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Magazine - Year 1942 - Version 2

Media: TEXT
Language: HINDI
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प्रेम में परमेश्वर

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(अखण्ड प्रवाह, अखण्ड आत्मीयता, अखण्ड यज्ञ)

भगवान सत्यनारायण के हाथ में प्रेम रूप कमल पुष्प और दूसरे हाथ में न्याय रूप गदा अवस्थित है। पुष्प की उपमा प्रेम से बहुत सोच समझ कर दी गई है। निर्दोष, पवित्र, सुन्दर कोमल, सुगंध, चित्ताकर्षक गुणों वाला पुष्प दिखाई पड़ते ही हृदय में एक गुदगुदी पैदा करता है, बरबस चित्त चाहता है कि उसे जी भर कर देखें, पास रखें और स्पर्श करें। प्रकृति की आध्यात्मिक चेतना का पुष्प ही प्रतिनिधित्व करते हैं, वे इस बात की सूचना देते हैं कि हमारे पीछे महत्व पूर्ण फल इसी डंठल पर आ रहे हैं और उन फलों के अंतर्गत हमारे जैसे अनेकानेक पुष्प में फसल खिलाने की क्षमता होगी। संसार में कोई ऐसा नहीं है जिसे पुष्प प्रिय न हो, क्योंकि उसके अन्दर मिठास का बड़ा भारी भण्डार छिपा पड़ा है। देखने में मिठास, सूँघने में मिठास, चारों ओर उनमें मिठास ही मिठास है। मधु-मक्खियाँ तो इस सूक्ष्म मिठास को स्थान रूप में भी ले आती हैं, फूलों को चूस-चूस का शहद से अपने छत्ते भर लेती हैं।

प्रेम चैतन्य आत्मा के सर्वोत्तम गुणों का प्रतिनिधित्व करता है। जड़ वस्तुओं का यह नियम है कि वे खिंचकर आपस में एक दूसरे से मिलने का प्रयत्न करती हैं, धूलि में मिले हुए धातुओं के कण आपसी आकर्षण शक्ति के बल से खिंच-खिंच कर एक स्थान पर इकट्ठे होने शुरू होते हैं और एक दिन बड़ी खानें जमा हो जाती हैं। यह आकर्षण शक्ति चैतन्य तत्वों में और भी तीव्र होती है। जड़ तत्वों को देखिए उनका जीवन एक दूसरे को कुछ दान करने और प्रेम से निकटस्थ होने के लिए हर घड़ी क्रियाशील हो रहा है। नाले-नदियों के साथ अपने को आत्मसात् कर देने के लिए दौड़ रहे हैं और नदियाँ सागर की ओर भागी जा रही हैं। इनमें से कोई अपने संकुचित स्वार्थ में तल्लीन नहीं है, वरन् अपने से अधिक के साथ तल्लीन होकर ‘अधिकस्य अधिकतम फलम्’ का लाभ उठाने के लिए उद्योगशील है। जब पानी के छोटे-बड़े सभी स्रोत समुद्र के लिए सर्वतोभावेन दौड़ते हैं तो समुद्र भी उसी नीति का अनुसरण करता है। बादलों को वह अपनी सम्पत्ति देता है ओर वे प्रेमी बादल उस भार को अपने कंधे पर लादकर सृष्टि के ऊपर बरसा देते हैं, इस प्रकार उन नदी-नालों का तारतम्य यथावत जारी रहता है। यह अखण्ड प्रवाह जिस दिन खंडित हो जायेगा, उसी दिन संसार में त्राहि-त्राहि मच जावेगी। अपनी योग्यताओं को जड़ जगत में कोई अपने लिए नहीं रोके रखता वरन् पवित्र हृदय से दूसरों के देने के लिए निरन्तर उद्योगशील रहता है। आत्मा सबसे चैतन्य तत्व है, यह आकर्षण उसमें सबसे अधिक है। दूसरों के पक्ष में अपने क्षणिक स्वार्थ को त्यागकर उसके साथ आत्मसात होने का उसमें ईश्वर प्रदत्त स्वभाव शाश्वत काल से चलता आता है। एक मनुष्य दूसरे को अपनी योग्यतायें सदैव देता है। घर-घर में देखिए माता-पिता अपनी सन्तान के लिए कितना आत्म त्याग करते हैं। पति, पत्नि आपस में कितने उदार दानी होते हैं। यह अखण्ड प्रवाह सृष्टि को सुव्यवस्थित रखे हुए हैं। जिस दिन आत्मदान की शृंखला टूट जायेगी, उसी दिन प्रलय के दृश्य उपस्थित हो जायेंगे।

