहें। वस्तुतः परमार्थ पथ पर एक कदम भी न बढ़ सकेंगे। समय, श्रम, मन और धन का अधिकाधिक समर्पण विश्व-मानव की सेवा को समर्पण कर सकने की स्थिति तभी बनेगी जब लोभ और मोह के खर-दूषण कुछ अवसर मिलने दें लोभ और मोह ग्रस्त को ‘आपापूती’ से ही फुरसत नहीं, बेचारा लोक-मंगल के लिये कहाँ से कुछ निकाल सकेगा और इसके बिना जीवन साधना का स्वरूप ही क्या बन पड़ेगा ? जिनके पास गुजारे भर के लिए पैतृक सम्पत्ति मौजूद है, उनके लिये यही उचित है कि आगे के लिये उपार्जन बिलकुल बन्द कर दें और सारा समय परमार्थ के लिये लगायें। प्रयत्न यह भी होना चाहिए कि सुयोग्य स्त्री-पुरुषों में से एक कमाये घर खर्च चलाये और दूसरे को लोक-मंगल में प्रवृत्त होने की छूट दे दे संयुक्त परिवारों में से एक व्यक्ति विश्व सेवा के लिये निकाला जाय और उसका खर्च परिवार वहन करें। जिनके पास संग्रहित पूँजी नहीं है। रोज कमाते रोज खाते हैं उन्हें भी परिवार का एक अतिरिक्त सदस्य बेटा ‘लोक-मंगल’को मान लेना चाहिए और उसके लिए जितना श्रम समय और धन अन्य परिवारियों पर खर्च होता है उतना तो करना ही चाहिए।
पं श्रीराम शर्मा आचार्य
अखण्ड ज्योति, जून १९७१, पृष्ठ ५७
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