
सतयुग आ रहा है!
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स्वर्ग युग-सत्ययुग, नवीन युग, द्रुत गति से दौड़ता हुआ आ रहा है, यह असंदिग्ध भविष्य सूक्ष्म दृष्टि से ही नहीं स्थूल नेत्रों से भी दिखाई पड़ रहा है। विगत शताब्दियों में मानव जाति ने इतना पाप कमाया है कि उसके भारी बोझ से आज गर्दन टूटी जा रही है। स्वार्थ और लिप्सा के मद में उन्मत्त होकर मनुष्य ने यह भुला दिया कि वह क्या था, क्या है और आगे क्या होना है। जीवन को भस्मी-भूत समझकर प्रभु की न्याय सत्ता स्वीकार करने से इनकार किया गया और नास्तिकता के आसुरी प्रलोभन में ललचा कर इन्द्रिय लालसा को तृप्त करने के लिए कदम बढ़ाया गया।
‘मैं अधिक लूँगा, दूसरों की मुझे क्या परवाह’ इस मनोवृत्ति को जब जड़ विज्ञान की नास्तिकता ने प्रोत्साहन दिया तो इंसान के अन्दर बैठा हुआ शैतान अट्टहास करने लगा। पापों की पैशाचिक आकाँक्षाएं इस सीमा तक बढ़ी कि नीति और न्याय के दर्शन दुर्लभ हो गये। राजनीति के नाम पर मनुष्य सात-सात समुद्र पार करके, अनेक कष्ट उठाता हुआ सुदूर देशों में पहुँचा और वहाँ अपने शोषण की सुदृढ़ व्यवस्थाएं की, धर्म के नाम पर दूसरे निर्दोषों की गरदन पर दाँत गढ़ा कर उनकी धमनियाँ का भरपूर रक्त पिया, ऐसे अनेकानेक संगठित षड्यंत्रों की ओर जब मानव बुद्धि पिल पड़ी तो सर्वत्र अनैतिकता की सत्ता स्थापित हो गई। प्रचार के बल पर धर्म को अधर्म और अधर्म को धर्म साबित किया जाने लगा। थोड़े से सशक्तों ने अपनी महत्वाकांक्षा के लिए अपने से निर्बलों की कमजोरी का अनुचित लाभ उठाया और उनकी छाती पर चढ़ बैठे। इसके समर्थन में नाना प्रकार के राजनीतिक, धार्मिक और सामाजिक कानून गढ़े गये। बेचारी सार्वभौम मानवता को ऐसे-ऐसे रस्सों से जकड़ा गया कि विश्व की जनशक्ति मूक बधिर, पंगु, अशक्त और असहाय हो गई। गुलाम देशों की प्रजा के समान स्त्रियों के मनुष्योचित अधिकारों का अपहरण करके शैतान अपने अट्टहासों से बारम्बार आकाश को गुँजित करने लगा। बेकारी, गरीबी, अशिक्षा, निर्बलता और अयोग्यता को रस्सियों से मनुष्यता को कस कर एक कौने में पटक दिया गया और कलिकाल निर्द्वन्द्व होकर ताण्डव नृत्य करने लगा। इंसान पैदा होते थे और जीते भी थे, पर यह दोनों ही कार्य नीरस हो गये। आत्मा का परमात्मा के पुत्र का जब पृथ्वी पर अवतार होता था तो प्रकृति में एक उल्लास की लहर दौड़ती थी, पर अब तो इन जीवित मृतकों से भू-भार ही बढ़ने लगा। असहायावस्था की विकृति की संड़ाद से चारों ओर दुर्गन्धि ही दुर्गन्धि वायुमण्डल में फैल गई। मनुष्य जीवन के हर पहलू में दुराचार, छल, कपट, धोखा, भय, अन्याय का बोलबाला हो गया। मनुष्य की खाल ओढ़कर घूमने वाले भेड़ियों से पृथ्वी भर गई और उनके आपसी संघर्ष से गगन भेदी चीत्कारें गूँजने लगी। मनुष्य ने अपना देवत्व त्याग दिया और शैतान की निर्द्वंद्व उपासना करने लगा। पाप के भार से पृथ्वी, की पीठ टूटने लगी।