अखण्ड आत्मीयता प्रेम की दूसरी सीढ़ी है। संसार में विभिन्न आकृति के प्राणी दृष्टिगोचर होते हैं फिर भी उनकी आत्मीयता अखण्ड है। पराया इस दुनिया में कुछ नहीं, सब अपना है, या अपना कुछ नहीं सब पराया है, चाहें जैसे कहिए भाव एक ही है। परिवार का सबसे बड़ा और उत्तरदायी वृद्ध पुरुष सारे परिवार को सुव्यवस्थित रखने की अपनी जिम्मेदारी को समझता है। इसलिए उसे अपना ध्यान बहुत ही कम रहता है। और कुटुम्ब वालों की समस्याएं सुलझाने में सारी शक्ति खर्च करता है। वह बीमार है दवा चाहिये। उसे स्कूल जाना है फीस चाहिये। उसका विवाह है कपड़े चाहिये आदि सब किसी का ध्यान रखता है और यथावत सारी व्यवस्था करता है। इस प्रकार सारी सृष्टि के साथ आत्मीयता जोड़ लेने से दूसरों का सुख-दुख अपना सुख-दुख बन जाता है। वह जानता है कि सारी जाति एक ही सूत्र में बंधी हुई है, जब तक संसार में पाप बढ़े हुए हैं तब तक मेरा भी छुटकारा नहीं हो सकता। हम में से हर एक इस उत्तरदायित्व से बंधा हुआ है कि पड़ोसियों की शाँति और सुव्यवस्था में अधिक से अधिक सहयोग दें। जो अपने इस कर्त्तव्य को भूलकर दूसरों को पाप पंक में फंसने देता है, वह स्वयं ही उसके लिये उत्तरदायी बनता है और उसका फल भोगता है। किसी के पड़ोस में आग लगे और वह खड़ा-खड़ा देखता रहे तो कुछ देर बाद वह अग्नि उसके घर की तरफ बढ़ेगी और पड़ोसी के समान उसे भी वैसे ही जला देगी। दैवी दुर्घटनाएं ऐसी ही सार्वभौम पापों का परिणाम होती है। जब संसार में पाप अधिक बढ़ते हैं तो उनकी दुर्गन्धि से अखिल आकाश भर जाता है फिर उसकी प्रतिक्रिया से जब दुर्भिक्ष, भूकम्प, महामारी, युद्ध आदि दैवी दुर्घटनाएं होती हैं तो उसका फल सभी को भोगना पड़ता है। बहुत से निर्दोष व्यक्ति भी इस चक्र में पिस जाते हैं। वास्तव में वे निर्दोष नहीं है, क्योंकि एक के पापों का फल दूसरों को भी भोगना पड़ता है। पिता का कर्ज जब पुत्र से वसूल कर लिया जाता है तो भाई के अपराध का दण्ड भाई को भी दिया जा सकता है। प्रभु ने हमें अपना राजकुमार बनाकर इस सृष्टि में सुव्यवस्था रखने के लिये भेजा है। यदि हम अपना कर्त्तव्य भुला दें और पाप-तापों को बढ़ने दें तो पिता के दरबार में हमें वैसे ही दोषी ठहराया जायेगा, जैसे भागी हुई सेना के सेनापति को अपमानित किया जाता है। जिसके बगीचे में पेड़ों की दुरवस्था हो रही हो, अच्छे पेड़ सूख रहें हों और कटीले झाड़-झंखाड़ बढ़ रहे हों, उस माली को उसका मालिक कभी अच्छी दृष्टि से नहीं देखेगा। परमात्मा को प्रसन्न करने का यही तरीका है कि हम उसकी फुलवारी को हरा-भरा रखें और अधिक से अधिक सुन्दर बनाने में अपनी सारी शक्ति लगा दें। दूसरों को अपना समझकर हम उन्हें एक प्रकार से खरीद लेते हैं, जिसे हम अपना समझते हैं वह अवश्य ही हमें अपना समझेगा। इस प्रकार जितना ही हम प्रेम सम्बंध अधिक बढ़ाते हैं उतना ही खुदगर्जी को दूर करके अपनी महत्ता का अभ्यास बढ़ाते हैं। परमात्मा से प्रेम करने का यही तरीका है कि उसकी चलती-फिरती प्रतिमाओं से प्रेम करें। जो चैतन्य नर नारायणों की सेवा करना छोड़कर जड़ पदार्थों के टुकड़ों पर सिर पटकता फिरता है, उसकी बुद्धि को जड़ ही कहा जायेगा। दूसरों को अपना समझना और उनके साथ आत्मीयता का व्यवहार करना इसमें धर्म का सारा मर्म छिपा हुआ है।

