
सौ वर्ष तक जिओ
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ले.-धर्मचार्य श्री सच्चिदानन्दजी शस्त्रों, बदायूँ
कुर्बन्नेवेह कर्म्माणि जिजीविषेच्छतँ समाः,
एवं त्वयि नान्यथेतोअस्ति न कर्म लिप्यते नरे।ईशो.।
इस मन्त्र में उपनिषद्कार ने यह बतलाया कि कर्म करते हुये कम से कम सौ वर्ष तक मनुष्य को जीने का अधिकार है। इस तरह कर्म करता हुआ पुरुष सौ वर्ष तक जीता हुआ कर्मों में लिप्त नहीं होता है।
अब सौ वर्ष तक जीने की व्यवस्था क्या है, इस विषय का प्रमाण सहित शत पथ काण्ड 14 में इस प्रकार बताया है कि-”ब्रह्मचर्याश्रमं समाप्य गृही भूत्वावनी भवेतनी भूत्वा प्रब्रजेत।” इस तरह से इसके अन्दर 4 आश्रमों का विधान है। ब्रह्मचर्य, गृहस्थ, वानप्रस्थ और संन्यास। चार आश्रमों के अनुसार प्रत्येक में 25, 25 साल बाँट देने से पूरा 100 साल हो जाता है। संध्या में इसी प्रकार का वर्णन आता है, उसमें वेद मन्त्र का टुकड़ा इस तरह है कि “पश्येम शरदः शतम् जीवेम शरदः शतं श्रृणुसाम शरदः शतम् अदीनः स्याम शरदः शतम” इत्यादि इस टुकरे में जो “जीवेम शरदः शतम्” वाक्य आता है, वह वाक्य भी हमको यही बताता है, कि हम सौ साल तक जिएं बाकी मन्त्र का तो यह भाव है, कि सौ साल तक जीते हुए हमारी इन्द्रियाँ भी ठीक तरह से कार्य करती रहें।
अब प्रश्न यह है कि क्या सौ साल से अधिक जीने का अधिकार नहीं है? नहीं ऐसी बात नहीं है। वेद मन्त्र का टुकड़ा तो इस बारे में स्पष्ट ही कहता है कि “भूयश्च शरदः शतात्” सौ साल से भी अधिक जीओ, परन्तु यह बात विशेष लोगों के लिये ही कही जा सकती है, सर्वसामान्य के लिये नहीं।
अब हमारे सामने प्रश्न उठता है, कि सौ साल अथवा सौ साल से अधिक किस तरह से जिआ जा सकता है! पहले पहल जो आश्रमों का विधान (ब्रह्मचर्य गृहस्थ वानप्रस्थ सन्यासादि) बताया है उसमें शुरू ब्रह्मचर्य से हुआ है। हम इस बात को सहसा कह सकते हैं, कि केवल यदि ठीक प्रकार से ब्रह्मचर्य की ही पालन किया जाय और आश्रमों का पालन न भी किया जाय तो केवल इसी ब्रह्मचर्य के आधार पर ही सौ वर्ष क्या सौ वर्ष से अधिक भी जिआ जा सकता है! क्या हमारे ऋषि मुनियों की उमर 100 ही वर्ष तक परिमित थीं? नहीं। उनके जीवन ब्रह्मचर्य के द्वारा बहुत लम्बे हुआ करते थे। ब्रह्मचर्य का अर्थ है कि परमात्मा की तरफ गति करना। यह अर्थ इस प्रकार से निकला कि ब्रह्म का अर्थ परमात्मा और चर गति भक्षणयोः धातु से चर का अर्थ गति निकला है। असल में देखा जाय तो ऋषि मुनि लोग ही परमात्मा की तरफ गति किया करते थे। यह निश्चय बात है, कि जो पुरुष परमात्मा की ओर अपना ध्यान लगायेंगे वे पुरुष कभी भी सांसारिक विषयों की ओर नहीं झुकेंगे। संसारी विषयों की ओर वे ही झुकते हैं, जो ईश्वर को भूल जाते हैं परमात्मा की ओर गति करना ही केवल एक ऐसा साधन है, जो कि सब से मुख्य साधन है, और इस साधन में ही सब साधन आ जाते हैं। इस साधन को अन्य साधनों की बिलकुल आवश्यकता नहीं है। यहाँ पर इस तरह क्रिया होती है, कि जब मनुष्य परमात्मा की ओर गति करेगा तब परमात्मा उसको अपना भक्त जान कर उसके लिये शुद्ध कार्य की प्रेरणा करेंगे। जिस प्रेरणा को सुन कर वह भक्त उसी के अनुसार कार्य करेगा क्योंकि वह सत्य स्वरूप की प्रेरणा है। इस तरह से अपने जीवन को भक्त सौ साल से भी अधिक खींच सकता है और इसी भक्ति के द्वारा वह शक्ति भी प्राप्त हो सकती है, कि जिसके द्वारा भक्त अपने जीवन को कितने वर्षों बाद छोड़ू या रक्खूँ यह प्रश्न अपने हाथ में रख सकता है! बुद्ध के जीवन चरित्र में आया है, कि उसको ऐसी शक्ति प्राप्त थी। अस्तु।
