माँसाहार का पाप पूर्व को भी पश्चिम न बना दे। (भाग 2)
माँस मनुष्य का स्वाभाविक आहार नहीं हो सकता। हम इस संसार में सुख−शाँति और निर्द्वंद्वता का जीवन जीने के लिये आये हैं। आहार हमारे जीवन धारण की सामर्थ्य को बढ़ाता है, इसलिये पोषण और शक्ति प्रदान करने वाला आहार तो चुना जा सकता है, किन्तु जो आहार हमारी मानसिक, बौद्धिक एवं आत्मिक शक्तियों को नष्ट करता हो, वह पौष्टिक होकर भी स्वाभाविक नहीं हो सकता। हमारे जीवन की सुख−शाँति शरीर पर उतनी अवलम्बित नहीं, जितना इनका संबंध मन, बुद्धि और आत्मा की शुद्धता से है। इसलिये जो आहार इन तीनों को शुद्ध नहीं रख सकता, वह हमारा स्वाभाविक आहार कभी भी नहीं हो सकता।
बहुत स्पष्ट बात है। जंगल के शेर, चीते, भेड़िये भालू, लकड़बग्घे माँसाहार करते हैं, इन्हें देखकर लोग कहते हैं कि शक्तिशाली होने के लिये माँसाहार आवश्यक है। उनकी एक दलील यह भी होती है कि माँस खाने की प्रेरणा स्वयं प्रकृति ने दी है, समुद्र की बड़ी मछलियाँ छोटी मछलियों को जंगल के बड़े जन्तु छोटे जीवों को मारकर खाते रहते हैं? प्रकृति ने मानवेत्तर प्राणियों की संख्या न बढ़ने देने के लिये ऐसी व्यवस्था की है पर मनुष्य उन परिस्थितियों से सर्वथा भिन्न है, जिनमें अन्य जीव−जन्तु जन्म लेते, बढ़ते और विकसित होते हैं।
शेर, चीते माँसाहारी होने के कारण बलवान् होते हैं पर उनमें इस कारण दुष्टता और अशाँति से जो संशयशीलता उत्पन्न होती है, वह उन्हें भयग्रस्त और कायर बना देती है। शेर दिन भर भय ग्रस्त रहता है। चीते और भेड़िये खूँखार होने के अतिरिक्त समय केवल इसी प्रयत्न में रहते हैं कि कहाँ छिपे रहें, जिससे कोई उन्हें देख न ले या मार न डाले। साँप चलते हुए इतना भय ग्रस्त होता है कि सामान्य सी खुटक से भी वह बुरी तरह घबड़ा जाता है। मनुष्य भी यदि माँसाहार करता है तो उसमें भी स्वभावतः ऐसी संशयशीलता, अविश्वास और भय की भावना होनी चाहिये। यह बुराइयाँ मनुष्य को सदैव ही अधःपतित करती रही हैं।
.... क्रमशः जारी
पं श्रीराम शर्मा आचार्य
अखण्ड ज्योति जनवरी 1970 पृष्ठ 26
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