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Magazine - Year 1944 - Version 2

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विद्या-विस्तार के लिए आह्वान

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संसार में जितने भी बल हैं उनमें बुद्धि बल प्रधान है। मनुष्य जैसा दुर्बल प्राणी, सृष्टि के समस्त पशु पक्षियों पर शासन कर रहा है। बड़े-बड़े गज ग्राह, सिंह, सर्पादि शारीरिक बल में कई गुने बड़े होते हुए भी मनुष्य के सामने नत मस्तक होते हैं, अपनी हीनता स्वीकार करते हैं। इस बुद्धि बल के द्वारा ही देश और जातियाँ ऊँची उठती हैं, आगे बढ़ती हैं और समृद्ध तथा सम्पन्न बनती हैं। जहाँ बुद्धि बल का अभाव है वहाँ गरीबी, बेकारी, कलह, क्लेश, दुर्भाव, अज्ञान, भ्रम, दुर्गुण, व्यसन आदि नाना प्रकार की कष्टदायक परिस्थितियाँ बनी रहेंगी और मनुष्य आये दिन नाना प्रकार के दुखों में पड़ा हुआ कराहता रहेगा। निस्संदेह मानव तत्व के अंतर्गत बुद्धि की प्रधान सत्ता है। इस सत्ता के आधार पर ही वह सृष्टि का मुकुटमणि प्राणी बना हुआ है यदि यह उसके हाथ से छिन जाय तो यह शायद सियार, खरगोश और बन्दर से भी कमजोर साबित हो। क्योंकि वे पशु जितना भाग-दौड़ और उछल-कूद सकते हैं, मनुष्य इतना भी तो नहीं कर सकता।

उन्नति और अवनति का सुख और दुख का, दरिद्र और समृद्धि का समस्त आधार इस बुद्धि बल पर निर्भर है। यह बात सूर्य के समान प्रत्यक्ष और सत्य के समान स्पष्ट है। हम भारतीय बहुत समय से दासता, दीनता और निर्बलता से उत्पन्न होने वाले नाना प्रकार के कष्टों को सहन कर रहे हैं। इन कष्टों से छुटकारा प्राप्त करने का प्रयत्न करते हैं, किन्तु बुद्धि बल के अभाव में कुछ कर नहीं पाते, उठते हैं और फिर लड़-खड़ा कर गिर पड़ते हैं। शारीरिक, मानसिक, आर्थिक, धार्मिक, सामाजिक तथा राजनैतिक जो दुर्दशा हमारी हो रही है उसका एकमात्र कारण हमारे ज्ञान बल का अभाव ही है।

पिछले दिनों की दुरावस्था का, दुखदायी स्मृतियों का स्मरण करके आज भारत की अन्तरात्मा रो रही है। दुनिया कहाँ से कहाँ पहुँच गई, किन्तु हम उन्नति की घुड़दौड़ में कितने पिछड़ गये, जिन्हें किसी समय संसार के गुरु होने का गौरव प्राप्त था वे आज काले, कुली, गंदे, असभ्य आदि नामों से दुनिया भर में पुकारे जाते हैं और घृणा की दृष्टि से देखे जाते हैं। जैसे-जैसे भारत जागता जाता है वैसे ही वैसे वह अपनी दुरावस्थाओं का अनुभव करता जाता है और उनसे छुटकारा पाने के लिए बेचैनी और उद्विग्नतामयी तड़पन अनुभव करता है।

हर एक विचारशील और कर्त्तव्य परायण भारतीय आज अपने समाज को इस अत्यन्त गिरी हुई अवस्था में से निकालने के लिए चिन्तित है और अपनी समझ के अनुसार उपाय ढूँढ़ निकालने के लिए प्रयत्नशील है। इन जागृति और प्रयत्न की घड़ियों में हम हर एक विचारशील देश भक्त से अनुरोध करना चाहते हैं कि उन्नति और अवनति के शाश्वत और सनातन सिद्धान्तों को गंभीरता पूर्वक समझें। बुद्धि बल के ऊपर ही सच्चा उत्थान और पतन निर्भर है। स्वाधीनता और सम्पदा माँगने से किसी को नहीं मिलती यदि मिल जाय तो ठहरती नहीं। जहाँ बुद्धि बल है वहाँ अन्य शक्तियाँ, अन्य सम्पदायें स्वयमेव खिंचती चली आती है। इस तथ्य को भली प्रकार समझते हुए देश की दुरावस्था को मिटाकर, सच्ची और स्थायी उन्नति की स्थापना करने के लिए हमें सबसे पहले और सबसे अधिक ज्ञानवृद्धि की ओर ध्यान देना होगा।

