
‘जहि शत्रुँ महाबाहो!......’
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(श्री रामकरण सिह जी वैद्य, जफरापुर)
‘परमात्मा की इच्छा से ही सब कुछ होता है।’
इस महामन्त्र की गलत व्याख्या करने वाले कुछ लोग ऐसा कहा करते हैं कि पाप भी परमात्मा की इच्छा से होता है। दुष्टात्मा और बदमाश आदमी अपने दोष को परमात्मा पर मड़ देने की इस सुगम युक्ति से लाभ उठाने में बड़ी चतुरता दिखाते हैं। वे अक्सर ऐसा कहते सुने जाते हैं कि—”क्या करें, परमात्मा की मर्जी, उसे जैसा करना था वही हो गया, भगवान की मर्जी के बिना तो पत्ता भी नहीं हिलता, फिर हम इतना बड़ा दुष्कर्म कैसे कर सकते थे?”
यह धूर्तता से भरा हुआ है। परमात्मा की एक मात्र आज्ञा यह है कि मनुष्य शुभ कर्म-करे-श्रेष्ठ मार्ग पर चले। यदि ध्यानपूर्वक कोई सुने तो हर एक हूक उठती हुई सुनाई देगी जो सत्कर्म करने की ओर प्रोत्साहन देती है और दुष्कर्म करने से रोकती है। किसी दीन-दुखी की सेवा सहायता करते समय मन में एक दिव्य संतोष का अनुभव होता है और चोरी, हत्या आदि दुष्कर्म करते समय पैर काँपने लगते हैं, दिल धड़कने लगता है और चित्त घबराने लगता है। परमात्मा की इच्छा और आज्ञा का यह प्रत्यक्ष लक्षण है।
मनुष्य का दुष्ट चित्त, स्वार्थ और विषय विकार शरीर और बुद्धि को कुमार्ग की ओर ललचा कर ले जाता है। यह असुर का-शैतान का -प्रयत्न है। इसे परमात्मा की आज्ञा या इच्छा समझना एक बड़ी घातक भूल है, ऐसी भूल है जो अनीति के मार्ग पर सरपट दौड़ने के लिए रास्ता साफ कर देती है। चित्त की दुष्टता और दुष्कामना से तो हमें निरंतर लड़ना और उस पर विजय प्राप्त करना चाहिए। भगवान ने गीता में ऐसा ही उपदेश किया है “जहि शत्रुँ महा बाहो, काम रुपं दुराशनन्।”