
जीवन का आदर्श क्या है?
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(ले. आचार्य शशिकान्त झा, भोपालगढ़)
अधिकतर लोग खाने, पीने तथा आराम, समन्वित भव्य भवन के बास को ही जीवन का आदर्श समझते हैं। उनका कथन है कि आवश्यकता के अनुकूल सामग्री की प्राप्ति ही आदर्श जीवन का लक्ष्य है, किन्तु वास्तव में आदर्श जीवन की परिभाषा सिर्फ पेट पालने तथा आलस्य की शय्या पर सुला देने वाली ही नहीं है।
मनुष्य सृष्टि के सब जीवों में अधिक दायित्वपूर्ण माना गया है, इसके शिर पर प्रत्यक्ष तथा अप्रत्यक्ष रूप से बड़ी-बड़ी जिम्मेदारियाँ हैं, जिनको प्रसन्नता के साथ वहन करते हुए किनारे लगा देना ही जीवन का आदर्श है। माँ, बाप, भाई, बन्धु, स्त्री, पुत्र आदि के साथ कर्त्तव्य निभाते हुए परमार्थिक कर्त्तव्य पालन ही सच्ची मनुष्यता है। सिर्फ खाने, पीने तथा आराम से रहने में जीवन को सुखी समझना पशुता है। वस्तुतः परमार्थ में अपनेपन का त्याग ही जीवन का सच्चा आदर्श है।
बड़े-बड़े महापुरुष जिन्हें दुनिया वंद्य समझती है, इसी एक पथ के पथिक रहे हैं। मनुष्यों की तो बात ही जाने दीजिये, सृष्टि के वे जीव जिनमें सिर्फ चेतनता है, उनका आदर्श भी तो यही त्याग हैं। फूल उपवन में अनेक रंगों तथा परिमल पुँजों को लिये खिलता है। भौंरे उसके रस का आस्वादन करते हैं, रसिक गण उसकी सुन्दरता से आँखों को तृप्त करते हैं तथा भीनी-भीनी मीठी सुगन्धि से परमानन्द सुख का अनुभव करते हैं, बाद में वह झड़कर गिर जाता है और खाद्य बनकर फिर दूसरों की मदद करता है। इस तरह हम देखते हैं कि फूल का जीवन बिल्कुल परमार्थ तथा आदर्शमय है। अधिक क्या देवता तक इसको माथे पर चढ़ाते हैं। किसी राजपथ के किनारे एक रसाल का पेड़ आतप, वर्षा तथा शीत पीड़ा को सहन करते हुए पथ श्रान्त पथिक को शीतल छाया तथा फल प्रदान करता है। कोई उसकी डाली तोड़ कलश पूजते हैं तो कोई दतवन करते हैं तो कोई जलावन करते हैं मगर वह एक भाव से सबकी सेवा त्यागमय जीवन से करता है।
मेघ कितनी दिक्कत उठा समुद्र से जल लाकर भूतल पर सुधाभिषेक करता है, जिससे विविध अभी जो हम लोगों का जीवन है, उपजाता है। मगर मेघ अपना कुछ नहीं सोचता। सूर्य प्रतिदिन उदय मान से अस्ताचल तक चलकर परमार्थ में जीवन त्याग का आदर्श बतलाता है। इस तरह हम देखते हैं कि परमार्थ में जीवन का त्याग ही जीवन का सच्चा आदर्श है। आज मानव समाज पाश्चात्य हवा के चक्कर में पड़ अपने इस सच्चे कर्त्तव्य को भूलता जा रहा है। लौकिक भावों में उलझ पारलौकिक तत्वों से अपरिचित होता जा रहा है। त्याग, क्षमा, दया, विनय विवेक, अहिंसा, ब्रह्मचर्य और सत्य की जगह क्रोध, लोभ, मद, क्रूरता, शठता, औद्धत्य, हिंसा, विषय एवं झूठ जोर पकड़ता जा रहा है। पुण्य पर पाप, चन्द्र पर राहु की तरह आक्रमण ही नहीं करना चाहता वरन् धर दबाना चाहता है। परिणाम भी खून खराबी अत्याचार तथा व्यभिचार हर रोज के दृश्य में आते हैं। मनुष्य जब तक दानवीय गुणों को छोड़ मानवीय गुण का दामन नहीं पकड़ेगा तब तक इस संसार का कल्याण कथमपि सम्भव नहीं। जीवन का सच्चा आदर्श त्याग जब तक अपनाया नहीं जायगा संसार सुख से तब तक निश्चय ही दूर रहेगा।