पिता ने अपने पुत्रों को, परमात्मा ने आत्मा को, राजा ने राजकुमारों को इसलिए भेजा है कि सृष्टि की सुव्यवस्था रखो, इस वाटिका को सुरम्य बनाओ। इतना अधिकार उसे नहीं दिया गया है कि सर्वत्र अराजकता फैला दे और हरे-भरे लता-वृक्षों में खड़े-खड़े आग लगवा दे। ऐसी ही अव्यवस्था के समय के लिए शंभु का तीसरा नेत्र सुरक्षित है वे नहीं चाहते कि सृष्टि में पाप बढ़े। शरीर में फोड़े उठें पर जब वे बढ़ते हैं तो निर्दय डाकु की तरह वे चाकू घुसेड़ कर मवाद को निकाल डालना भी जानते हैं, भले ही रोगी हाय-हाय करता हुआ फड़फड़ाता रहे और वेदना से विह्वल होकर छटपटावे।
आत्मा की अखण्डता ऐसी है कि एक व्यक्ति के पापों का फल दूसरों को भी भोगना पड़ता है। हर एक का पवित्रतम कर्त्तव्य है कि पड़ौसी यदि अनीति मार्ग पर हो तो उसे जिस प्रकार भी हो सके उसे रोके, यदि नहीं रोकता तो पड़ौसी के घर में आग लगाने पर उपेक्षा करने वाले व्यक्तियों को भी दण्ड भोगना पड़ता है। आग पड़ोसी के साथ उसके घर को भी जला देती है क्योंकि वे दोनों घर आपस में सम्बद्ध थे। आत्मा की अखंडता के कारण एक के पाप दूसरों को भोगने पड़ते हैं। इस प्रकार कुछ व्यक्तियों द्वारा फैलाये हुए पापों का फल आज समस्त सृष्टि भोग रही है। महायुद्ध का राक्षस कराल डाढ़ों से अक्षेणियों सेनाएं चबाये जा रहा है। शेष जीवित प्राणी उसे राक्षस के मुँह से निकलने वाली जाज्वल्यमान लपटों से झुलसे जा रहे है। आर्थिक कष्ट से लेकर मृत्यु वेदना तक सहन करनी पड़ रही है। मानो कलि की करतूतों का समस्त सृष्टि से बदला लिया जा रहा हो।
रुद्र का तृतीय नेत्र अपनी कोप ज्वालाओं से जहाँ प्रचण्ड संहार कर रहा है, वहाँ विष्णु की सान्तत्वना पूर्ण भुजाएं भी उठ रही है। जगत पिता अपने करुण नेत्रों से संदेश देते हुए मानव से कह रहे हैं-’पुत्र! अब ऐसी भूल मत करना। तुझे संसार में सत्य प्रेम और न्याय के सुमधुर फल चखने के लिए भेजा गया है। न कि इस वाटिका में आग लगाने के लिए। पाप के बहकावे में अब न आना। दण्ड सहकर तुम्हारे पाप निवृत्त हो गये हैं। अब अपने कर्त्तव्य धर्म को समझो। तुम इन्द्रिय रत कीड़े नहीं हो, मेरे परमप्रिय राजकुमार हो। पिछली भूल का प्रायश्चित करो और नवीन सत्य युग का निर्माण करो।’ मनुष्यता दण्ड शोधित होकर अपनी भूल को स्वीकार करती हुई प्रभु के संदेश को श्रद्धापूर्वक सुन रही है और भूत के अनुभव से भविष्य की आधारशिला रख रही है। इस प्रकार आज की प्रसव वेदना में से एक नवीन रत्न उद्भूत हो रहा है उसका नाम होगा- सत्ययुग। उसका आगमन हमें प्रत्यक्ष दिखाई दे रहा है।