
वास्तविक शिक्षा
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(ले.- श्री स्वामी शिवानन्द जी सरस्वती)
शिक्षा का उद्देश्य शिष्यों को भगवान और व्यक्ति से प्रेम करना सिखाना है। सच्ची शिक्षा वही है जो विद्यार्थियों को सत्यवक्ता, सच्चरित्र, निर्भय, नम्र और दयावान बनाती है और उन्हें सदाचरण, सादा जीवन, उच्च-विचार, आत्म-बलिदान तथा ब्रह्म-विद्या का पाठ पढ़ाती है।
देवों, असुरों तथा मनुष्यों ने प्रजापति की अध्यक्षता में शिक्षा प्राप्त की। उन्होंने आत्म-संयम, उदारता और दया के पाठ पढ़े। यही वास्तविक शिक्षा है।
इन्द्र प्रजापति का शिष्य बनकर रहा और उसने यह तत्व जाना कि आत्मा अमर, स्वतः प्रकाशमान तथा जाग्रत, स्वप्न, सुषुप्ति की अवस्थाओं से भिन्न है और वैयक्तिक आत्मा परब्रह्म के साथ एक है। यही वास्तविक शिक्षा है।
शौनक ने अपने गुरु अंगिरा के चरणों में जाकर इस गूढ़ तत्व को पहचाना कि सत्य पूर्ण ज्ञान और संयम के अभ्यास से आत्म-साक्षात्कार होता है।
मैत्रेयी ने ऋषि याज्ञवल्क्य के पाद-पद्म के नीचे बैठकर यह सीखा कि आत्मा अविनाशी, अनासक्त स्वतंत्र और विनाश तथा दुःख से मुक्त है। यही वास्तविक शिक्षा है।
नारद मुनि सनत्कुमार के शिष्य थे और उन्हें गुरु ने बताया कि अनन्त ही आनन्द है, सान्त वस्तु में तिलमात्र भी आनन्द नहीं और प्रत्येक को अनन्त को जानने की इच्छा करनी चाहिए। यही वास्तविक शिक्षा है।
उद्दालक ने श्वेत केतु को पढ़ाया ‘तत्वमसि’-तू वह है यही सत्य है।
तैत्तरेय उपनिषद् में वेदाध्ययन के उपरान्त गुरु शिष्यों को निम्न उपदेश देता है- “वेदाध्ययन की उपेक्षा मत करो। सत्य मार्ग से विचलित मत होओ। कर्त्तव्य पालन करो। अपनी समृद्धि की उपेक्षा मत करो। वेदों के अध्ययन और अध्यापन की उपेक्षा मत करो। देवों और पितरों के प्रति कर्त्तव्य की उपेक्षा मत करो। माता तेरी देवता हो (मातृदेवो भवः), पिता तेरा देवता हो (पितृदेवो भवः), अतिथि तेरा देवता हो (अतिथि देवो भवः)। निर्दोष क्रियाएँ करो। सदा शुभकार्य करो। अपने से बड़े ब्राह्मणों को आसन आदि देकर उचित सत्कार करो। श्रद्धा-पूर्वक दान दो, अश्रद्धा से नहीं। प्रसन्नता, नम्रता, भय और दयालुता-पूर्वक दान दो यदि किसी के विषय में संशय हो उस अवस्था में वैसा बर्ताव करो जैसा कि न्याय-बुद्धि रखने वाले कर्त्तव्य-परायण ब्राह्मण करते हैं। यही नियम है। यही शिक्षा है। यही वेद का प्रयोजन है। यही आज्ञा है। इसी का तुम्हें अनुसरण करना चाहिए। यही वास्तविक शिक्षा है।
