
दूसरों पर दया करो
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(ले. पं. ‘उदय’ जैन तत्व विशारद, कानौड़)
“कर्म किये सो भोगने पड़ेंगे। हम सहायता क्यों करे? इस पृथ्वी गर्भ में असंख्य प्राणी है, किसकी और ध्यान दें। ईश्वर ने सबको बराबर दिया। खो दिया तो रोवे अपने भाग्य को हमको दूसरों की क्या पड़ी, हमें हमारे जान-माल की रक्षा करनी है”
“यह पीटने योग्य है। बदमाश! इतना और बाकी है, संसार हमारे आनन्द का घर है। नालायक! दूर हो, घर आ खड़ा हुआ। हट जा यहाँ से नहीं तो ठोकरों से सीधा कर दूँगा।”
आखिर है तो नर! जरा अपने लिये भी सोचा। समय का फेर है क्यों मदमाते हो? तुम्हें भी ये ही यंत्रणायें सहनी होंगी। कुछ ध्यान दो। जरा सोचो तो सही कौन देश, कौन मानव और कौन समाज सदा एक सा रहा है।
समाज मानवों का समूह है, समाज संगठित तभी रह सकता है, जबकि प्रेम या दया का पारस्परिक व्यवहार कायम रहता है, जब इसका नाश होगा और दुःखी को सहारा नहीं देंगे तभी हमारा और हमारे समाज का पतन निकट है। सहकार ही धर्म है-कर्तव्य है और व्यवहार है। यही शाँति का मूल मंत्र है।
देखिये, जब आप किसी संकट में गुजरते हैं उसी समय यदि किसी व्यक्ति द्वारा बचा लिये जाएं तो अपन कितने प्रसन्न होंगे, उसका उपकार मानेंगे, बचाने वाले के दुर्व्यवहार से आप को कितना कष्ट होता है, यह अनुभव से ही मालूम होता है।
इतना सब होते हुए भी मनुष्य नहीं संभलता है, कारण उसने मानव हृदय को नहीं पहचाना है। यदि अपने पर आये हुए कष्ट को भेजते हुए दृढ़ प्रतिज्ञा कर ले कि “जैसे दुःख हमें बुरा लगता है, वैसा दूसरे को भी लगता है और जो सुख हमें अच्छा लगता है वह अन्य को भी भाता है,” इसलिये मैं कभी भी अन्य को नहीं सताऊँगा, मेरी आत्म-वृत्ति जैसा व्यवहार सभी से करूंगा।