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Magazine - Year 1943 - Version 2

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क्या भाग्य बदल सकता है?

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अन्धे और गूँगों को शिक्षा देकर उन्हें योग्य बना देना बन्दूक के घायलों या अन्य ऐसे ही मरणासन्न रोगियों को चिकित्सा करके बचा लेना, इस प्रकार की अनेक घटनाएं हम अपने जीवन में देखते हैं। यह इस बात की साक्षी हैं, कि बहुत अंशों में भाग्य को बदला जा सकता है। कर्जदार से साहूकार एक साथ सारा रुपया वसूल करे तो मेधा उसे बहुत कष्ट होगा, किन्तु यदि वह प्रयत्न करके साहूकार को यह विश्वास दिलादे कि धीरे-धीरे वह किश्तों में चुका देगा तो वैसा मार्ग निकल सकता है जिससे तात्कालिक विपत्ति हट जाय और यदि अपने सुकृतों की कमाई बैंक में जमा करता जाय तो एक दिन उस हिसाब का जमा खर्च बराबर हो सकता है। इस प्रकार सच्चित् कर्म भोग यदि हो भी तो उसे हटाया जा सकता है। एक विद्वान् का कथन है, कि भाग्य बाजार भाव के समान है जो थोड़ी-थोड़ी देर बाद बदलता रहता है। समर्थ गुरु रामदास ने कहा है, कि भाग्य घोड़ा है और उद्योग सवार है। सवार जिधर चाहे उधर घोड़े को ले जा सकता है। लार्ड उर्वी का मत है कि कोई व्यक्ति कितना ही भाग्यवान क्यों न हो, यदि वह निरुद्योगी है तो कदापि सुख प्राप्त न कर सकेगा। कड़ी धूप के बाद छाया का आनन्द आता है, इसी प्रकार उद्योग के बाद उसके फल में सुख मिलता है। निरुद्योग के लिये तो षटरस भोजन ओर मखमली गद्दे भी भारस्वरुप रहेंगे। सेम्युअल इस्माइल्स कहते हैं, कि भाग्य का भरोसा करना आलस्य को निमन्त्रण देना है और जिस मनुष्य या देश ने आलस्य को अपने में स्थान दिया, वह उसका कलेजा चाटकर मुर्दा बना देगा। मराठों, पेशवाओं और मुगलों की सत्ता का नाश एवं रोम साम्राज्य का अधःपतन इस बात को चिल्ला-चिल्ला कर कह रहे हैं कि उद्योग के बिदा होने के साथ सौभाग्य भी विदा हो जाता है।

तत्वतः प्राचीन आचार्यों ने भाग्य बाद की रचना उस समय के लिये की थी, जब विपत्ति सह लेने के उपरान्त मनुष्य अपनी गलती महसूस करता है और आत्म ताड़ना के कारण बेचैन रहता है। यदि वह अपनी अयोग्यता की बात बहुत देर तक सोचता रहे तो सम्भव है कि वह कुछ समय में अयोग्य ही हो जाय। इसलिये पिछली बात को भुला देने के लिये यह सिद्धाँत था। प्राकृतिक नियमों के अनुसार कभी कभी कुछ आपत्तियाँ हर मनुष्य पर अनिवार्यता आती हैं, इनको उद्योग द्वारा निवारण करने में भी कुछ समय लग ही जाता है, जितने समय तक यह विपत्ति हट न सकें, उतने समय तक धैर्य धारण करने के लिये भी भाग्यवाद से मन समझाया जा सकता है। किसी प्रिय जन की मृत्यु, जन्म जात अयोग्यता या आकस्मिक और असंबद्ध घटना उपस्थित हो जो ने पर भाग्य की चर्चा की जा सकती है। क्योंकि उस समय उसकी आवश्यकता है। अन्य अवसरों पर खास तौर से उद्योग करके अपना कर्त्तव्य पालन करने के साथ भाग्य का सम्बन्ध जोड़ना निरी आत्मवंचना के अतिरिक्त और कुछ नहीं है। क्योंकि बड़े से बड़ा भाग्यवादी भी ऐसा नहीं मिलता जो भाग्य के भरोसे बैठा रहे और कर्त्तव्य करना छोड़ दे। जब ज्योतिष के अनुसार यह मालूम हो गया कि अमुक समय इतना हानि लाभ होने वाला है तो उद्योग करने की क्या जरूरत रही? भाग्यवाद पर बहस करने के लिये तो हमें बहुत व्यक्ति मिलते हैं, पर ऐसा व्यक्ति एक भी नहीं मिला जो स्वयं उस पर विश्वास करता हो, जितने दिन जीना है जिओगे, रोटी खाना-पीना बन्द कर दो, जो होनी होगी सो होगी। उद्योगी ही समृद्धि प्राप्त करते हैं क्योंकि लक्ष्मी उद्योग की दासी है।

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