
विपरीत करणी मुद्रा
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(ले. योगिराज श्री उमेशचंद्रजी, रामतीर्थे योगाश्रम बम्बई नं. 4 )
प्रथम दोनों पैरों को लम्बे फैला कर बैठ जाना चाहिये। दोनों घुटनों पर दोनों हाथ रखें। कमर, पीठ और शिर समान स्थिति में रखें। छाती को अल्प प्रमाण में फुला के रखे। आँखें बन्द रखें। शरीर को साधारण प्रमाण में तान कर रखें। दोनों नथुनों से पाँच बार घर्षण (श्वास को एक बार पूरक करें तुरन्त ही बाहर निकालना यह एक घर्षण कहा जाता है।) कर दोनों नासिका द्वारा पूरक करें यथाशक्ति कुँभक के पश्चात् दोनों नासारंध्र से रेचक करें। यह एक विपरीत करणी मुद्रा सम्पूर्ण हुई।
मुद्रा का आरम्भ से अन्त तक मूल बन्द कायम रखे। कुँभक के समय में जालंधर बन्द करें और रेचक के समय में उद्यान बन्द करें। पूरक चार मात्रा और कुँभक 16 मात्रा और रेचक 7 मात्रा का प्रमाण से करे। इसी नियम से प्रकृति और शक्ति के अनुकूल अधिक प्रमाण में पूरक, कुँभक, और रेचक की मात्रा बढ़ा सकते हैं।
4 दिनों तक 4 मुद्राएं, 4 से 10 दिनों तक 6 मुद्राएँ, 10 से 16 दिन तक 8 मुद्राएँ, 16 से 24 दिनों तक 10 मुद्राएँ , 24 से 1 महीने तक 12 मुद्राएँ पश्चात् शक्ति, समय तथा लाभ के अनुकूल 12 से 16 विपरीत करणी मुद्राएँ कर सकते हैं।
मुद्रा का लाभ
आँखों की दृष्टि बढ़ती है। निद्रा अच्छी आती है, बुद्धि तीव्र और स्थिर होती है। वीर्य सम्बन्धी तमाम रोग नाश होते हैं। कमर की वेदना नष्ट होती है, कंठ का स्वर मधुर बनता है, स्मरण शक्ति बढ़ती है, मन में शुभ विचार आते हैं, अपच रोग नहीं रहता, मल बद्धता नहीं रहती है, मुख पर तेज और सौंदर्य बढ़ता है, रक्त शुद्ध होता है, फेफड़े सशक्त बनते हैं, चित्त पवित्र हो जाता है। कार्य कुशलता में प्रवीणता आती है। निरंतर यह मुद्रा करने से सारे शरीर में अनहद शक्ति बढ़ती है। आज्ञा चक्र में से प्रत्येक स्त्री, पुरुषों को चन्द्रामृत टपकता है, उस चन्द्रामृत को कुण्डलिनी शक्ति खा जाती है, किन्तु विपरीत करणी मुद्रा करने वाले स्त्री, पुरुषों का चन्द्रामृत व्यर्थ नहीं जाता है, कर्माशत कोश नाश होता है। सर्व अव्यव सर्वांग सुन्दर बनते हैं। इतना ही नहीं किन्तु और भी अनेक लाभ इस मुद्रा से प्राप्त होंगे।
इस मुद्रा को 10 वर्ष से 100 वर्ष तक के र्स्वंस्त्री, पुरुष कर सकते हैं। मुद्रा कर 20 मिनट के पश्चात् भोजन कर सकते हैं। रजा दर्शन के समय 5 दिनों तक और गर्भ धारण से लेकर प्रसूति के पश्चात् दो महीने तक स्त्रियाँ नहीं करे। प्रातः काल 4 से 7 बजे तक अभ्यास करने के लिये उत्तम समय है। सायंकाल भी अभ्यास हो सकता है, किन्तु सायंकाल अभ्यास करने से अधिक लाभप्रद नहीं होगा। दिन में एक समय अभ्यास करना चाहिये। हरि ॐ तत् सत्।