
भूख जनित अपराध
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(श्री रामदयाल जी गुप्ता, नौगड़)
दरिद्रता को अपराधों की जननी कहा गया है। हमारे देश के अधिकाँश अपराधी ऐसे होते हैं जो पेट की असह्य ज्वाला से पीड़ित होकर चोरी आदि अपराधों में प्रवृत्त होते हैं। मैं अपने अनुभव की बिलकुल सच्ची दो घटनाएं लिख रहा हूँ।
(1)
घर में माँ बेटी दो ही प्राणी हैं। बेटी की उम्र 10-11 साल है वह दो तीन घरों में बर्तन माँज कर जो कुछ पाती हैं उसी को खाकर दोनों गुजारा कर लेती हैं। इस मंहगाई के जमाने में जो थोड़े पैसे मिलते हैं वे पूरे महीने का खर्च चलाने के लिए काफी नहीं होते। महीने के अन्तिम दिनों में भूखों मरने की नौबत आ जाती है।
एक दिन घर में अन्न का एक दाना भी न था। माँ तो किसी प्रकार पेट बाँधे पड़ी रही पर बेटी ने न रहा गया। वह बहुत देर रोती रही आखिर उसकी बाल बुद्धि को एक उपाय सूझा। वह चुपके से गई और जिस मालिक के यहाँ बर्तन माँजती थी उस घर में छींके के ऊपर रात का बचा हुआ भात रखा था, उसे चुरा कर खाने लगी।
अच्छी तरह पेट भर भी न पाई थी कि घर वालों ने देख लिया। अब क्या था, सब का क्रोध उस पर बरसने लगा, जो आता वही मनमानी कहता। पुलिस में पहुँचाने की और सजा दिलाने की तैयारी होने लगी। घटनास्थल पर बहुत से आदमी जमा हुए, बालिका ने रो रो कर भूख की व्याकुलता के कारण चोरी करने का वृत्तान्त कहा। आखिर कुछ भले लोगों ने मालिक को समझा बुझाकर उस कहार बालिका को छुड़वा दिया।
(2)
एक दुर्बल काय व्यक्ति खेत में से एक कोहड़ा (काशीफल) चुरा कर तोड़ रहा था। किसान ने देख लिया और भाग कर चोर को पकड़ लिया। उसे थाने पहुँचाया। पुलिस ने अपराधी को अदालत में पेश किया।
न्यायाधीश ने अपराधी से चोरी का कारण पूछा। चोर ने कहा- हुजूर ! दो रोज से अन्न का एक दाना भी प्राप्त न होने के कारण मैंने एक काशीफल चुराया। इसे उबाल कर खाने से एक दो दिन काटने की इच्छा थी, परन्तु पकड़ा गया और आपके सामने मौजूद हूँ।
अदालत ने उसे आगे चोरी करने की चेतावनी देकर छोड़ दिया।
आजकल हमारे देश में इसी श्रेणी के अपराध बहुत हो रहे हैं। अन्न वस्त्र के दाम इतने ऊंचे हो गये हैं, कि गरीब लोगों को उदर की ज्वाला शान्त करना कठिन हो रहा है। मैंने अभी कुछ दिन हुए एक 1-2 साल के बच्चे को भूख के मारे कंकर चबाते देखा है। ऐसी दशा में भूख जनित अपराधों की वृद्धि हो तो आश्चर्य क्या है।
जिन्हें ईश्वर ने समर्थ बनाया है उन्हें चाहिए कि इस प्रकार भूखों मरते हुए लोगों की जिस प्रकार भी सम्भव हो सहायता करने का प्रयत्न करे, इस प्रकार की थोड़ी सी सहायता भी बड़े यज्ञ के समान फलवती होती है।