प्रेम का तीसरा स्वरूप है अखण्ड ब्रह्मयज्ञ। साधारण शुभ-कर्मों में और यज्ञ में यह अन्तर है कि साधारण कामों को तो सब लोग स्थूल नेत्रों से देख लेते हैं और उसकी भलाई-बुराई का मोटी बुद्धि से निर्णय कर लेते हैं पर यज्ञ के संबंध में ऐसी बात नहीं है। अग्निदेवों को यह कहा जाता है पर केवल वे ही यज्ञ नहीं है, दूसरे यज्ञ भी है। गीता में ज्ञान, यज्ञ, ब्रह्म-यज्ञ, जप-यज्ञ अनेक प्रकार के यज्ञ बनाये गये हैं। हाँ अग्निहोत्रों से यज्ञ के वास्तविक स्वरूप का निर्माण किया जा सकता है। अग्नि में बहुमूल्य सामग्री को हवन करना स्थूल बुद्धि वालों की दृष्टि में एक प्रकार का व्यर्थ काम है, इसमें उन्हें शायद ही कुछ लाभ प्रतीत हो। परन्तु विवेकवान तत्वदर्शी जानते हैं कि इससे अधिक लाभप्रद और कोई कार्य शायद ही हो। हवन किये हुए पदार्थ सूक्ष्म होकर उच्चरित मंत्रों की सद्भावना के साथ मिश्रित होकर अखिल आकाश तत्व में व्याप्त हो जाते हैं और सृष्टि के अगणित, जीवों को नाना प्रकार के सुख पहुँचाते हैं। इस प्रकार एक रुपये की हवन सामग्री से संसार का जितना लाभ हो सकता है, वह स्थूल प्रकार के हजारों रुपये के लाभ से अधिक है। पर इस महत्व को समझने वाले बहुत ही कम होते हैं। इसी प्रकार शुभ संकल्पों का यज्ञ इतना उच्च कोटि का है कि इसकी समता में बड़े-बड़े सेवा उपकार और दान पुण्य तुच्छ है। सदैव शुभ विचारों की सामग्री जीवन यज्ञ में होमने का ब्राह्म यज्ञ विश्व के सम्पूर्ण यज्ञों में ऊँची से ऊँची कोटि का है। विचार एक मूर्तिमान पदार्थ है, जो भाप की तरह उड़ता है और बादलों की तरह बरसता है। जब हमारे मस्तिष्क में से कोई भला या बुरा विचार निकलता है, तो वह आकाश में उड़ जाता है और इधर-उधर घूमता फिरता है। रेडियो स्टेशन से ब्रॉडकास्ट की हुई लहरें उन स्थानों पर साफ-साफ सुनाई देती है, जहाँ रेडियो सैट लगे हुए हों। इसी प्रकार वे विचार उन लोगों के मस्तिष्कों से टकराते हैं, जिनके मन में कुछ-कुछ वैसे ही भाव उठ रहे हों। यदि हम सदैव भले विचार करते हैं तो वे विचार उन लोगों को बहुत बड़ा प्रोत्साहन देंगे, जो भलाई करने की बात कुछ-कुछ सोचते हैं। विचारों का कभी नाश नहीं होता और उनकी दौड़ने की शक्ति इतनी तेज है कि कुछ ही क्षण में पृथ्वी के एक सिरे से दूसरे सिरे तक पहुँच जाते हैं। कोई व्यक्ति सत्य मार्ग पर चलने का विचार करता है, उसी समय आपका किसी अन्य समय में फैलाया हुआ विचार उसके पास पहुँचता है- उसे दुगना उत्साहित कर देता है। फलस्वरूप वह शुभ कर्म करता है और आगे के लिए भी उसी मार्ग का अभ्यासी हो जाता है। उसके प्रयत्न से अन्य लोगों का ऐसे ही उपकार होता है, यह बेल बढ़ती है और संसार में दैवी सम्पत्ति का विकास होता है। धर्म की उन्नति होती है, दुनिया में सुख शाँति बढ़ती है। इतना बड़ा काम आपके उस छोटे से विचार से ही हुआ था, इसलिए उसका बहुत बड़ा पुण्य फल आपको मिलेगा।

