इस आपत्ति−काल में हम थोड़ा साहस तो करें ही! (अन्तिम भाग)
संन्यास के आदर्श बहुत ऊँचे हैं। उन्हें निबाहना पूरा समय देने वाले शिथिल प्रकृति मनुष्यों के लिए सम्भव नहीं। इसके प्रतिबन्ध बड़े हैं। भिक्षाटन आज की स्थिति के उपयुक्त नहीं रहा। जिस-तिस का जैसा-तैसा अपमान अवज्ञा और उपेक्षा पूर्वक मिला कुधान्य किसी संन्यासी की बुद्धि को सतोगुणी एवं सन्तुलित नहीं रहने देता। ऐसी-ऐसी अनेक कठिनाइयों के कारण आज की परिस्थितियों में संन्यास से प्रति हम असहमति प्रकट करते रहें हैं और यही कहते रहें है कि परमार्थ प्रयोजन के लिए जीवन समर्पण करने वालों के लिए वानप्रस्थ ही उपयुक्त है। उसमें घर परिवार के साथ सम्बन्ध बनाये रहने की सुविधा है। साथ ही प्रतिबन्ध में उतने कड़े नहीं है। हरिजन शब्द की तरह आज संन्यास भी निठल्ले, अकर्मण्य लोगों का पर्यायवाची बन गया है। इसलिए भी हम वानप्रस्थ को ही इन दिनों साधु और ब्राह्मण का सम्मिश्रित स्वरूप मानते रहे हैं और उसी में उत्तरार्द्ध परम्परा के दोनों आश्रमों का समावेश करते रहे है। आज की स्थिति में युग-धर्म के अनुरूप यही हल सर्वोत्तम है।
अपनी योजना के अनुसार ‘अखण्ड-ज्योति परिवार’ के प्रबुद्ध परिजनों को थोड़े-थोड़े समय के लिए वानप्रस्थ लेने का साहस करना चाहिए और नियत अवधि पूरी करके अपने घरों को लौट जाना चाहिए। जब-जब उन्हें अवकाश मिले, तब-तब ऐसे कदम बार-बार उठा सकते हैं। नियत समय पर नियत अवधि के लिए पहले से भी ऐसा व्रत ले लिया जाय तो उससे अपने ऊपर एक बन्धन, उत्तरदायित्व बँधता है। इस दृष्टि से वैसा साहस कर गुजरता वैसा ही है-जैसा कि परीक्षा का फार्म भर देने पर पढ़ने की गति एवं चेष्टा में गतिशीलता का आना। यह प्रक्रिया यदि उत्साह पूर्वक अपनाई जा सके तो साधु-संस्था के मरणासन्न होने के कारण विश्व-मानव के सिर पर विनाश की जो काली घटाएँ छा रही हैं, उन्हें सुविधा पूर्वक हटाया जा सकता है।
.... क्रमशः जारी
पं श्रीराम शर्मा आचार्य
अखण्ड ज्योति जनवरी 1974 पृष्ठ 24
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