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Magazine - Year 1945 - Version 2

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क्या बुढ़ापा दुख दायक है?

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बूढ़ा कौन है? इस प्रश्न के उत्तर में साधारणतः यह कहा जा सकता कि जिसकी आयु ढल गई है, बाल सफेद पड़ गये हैं वह बूढ़ा है। इस प्रकार जवान कौन है? इस प्रश्न के उत्तर में भी यह कहा जा सकता है कि जिसकी नई उम्र है वह जवान है।

बूढ़े और जवान की यह व्याख्या बहुत अधूरी है। क्योंकि हम देखते हैं कि बहुत से नवयुवक बूढ़े हैं और बहुत से बूढ़ों में जवानी भरी हुई है। स्वास्थ्य की दृष्टि से देखिए- जिनकी तन्दुरुस्ती गिर गई है, बीमारी का घुन लग गया है वे जवान होते हुए भी अस्सी वर्ष के बूढ़ों की सी दुर्दशा ग्रसित हैं। इसके विपरीत बहुत से ऐसे बूढ़े मौजूद हैं जिनकी उम्र यद्यपि काफी हो चुकी है तो भी शरीर जवान का सा बना हुआ है, इन्द्रियाँ ठीक काम करती हैं, परिश्रम करने का चाव रहता है और उत्साह एवं स्फूर्ति की तरंगें उनके मन में उठती रहती हैं। देखा जाय तो यह निरोग और उत्साही बूढ़े वास्तव में जवान हैं और घुन लगे हुए आलसी नवयुवक वास्तव में बूढ़े हैं।

अब बौद्धिक दृष्टि से देखिए-कम उम्र होने पर भी जिनकी क्रिया, बुद्धि, प्रतिभा, विचारशक्ति एवं अनुभवशीलता अधिक है वे ज्ञान वृद्ध हैं, किन्तु जो आयु के हिसाब से तो पक गये हैं पर अध्ययन, विवेक एवं अनुभव छोटा है वे बूढ़े बालक समझे जायेंगे। संसार में न तो ज्ञानवृद्धों की कमी है और न बूढ़े बालकों की।

अध्यात्मिक दृष्टि से वे वृद्ध हैं जिनने अपने ऊपर काबू कर लिया है, अपने विचार और कार्यों को एक सा बना लिया है, जिनकी श्रद्धा अडिग और विश्वास अटूट है। भले ही वे आयु में छोटे हैं। उसी प्रकार आध्यात्मिक बालक वे हैं जिनका मन वासनाओं की तरंगों में डूबता उतराता फिरता है, थोड़े से प्रलोभन के आगे जो स्खलित हो जाते हैं, भले ही उनके बाल सफेद हो गये हों भले ही साधु या पंडित का चोला पहने हों।

जिसके पास ऊँचा पद हो वह पदवृद्ध है। जिसके हाथ में सत्ता है, जिसके पास धन है, जिसमें बल, बुद्धि, विद्या, प्रतिभा है, जिसकी पीठ पर जन बल है वह भी अपने-अपने क्षेत्र में वृद्ध है। इन वस्तुओं से जो रहित हैं वे उस क्षेत्र के बालक हैं। वृद्धों के आगे बालकों को हाथ बाँधे खड़ा रहना पड़ता है। अपना दर्जा नीचा अनुभव करना पड़ता है। आदर और महत्व भी उन्हें उसी अनुपात से मिलता है।

वैयक्तिक दृष्टि से बूढ़ा वह है जिसका उत्साह ठंडा पड़ गया है, जिसकी सीखने और बढ़ने की प्रवृत्ति नष्ट हो गई है। कोई नई बात सीखने या नया कदम उठाने का अवसर आता है तो ऐसे लोग कहा करते हैं इतनी उम्र बीत गई, अब क्या सीखेंगे? अब थोड़ी उम्र और रही है यह भी कट जायगी। दूसरी ओर वे मनुष्य हैं जो मृत्यु शय्या पर पहुँचने तक अपनी योग्यता और क्रियाशक्ति को बढ़ाते रहते हैं। अभी इसी साल बंगाल की एक 11 पोतों की दादी ने बी. ए. की परीक्षा दी और प्रान्त भर के छात्रों में सर्वप्रथम उत्तीर्ण हुई। इटली के सुप्रसिद्ध विद्वान मेटेन्डस ने 65 वर्ष की आयु में रशियन भाषा पढ़ना आरम्भ किया और तीन वर्ष में वह उस भाषा का अच्छा जानकार हो गया। दार्शनिक जनेहोवा 93 वर्ष के हो गये तब उन्होंने खगोल विद्या का पढ़ना आरम्भ किया। जब एक वर्ष बाद उनकी मृत्यु की घड़ी आ पहुँची तो उन्होंने कहा-”काश, मैं 13 महीने और जीवित रहा होता तो खगोल विद्या में ग्रेजुएट हो जाता।”