दुनिया में जिसने भी उन्नति की है बुद्धि बल से की है। भारत माता को पुनः उन्नति के शिखर पर पहुँचाने के लिए हमें ज्ञान यज्ञ का महान अनुष्ठान करना होगा। बुद्धि दो विभागों में विभाजित है। एक को शिक्षा और दूसरे को विद्या कहते हैं। शिक्षा वह है जिसके द्वारा विभिन्न प्रकार की जानकारी और चातुरी प्राप्त होती है, विद्या वह है जिसके द्वारा सद्गुण और सद्भाव प्राप्त होते हैं। शिक्षा के बल से मनुष्य अच्छा व्यापारी, राजनीतिज्ञ, डॉक्टर, वकील, लेखक, वक्ता, अध्यापक, अफसर आदि बनता है और विद्या के बल से चरित्रवान, महापुरुष, सेवाभावी, शान्तिप्रिय तथा प्रसन्नचित्त आदि निधियाँ प्राप्त करता है। स्कूल और कालेजों में आज शिक्षा दी जा रही है, साहित्य का निर्माण भी इसी दिशा में हो रहा है। आज के शिक्षित या शिक्षा प्रेमी व्यक्तियों की जानकारी और चातुरी निस्संदेह बढ़ जाती है वे गणित, भूगोल, साहित्य, इतिहास, ज्यामिति, रसायन, भूगर्भ शास्त्र, वनस्पति शास्त्र, शरीर शास्त्र, खगोल, कानून, साइंस, आर्ट आदि अनेक विषयों में जानकार हो जाते हैं और अपनी चातुरी को बढ़ाकर पैसा, पद या प्रतिष्ठा भी प्राप्त करते हैं, एवं ऐश-आराम से अपनी जिन्दगी काट लेते हैं। इतना होते हुए भी विद्या के अभाव में शिक्षा अधूरी ही है।

विद्या वह ज्ञान है जिससे मनुष्य का चरित्र बनता है, दृष्टिकोण निर्धारित होता है, सदुद्देश्य और सत् सिद्धांतों को व्यावहारिक जीवन में चरितार्थ करने की प्रेरणा प्राप्त होती है। यदि शिक्षा केवल शिक्षा हो, उसके साथ विद्या का समन्वय न हो तो लाभ और हानि की तुलना करने पर मालूम होगा कि उससे लाभ कम और हानि अधिक है। अशिक्षित मनुष्य की शक्ति थोड़ी होती है वह बदमाश हो तो उसकी बदमाशी छोटे दायरे में रहेगी और जल्दी खुल भी जायगी। एक गवार चोर अपने आस-पास के लोगों का पैसा चुरा सकता है थोड़े दिनों में उसका भेद सब पर प्रकट हो जाता है और फिर लोग उससे सावधान हो जाते हैं, गँवार चोर का यह छोटा सा दायरा है, परन्तु शिक्षित चोर उससे हजार गुना अधिक भयंकर होता है। वह अपनी बुद्धि की चासनी चढ़ाकर कानूनी शिकंजे से बचता हुआ लोगों को ठगने के बड़े-बड़े कारखाने खड़े कर सकता है। होटलों की आड़ में व्यभिचार, कार्निवालों की आड़ में जुआ, रेस्टोरेण्टों की आड़ में मद्यपान के मार्ग निष्कंटक हो सकता है। विधवा आश्रम के नाम पर स्त्रियों का व्यापार किया जा सकता है भड़कीले विज्ञापन देकर दो आने की चीज के दस रुपये वसूल किये जा सकते हैं, सिद्धान्तों के नाम पर अत्यन्त गर्हित काम होते हैं। बुद्धि की पालिस करके निकृष्ट कार्यों को ऐसा सुन्दर चमकीला और निर्दोष दिखा दिया जाता है कि कानून का उस पर कुछ वश नहीं चलता, साधारण लोग इस जाल को पहचान भी नहीं पाते और वह गर्हित कार्य चलते रहते हैं। इस प्रकार केवल शिक्षा से अनर्थों की ही वृद्धि होती है, उससे मनुष्य की प्रवृत्ति, कलुषित, स्वार्थी, शोषक एवं परपीड़क होती जाती है। ऐसा आदमी अपने निजी आन्तरिक जीवन में बड़ा ही संदिग्ध, अविश्वासी, रूखा, निष्ठुर और असंतुष्ट रहता है। परिवार के व्यक्ति ही उसे दुश्मन मालूम होते हैं। ईर्ष्या, कलह, क्रोध, चिन्ता, अशान्ति से उसका अन्तःकरण सदैव जलता रहता है। ऐसे व्यक्तियों के द्वारा देश या जाति की भला क्या सेवा हो सकती है? वे तो कुल्हाड़ी के बेट बन कर अपनों पर और अधिक कहर बरसाने के कारण ही बन सकते हैं।