प्रत्येक चेहरे में भगवान के दर्शन करने की शिक्षा अपनी आँखों को दो। सब प्राणियों में एक ही आत्मा के दर्शन करो। उपनिषदों की शिक्षाएं सुनने के लिए अपने कानों को शिक्षित करो। अपनी जिह्वा को भगवान की प्रशंसा करने और सदा मधुर, सच्चे, प्रेम-पूर्ण वचन बोलने की शिक्षा दो। अपने हाथों को दान देने और गरीबों की सेवा करने की शिक्षा दो। अपने मन को सदा प्रसन्न और शान्त रहने तथा अमर आत्मा का विचार करने की शिक्षा दो। यही वास्तविक शिक्षा है। हमारे आजकल के विद्यालय साँसारिक शिक्षा देते हैं। उनमें नैतिक नियंत्रण और आध्यात्मिकता का अभाव रहता है। विद्यार्थियों में जीवन के उच्च आध्यात्मिक आदर्श नहीं होते। वे अपनी आजीविका के लिए विद्याध्ययन करते हैं। वे केवल ऊँची तनख्वाहें पाने के लिए पढ़ते हैं, यह बड़ा शोचनीय विषय है। यह कारण है कि अन्त में वे आध्यात्मिक दिवालिए होकर निकलते हैं।
शिक्षा का उद्देश्य जीवन को सादा तथा विचारों को उन्नत बनाना होना चाहिए। प्रत्येक विद्यार्थियों को यह सिखाया जाना चाहिए कि उसका सर्वप्रथम और मुख्य कर्त्तव्य साक्षात्कार तथा सर्व भूत मैत्री भाव है।
सब विश्वविद्यालयों का वास्तविक कार्य मनुष्य को मनुष्य से मिलाना होना चाहिए। गीता, उपनिषद्, रामायण, भागवत, महाभारत, पातंजल, योग-सूत्र, ब्रह्मसूत्र, तुलनात्मक धर्म और दर्शन, सब विद्यालयों में पढ़ाए जाने चाहिए। इनका अध्ययन आवश्यक होना चाहिए। नैतिक-शास्त्र, योग, ध्यान मन का नियंत्रण-इन विषयों पर विद्यार्थियों को क्रियात्मक शिक्षाएं भी दी जानी चाहिए। संस्कृत का अध्ययन आवश्यक होना चाहिए। संस्कृत का अध्ययन आवश्यक होना चाहिए। संस्कृत के अध्ययन के बिना दर्शन के गम्भीर तत्व नहीं समझे जा सकते।
कॉलेजों के प्रिंसिपल और प्रोफेसर महानुभावों तथा हाई स्कूलों के हैडमास्टरों का ऊँचे उठे हुए संन्यासियों और योगियों द्वारा पथ-प्रदर्शन किया जाना चाहिए, तभी वास्तविक शिक्षा विद्यार्थियों को दी जा सकती है। यदि प्रतिवर्ष भारत के विद्यालयों से वास्तविक शिक्षा को ग्रहण किए हुए छात्र बाहर निकलें तो उज्ज्वल, नवभारत का निर्माण और शान्ति, समृद्धि तथा आनन्द का नूतन युग उपस्थित होगा।
संसार को अध्यात्म-धन के धनी व्यक्तियों की आवश्यकता है। जाग्रत आत्माएं, जिन्होंने ज्योति प्राप्त कर ली है, विश्व के लिए वरदान हैं। वे लोगों को सन्मार्ग की ओर ले जावेंगी तथा अज्ञान का समुद्र पार करने में उनकी सहायता करेंगी और अमरत्व तथा अक्षय आनन्द प्राप्त करायेंगी।
भगवान करे कि आप सबको सत्य-ज्ञान, और वास्तविक शिक्षा प्राप्त हो। संसार वास्तविक शिक्षा-सम्पन्न पुरुषों से भरपूर हो। विश्वविद्यालय, कॉलेज, और स्कूल वास्तविक शिक्षा और संस्कृत के केन्द्र हों। तुम सब शिक्षा के वास्तविक उद्देश्य और जीवन के लक्ष्य को समझो। शिक्षा-संस्थाओं के अधिकारी वर्ग में दैवीय ज्ञान-ज्योति जागे, जिससे वे विद्यार्थियों का पथ-प्रदर्शन कर सकें।