बूढ़ा होना आजकल असमर्थ होने के अर्थ में प्रयुक्त किया जाता है। जो अपनी शक्ति सामर्थ्य क्रिया-शीलता, चेतना, जागरुकता, आशा एवं स्फूर्ति खो बैठा है वह बूढ़ा समझा जाता है। बूढ़ों के लिए मृत्यु ही एक मात्र आश्रय है। घर वाले उसकी मृत्यु की आकाँक्षा करते हैं, मर जाने पर खुशी मनाते हैं, मृत्यु समय में घंटा घड़ियाल, गाजे-बाजे बजते हुए देखकर और मृत्यु भोज के उपलक्ष में हलुआ पूड़ी उड़ाने की धूम देख कर यह आसानी से अनुभव किया जा सकता है कि उस बूढ़े के मर जाने पर घर वालों को खुशी हुई है। जिस स्थिति में दुखी होना स्पष्ट सिद्धाँत है। यदि बूढ़े की मृत्यु पर इस प्रकार की खुशी मनाई जाती है तो उसका स्पष्ट अर्थ है कि उसके जीवित रहने से उन्हें दुख होता होगा।

विचारणीय प्रश्न यह है कि बूढ़े में ऐसी क्या बात हो जाती है कि उसकी मृत्यु की आकाँक्षा की जाती है और कभी-कभी तो वह बूढ़ा स्वयं भी वैसी ही इच्छा करता है। बात यह है कि शक्तियों की वृद्धि एवं स्थिरता की ओर यदि ध्यान न दिया जाय तो वे घटने लगती हैं। अशक्त मनुष्य निःस्वत्व हो जाता है, छूँछ रह जाता है, ऐसी वस्तु को फेंक देने या नष्ट हो जाने के अतिरिक्त और उसका क्या उपयोग हो सकता है। यही कारण है कि “बूढ़ा” मनुष्य आज एक उपेक्षणीय अनुपयोगी एवं छूँछ तत्व समझा जाता है और उसका सम्मान नहीं रहता।

परन्तु वास्तव में बूढ़ा होना ऐसी स्थिति नहीं है जैसी कि आजकल बन गई है। वृद्धि-बढ़ोतरी को कहते हैं। वृद्ध का अर्थ है, बढ़ा हुआ, समुन्नत अधिक समृद्ध एवं सशक्त। ज्ञानवृद्ध, पदवृद्ध, धनवृद्ध आदि शब्दों द्वारा छोटी आयु के मनुष्यों को बूढ़े मनुष्य की समता दी जाती है। इसमें यही सभ्यता काम कर रही है कि “बूढ़ा” अधिक शक्ति सम्पन्न होता है। जो त्रुटि कम उम्र में रहती है वह वृद्धावस्था में पूरी हो जाती है किन्तु जो लोग ज्ञान आदि की उतनी उन्नति कर लेते हैं जितनी कि वृद्धावस्था तक पहुँच जाने पर ही संभव है, तो उन्हें ज्ञानवृद्ध आदि की पदवी दी जाती है।

विचारपूर्वक देखने से पता चलता है कि बूढ़ा होना तत्वतः तक सम्माननीय स्थिति है, पर आज वह उपेक्षा तिरस्कार एवं अपमानजनक असहायावस्था बन गई है। इस अवाँछनीय हेर-फेर का कारण वह निराशा- पूर्ण मनोभावना है। जिसमें जरा सी उम्र ढलते ही मनुष्य ग्रसित हो जाता है, समझने लगते हैं कि शरीर शिथिल हुआ, मृत्यु निकट आई, अब हमें क्या करना है, अब हमसे क्या हो सकेगा। उनके हाथ पैर फूल जाते हैं और निराशा के कारण अपनी संचित योग्यताओं को भी खोकर छूँछ बन जाते हैं।