दूसरा ब्रह्मचर्य का अर्थ वीर्य की रक्षा करना है। वीर्य ही इस शरीर का राजा है। यदि वह इस शरीर में से निकल जाय तो शरीर उस समय के लिये मुर्दा मालूम होता है। यदि हम किसी प्रकार से अपने वीर्य की रक्षा कर लें तो निःसंदेह हम चारों आश्रमों को पार कर सकते हैं, और सौ साल की आयु बिता सकते हैं। कारण यह है कि वीर्य हमारे शरीर की नींव है। जिस प्रकार मकान की नींव यदि कमजोर बनाई जाय तो सम्पूर्ण मकान जल्दी से टूट जाने का अन्देशा बना रहता है, उसी प्रकार शरीर मकान के रहने के स्थान चार आश्रम है। यदि वीर्य रूपी नींव ब्रह्मचर्याश्रम से ही कमजोर है, तो मकान ही गिर जायगा।
अगला उपाय 100 साल तक जीने का यह है, कि हम अपनी इन्द्रियों को संयम में रक्खें। आज कल प्रायः जो बीमारियाँ फैलती है, यह सब खाने पीने के ही द्वारा होती है, बहुत कम बीमारियाँ ऐसी हैं, जो कि किन्हीं अन्य कारणों से होती है। इन बीमारियों से छुटकारा पाने का सीधा उपाय यही है कि हम अपनी जिह्वा इन्द्रियों पर पूरी तौर से संयम कर लें। यह कहा जाता है कि जिसने अपनी जिह्वा इन्द्रिय पर पूरी तौर से संयम कर लिया है, उसने अपने सम्पूर्ण शरीर पर संयम पा लिया है। यह बिलकुल सत्य है। बात यह है, जब हम उत्तेजक पदार्थ खाते हैं, उससे काम वासना उत्पन्न होती है, काम से मोह की उत्पत्ति होती है। मोह से आकर्षण शक्ति उत्पन्न होती है। जब आकर्षण शक्ति उत्पन्न हुई तो वह संघर्षण शक्ति को अपनी ओर खींचती है। संघर्षण शक्ति गरमाहट को उत्पन्न करती है। उस गरमाहट में एक प्रकार की गुदगुदी होती है। वही गुदगुदी ब्रह्मचर्य के नाश का कारण है। ज्यादा खा लेने से आलस्य, कब्ज, बुखार, भूख का कम होना वगैरह बहुत से रोग उत्पन्न हो जाते हैं। तो हमारे कहने का तात्पर्य यह है कि जिह्वा पर संयम कर लेने से सब इन्द्रियों पर संयम हो जायगा।
अब यह प्रश्न है कि जिह्वा पर किस तरह से संयम किया जाय। एक तरीका जो मध्यम मार्गी मानते हैं, वह यह है, कि सब चीजों का स्वाद मध्यम तौर पर लिया जाय न बहुत अधिक और न बहुत कम।
दूसरा तरीका जिह्वा पर संयम करने का वस्तुओं का बिलकुल त्याग कर देना है। संसार के अन्दर दो वस्तुएं हैं, जिन पर संसार के सब स्वाद अवलम्बित हैं, उनका नाम नमक और मीठा है। यदि नमक और मीठे का पूर्ण रूप से त्याग कर दिया जाय और केवल फल और कच्ची शाक सब्जी और निस्वाद चीजों पर रहा जाय तो हम रोगों से बच जायेंगे और पूर्ण 100 वर्ष की आयु का भोग करेंगे। जिह्वा संयम का अभ्यास बहुत कठिन है, परन्तु ईश्वर पर पूर्ण विश्वास रख कर यदि इसको शुरू करें तो कोई कारण ऐसा नहीं है, कि हम इसमें सफल न हों। इस तरह से जिह्वा संयम पर अभ्यास कर लेने से हम अपनी प्रत्येक इन्द्रिय को संयम पर रख सकते हैं। कानों से कभी बुरे वचन न सुनें तो कान संयम में हो जावेंगे, आँखों से कभी बुरी चीज को न देखें तो आँखें संयम में हो जायेंगी नाक से कोई बुरी सुगन्ध न सूँघे तो नाक संयम हो जायगी। यदि अच्छी-अच्छी पुस्तकों का स्वाध्याय करें और महात्माओं का सत्संग करें तो मन संयम में हो जायगा।
यदि वाणी से सत्य बोलें किसी को धोखा न दें तो वाणी संयम में हो जायेगी। इसी तरह हम प्रत्येक इंद्री को जो कि उसका ध्येय है, उसमें लगा दें तो वे संयम में हो जायेंगी और 100 साल तक सब इन्द्रियाँ ठीक के तरीके से कार्य करती चली जायेंगी। यदि अधिक साधना की जायगी तो 100 से अधिक साल तक की इन्द्रियों का ठीक उसी दिशा में लगातार कार्य करते हुए चला जाना सम्भव है।