किन्तु विद्या में यह बात नहीं है। मनुष्यता की शिक्षा, कर्त्तव्य की शिक्षा, धर्म की शिक्षा-जिसे विद्या कहते हैं, मनुष्य के हृदय कमल को विकसित करने वाली है। विद्या के अंग अपाँग-नम्रता, मधुर भाषण, संयम, साहस, एकता, मितव्ययिता, सादगी, सेवा, सहानुभूति, ईमानदारी, उदारता, न्यायशीलता, प्रेम, श्रम, सावधानी, सचाई, तपश्चर्या आदि हैं। इन सद्गुणों और सत्कार्यों के ऊपर जिसके जीवन की आधार शिला रखी हुई है वह मनुष्य भले ही अक्षर ज्ञान से रहित हो, तो भी वह निजी जीवन सदा स्वस्थ संतुष्ट और प्रसन्न चित्त रहेगा। उसके द्वारा प्रत्यक्ष और अप्रत्यक्ष मार्गों द्वारा देश और जाति की सेवा होती रहेगी। वह जो भी काम करेगा वह अन्ततः दूसरों का उठाने वाला, उन्नति के मार्ग पर ले जाने वाला ही होगा।

हम पहले कह चुके हैं कि बुद्धि बल मनुष्य जीवन का प्रधान तत्व है। बुद्धि बल में विद्या प्रधान है, शिक्षा उसकी पूरक है। शिक्षा के अभाव में भी विद्या बहुत कुछ है किन्तु विद्या के अभाव में शिक्षा कुछ नहीं है वरन् उलटा हानिकारक है। विद्या हृदय है और शिक्षा मस्तिष्क है। हृदय और मस्तिष्क के दोनों तारों के संयोग से जो विद्युत शक्ति बनती है वही विद्या है। इस विद्या के आधार पर ही जातियाँ उठती हैं, देश उन्नति करते हैं। पारस्परिक एकता सहायता और सद्भावना बढ़ती है। यह विद्या ही लौकिक और पारलौकिक उन्नति की जड़ है।

हमारे देश में शिक्षा के प्रचार के लिए संतोषजनक प्रयत्न हो रहा है किन्तु विद्या की ओर सर्वथा अपेक्षा की दृष्टि से देखा जा रहा है। मनुष्योचित सद्गुणों और सद्विचारों को-विद्या को-फैलाने के लिए शिक्षा से भी अधिक प्रयत्न की आवश्यकता हैं क्योंकि हमारी उन्नति और समृद्धि का मूलभूत आधार वही है। जड़ की उपेक्षा करके पत्तों को सींचने से काम न चलेगा। शिक्षा तर्कों को जन्म दे सकती है किन्तु विद्या के गर्भ से महापुरुष पैदा होते हैं, जिनकी बुद्धि ही देश की सच्ची समृद्धि है।

शिक्षा की व्यवस्था सरकारी, अर्धसरकारी तथा धनीमानी व्यक्तियों की सहायता से हो सकती है। किन्तु विद्या प्रचार की जिम्मेदारी कर्मनिष्ठ, तपस्वी, सदाचारी और ऋषि कल्प ब्रह्मवेत्ता लोग ही अपने ऊपर उठा सकते हैं। आज युग निर्माण की घड़ी है। इस महत्वपूर्ण घड़ी में अखंड ज्योति अपने परिवार की समस्त ऋषि कल्प आत्माओं का आवाहन करती है और उनके सामने अपनी सम्पूर्ण आग्रह शक्ति के साथ यह अनुरोध करती है कि मनुष्यों में मनुष्यता का प्रचार करने के लिए—मानव जाति में विद्या का विस्तार करने के लिए आगे बढ़े और अपने तुच्छ स्वार्थों को छोड़कर देश जाति और समस्त विश्व का सच्चा कल्याण करने वाले कार्यक्रम में जुट जावें। यदि हमारे परिवार की महत्वपूर्ण आत्माएं अपनी सम्पूर्ण शक्ति के साथ विद्या प्रचार में प्रवृत्त हो तो बहुत थोड़े समय में ऐसे असंख्य बहुमूल्य नर रत्नों का निर्माण किया जा सकता है जिनको अपने अंचल में भरकर भारत माता निहाल हो जाय और अपने प्राचीन गौरव को पुनः प्राप्त कर सकें। क्या हमारे आह्वान का प्रबुद्ध आत्माएं समुचित प्रकार से उत्तर देंगी?

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