
कर्म फल की सचाई
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शाल्वन नगर के राजा सोमक के कोई सन्तान न थी, वे सन्तति प्राप्त के लिए बड़े आतुर रहते, जिसे किसी लौकिक पदार्थ की अत्यन्त तृष्णा होती और उसे पाने के लिए विवेक छोड़ देता है, उस मनुष्य को या तो वह वस्तु प्राप्त ही नहीं होती या होती है तो बड़े बुरे और विकृत प्रकार की, क्योंकि तृष्णा और अविवेक की आसुरी छाया पड़ने के कारण उसमें तामसी तत्व मिल जाते हैं, तदनुसार उस वस्तु की आकृति बड़ी कुरूप हो जाती है।
आखिर सोमक को एक पुत्र प्राप्त हुआ, पर वह अत्यन्त लालसा और तृष्णा के कारण एक जन्तु की तरह था सारे अंग उसके बड़े बेमेल थे, कोई अंग किसी जन्तु से मिलता जुलता था तो कोई किसी से, स्त्री के पेट से पैदा हुआ यह पशु रूप धारी बालक एक विचित्र आकृति का था, उसे देखने के लिए दूर-दूर से लोग आते।
ऐसे पुत्र को पाकर राजा को सन्तोष तो न हुआ पर तो भी आखिर अपना पुत्र था, ज्यों-ज्यों करके उसका लालन-पालन होने लगा, बालक बढ़ने लगा कौतूहलवश रानियाँ उसे खेल खिलातीं और उसके भोलेपन पर मुग्ध हो जातीं कुछ दिन में यही बालक सारे रनिवास का प्रिय पात्र बन गया, राजा भी उसे स्नेह करने लगे।
कहते हैं कि तृष्णा सौ मुख वाली होती है , एक मुख को तृप्त कर दिया जाय तो अन्य मुखों को भूख सताती है, इन सबको एक साथ तृप्त कर देना कठिन है। सोमक को बहुत पुत्रों की लालसा थी, वे इस एक जन्तु से सन्तोष न कर सके, उपायों, की ढूँढ़-खोज करते करते अन्त में उन्हें एक तान्त्रिक से भेंट हुई। जो वाममार्ग की अघोर साधनाओं के सम्बन्ध में अनेक अनुष्ठानों की मर्म उपासनाओं में पारंगत हो चुका था, राजा ने उसे प्रसन्न करके इस बात के लिए रजामन्द कर लिया कि अनुष्ठान द्वारा उसे सौ पुत्र प्राप्त करा देगा। उस अनुष्ठान में वर्तमान पुत्र को बलिदान करने की शर्त थी, राजा खुशी-खुशी इसके लिए तैयार हो गया।
अनुष्ठान हुआ, अंत में उस निरपराध जन्तु को बलि देने के लिए उपस्थित किया गया, रानियों ने उसे इतने स्नेह से पाला था, इस प्रकार उस पोष्य पुत्र की हत्या होते देखकर वे अश्रुपात करने लगीं, सगी माता तो बेहोश होकर गिर पड़ी, फिर भी राजा का कार्य न रुका, मुझे और चाहिए ‘बहुत चाहिए’ के सन्निपात में ग्रसित राजा ने बालक का गला रेत डाला निर्धारित अनुष्ठान पूरा हो गया।
राजा के सौ रानियाँ थी, सभी गर्भवती हो गईं एक वर्ष के अन्दर सभी ने पुत्र प्रसव किये, सूना रनवास हरा−भरा दीखने लगा, बालक किलकारियाँ मारते हुए खेलने लगे, राजा की तृष्णा के चलते सब पर सन्तोष की कुछ बूँदें पड़ती दिखाई देने लगी नगर के धर्मात्मा पुरुष इस घटना से चिन्तित होने लगे, प्रश्न और सन्देहों के तूफान उनके मन में उठने लगे, अधर्म और अन्याय से जब ऐसे सुन्दर परिणाम उपस्थित हो सकते हैं, और बेचारे धर्म को निष्फल पाकर कोई उसे टके सेर नहीं पूछता क्या सचमुच धर्म व्यर्थ है और अधर्म से इच्छित फल प्राप्त होते हैं, इन सन्देहों के साथ साथ नास्तिकता के बीजाँकुर जमने लगे।
ईश्वर के यहाँ देर है अन्धेर नहीं, बुरे का बुरा और अच्छे को अच्छा फल तो अवश्य मिलता है, पर कुछ देर हो जाती है, यही इस माया का गोरखधन्धा है, यदि काम का तुरन्त फल मिल जाता तो सारा संसार धर्मात्मा हो गया होता। इच्छा, रुचि, स्वतन्त्रता और कर्तव्य की तब तो कोई आवश्यकता ही न रहती, गड़रिये की तरह यदि लाठी लेकर इन भेड़ों को ईश्वर हर घड़ी हाँकता फिरता तो मनुष्य की स्वेच्छा, नामक कोई वस्तु न रहे संसार का सौंदर्य ही नष्ट हो जाता।
चींटी मरने को होती है तो उसके पंख उपजते हैं, अन्यायी का जब अन्त होना होता है तो उसे एकबार खूब जोर से चमक कर अपना पिछला पुण्यफल शीघ्र से शीघ्र समाप्त कर देने की आवश्यकता होती है, इसीलिए जिनके पाप का घड़ा भर जाता है, वे अनन्त काल तक नरक में रहने के लिये बचे खुचे पुण्यों को भुगतते हैं।
एक दिन अचानक महल में अग्नि लगी, सारा रनवास जलकर भस्म हो गया। कोई भी प्राणी उसमें से जीवित न बच सका। समस्त राजपरिवार घास फूस की तरह जलता हुआ मुट्ठी भर खाक का ढेर बन गया। कल जो राज भवन नाच रंग से गुलज़ार हो रहा था, आज उसमें 201 प्राणियों की चिताएं जल रही थी। दैवी प्रकोप की एक टक्कर ने जनता की कर्म फल सम्बन्धी समस्त आशंकाओं का समाधान कर दिया।
कथाकारों का मत है कि राजा सोमक का महल एक ध्वंसावशेष खंडहर मात्र रह गया, उसमें 201 चिताएं यथास्थान विराजमान थीं। तृष्णा और अधर्म की व्यर्थता पर हंसता हुआ वह मरघट अपने आतंकित कलेवर को बखेरें पड़ा था। सघन अन्धकार में उधर से निकलने वाले पथिक देखते और सुनते थे, कि राजा सोमक और अघोरी कापालिक जलती हुई लकड़ियाँ उठा उठाकर एक दूसरे के मुँह में ठूँसते हैं और पीड़ा से छटपटाते हुए भूमि पर गिर पड़ते हैं। इसी दृश्य की पुनरावृत्ति वहाँ रात भर होती रहती है। जब वे दोनों थक कर चूर चूर हो जाते हैं तो वहीं ‘जंतु-पुत्र’ शीतल जल की कुछ बूंदें उनके ऊपर छिड़क जाता है।
इस प्रकार शाल्वन नगर के सोमक राज वंश का दुखद अन्त हो गया। युग बीत गये, घटना पुरानी हो गई, पर कर्म फल की सच्चाई आज भी सुस्थिर शिला की भाँति उस शाही श्मशान में पड़ी सोई हुई है।