पका फल अधिक मीठा हो जाता है, बीज का दाना तभी पूर्ण गुण युक्त होता है जब वह पक जाता है। मनुष्य भी अपने आधे जीवन में जब अनुभव संग्रह कर लेता है तब तीसरे पन में पकने लगता है और पूर्णता प्राप्त करने लगता है। उस समय उसका ज्ञान और अनुभव अपेक्षाकृत अधिक परिपुष्ट और महत्वपूर्ण होता है। उस परिपुष्टि के सहारे वह अपने जीवन को अधिक समुन्नत बना सकता है, दूसरों को अच्छा पथ-प्रदर्शन कर सकता है। वृद्धावस्था योग्यता की वृद्धि की अवस्था है, सफेद बालों को लोग अपने दीर्घकालीन अनुभव के प्रमाणपत्र स्वरूप पेश करते हैं। कहते हैं-यह बाल धूप में सफेद नहीं किये हैं। इनका भावार्थ यह है कि इस सफेद बाल वाले बूढ़े के पास दीर्घ कालीन और ज्ञान मौजूद है।

वृद्धावस्था में शरीर की श्रम शक्ति का कम हो जाना स्वाभाविक है। पर इसी कारण निराश होने का कोई कारण नहीं। बालकों को शारीरिक श्रम करने की योग्यता कम होती है पर इसी कारण उनकी न तो उपेक्षा की जाती है और न मृत्यु की कामना। शारीरिक श्रम शक्ति का कम हो जाना कोई बहुत बड़ी क्षति नहीं है। मनुष्य का मूल्य शारीरिक बल से नहीं आँका जाता, उसका महत्व जिन बातों पर निर्भर है वे वृद्धावस्था में कम नहीं होती वरन् बढ़ती है। इससे स्पष्ट है कि वृद्ध पुरुषों की उपयोगिता बढ़नी चाहिए, स्थिर रहनी चाहिए।

इस पर भी हम देखते हैं कि आज ‘बूढ़ा’ होना एक अभिशाप के समान है। कारण यही है कि लोग अपनी योग्यताओं, शक्तियों को बढ़ाने और स्थिर रखने की आशा, प्रेरणा और क्रिया को छोड़ देते हैं। शेष जीवन को निराशा और उपेक्षा की दृष्टि से देखते हैं दूसरे भी उसको उसी दृष्टि से देखने लगते हैं। फलस्वरूप बूढ़ा होना गिरी दशा का सूचक बन जाता है। चढ़ती उम्र के और ढलती उम्र के, दोनों ही प्रकार के ऐसे बूढ़ों से हमारा समाज भरा हुआ है जो अंधकार-पूर्ण भविष्य के गहरे गर्भ की ओर तेजी से कदम बढ़ाते हुए चले जा रहे हैं।

इन चढ़ती और ढलती उम्र के निराशावादी बूढ़ों के कारण बेचारी वृद्धावस्था बदनाम होती जा रही है। अब समय आ गया है कि पूज्यनीय वृद्धावस्था को इस दुर्दशा से बचाया जाय। वृद्ध कहे जाने वाले पुरुष, अपने बुढ़ापे में अपने उत्साह को मन्द न होने दें, अपनी आशाओं को स्थिर रखें। अपनी क्रियाशक्ति को सचेत बनाये रहें। शरीर और मस्तिष्क से सामर्थ्य के अनुसार बराबर काम लें। शेष जीवन की एक-एक घड़ी से अधिकाधिक लाभ उठाने की इच्छा रखें। जो ज्ञान और अनुभव संचित कर लिया जायगा वह अगले जन्म में काम देगा ऐसा सोच कर मृत्यु की घड़ी तक ज्ञान सम्पादन करने, योग्यता बढ़ाने, अनुभव प्राप्त करने, भूलों का सुधार करने एवं अपने अनुभव से दूसरों को लाभ पहुँचाने का प्रयत्न निरन्तर जारी रखना चाहिए। यदि ऐसा प्रयत्न वृद्ध लोग करते रहें तो बूढ़ा होना दुख की बात न रह कर गौरव की बात होगी।

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