स्वयं सदैव शुभ विचार करना, सत्य, प्रेम, न्याय, उदारता, सहानुभूति, दया आदि की भावनायें मन में धारण करना और ऐसे ही विचार दूसरों के मन में प्रत्यक्ष या परोक्ष रूप से भरने के प्रयत्न करते रहना ब्रह्मयज्ञ है। अखण्ड शब्द इसके साथ में इसलिए जोड़ा गया है कि कभी शुभ और कभी अशुभ कभी भले, कभी बुरे विचार करने से उतना लाभ नहीं होता। जैसे भले विचार संसार का कल्याण करते हैं, वैसे ही बुरे विचार अनिष्ट भी करते हैं। कभी कष्ट कभी अनिष्ट, कभी पूरब को कभी पश्चिम को, यह तो कोई अच्छी बात नहीं हुई। इसलिए जो कार्य करना चाहिए, उसमें न तो ढील होनी चाहिए और न उपेक्षा। जैसे हम रोज शौच जाते हैं, स्नान करते हैं, भोजन करते हैं, सोते हैं वैसे स्वयं अच्छे विचार करें और दूसरों को अच्छे उपदेश दें। विचारों की अनन्त शक्ति का अनुभव करें और उनके प्रचार करने का जब भी अवसर मिले, तभी प्रयत्न करें। घर का, बाहर का, परिचित, अपरिचित, विद्वान, मूर्ख किसी से भी वार्तालाप करने का अवसर मिले तभी उससे सत्य प्रेम और न्याय की चर्चा करें। उसे बुराइयाँ छोड़ने और भलाइयाँ सीखने की सलाह दें। इस सुधार द्वारा हम उसके साथ सच्चे प्रेम का परिचय दे सकेंगे। किसी को मिठाई दी जाय, तो वह समझेगा कि इसने मुझ से प्रेम किया। किन्तु ब्राह्मण इस मूर्खता को पहचानता है और वह मिठाई के द्वारा नहीं, विचार के द्वारा उसे ठोस लाभ पहुँचाना चाहता है। दुनिया यज्ञ का महत्व नहीं समझती, न समझे, पर एक आध्यात्मिक व्यक्ति को उसके अन्दर बड़ा भारी लाभ दृष्टिगोचर होता है। हम अखण्ड ब्रह्म यज्ञ को निरन्तर चालू रख कर प्राणी मात्र के साथ सर्वोच्च कोटि का प्रेम प्रदर्शन करते हुए अपना कल्याण कर सकते हैं।

प्रेम की तीन अंगी उपासना कर, इस त्रिवेणी में जब हम आत्मा को स्नान करावेंगे, तब पुण्य-पूत दृष्टि द्वारा परमेश्वर की सन्निकटता प्रत्यक्ष दिखाई देगी।

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