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Magazine - Year 1945 - Version 2

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स्वाध्याय आवश्यक है।

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जीवन के प्रमुख धर्म कार्यों में स्वाध्याय का स्थान बहुत ऊँचा है। जिस प्रकार शरीर की भूख बुझाने के लिए अन्न आवश्यक है उसी प्रकार बुद्धि की भूख बुझाने के लिए स्वाध्याय है। आहार के अभाव में देह की दुर्गति होती है। वही दुर्गति स्वाध्याय के अभाव में बुद्धि की होती है। इसलिए सत्साहित्य का अध्ययन करने के लिए हमारे दैनिक जीवन में अवश्य ही कुछ समय निश्चित रहना चाहिए।

स्वाध्याय के लिए शास्त्रों ने मनुष्य के लिए कितना प्रेरणापूर्ण आदेश दिया है, इसका अन्दाजा पाठक नीचे के प्रमाणों से लगा सकते हैं-

“स्वाध्यायाभ्यसनंचौव वाङ्मयं तप उच्यते।”

गीता 1 7-15

अर्थात्- स्वाध्याय करना वाणी का तप है।

“स्वाध्यायाद्योगमासीत योगात्स्वाध्यायमामनेत्।”

स्वाध्याय योग सम्पत्या परमात्मा प्रकाशते॥”

योग 1। 28 व्यास भाष्य॥

अर्थात्- स्वाध्याय से योग की उपासना करें और योग से स्वाध्याय का अभ्यास करें। स्वाध्याय की सम्पत्ति से परमात्मा का साक्षात्कार होता है।

“त्रयोधर्मस्कन्धा यज्ञोऽध्ययनं दानमिति।”

छान्दोग्य 2।23।1

धर्म के तीन स्कन्ध हैं- यज्ञ, स्वाध्याय और दान।

“तपःस्वाध्यायेश्वर प्रणिधानानि क्रियायोगः।”

-योग 2।1

तप, स्वाध्याय और ईश्वर प्रणिधान यह क्रिया योग है।

“स्वाध्यायान्मा प्रमदः “ -श्रुति

अर्थात्- स्वाध्याय करने में भूल मत करो।

तद्हरब्राह्मणो भवति यदहः स्वाध्यायं नाधीते।

तस्मात् स्वाध्यायोऽध्येतव्यः॥1॥

जिस दिन स्वाध्याय नहीं करता उसी दिन ब्राह्मण अब्राह्मण हो जाता है। इसलिए नित्य-प्रति स्वाध्याय करना चाहिए।

ये ह वै के च् श्रमा हमें द्यावा पुथवी अन्तरेण॥ स्वाध्यायो हवै तेषाँ पराकाष्टा॥2॥

इस पृथ्वी और द्युलोक के बीच में जो कुछ भी पुरुषार्थ है, उसमें स्वाध्याय सर्वोपरि (पराकाष्ठा) है।

यावन्त् हवाइमाँ पृथिवीं वित्तेन पूर्ण ददलोकं जयति त्रिस्तावन्तं जयति भृया सं वाक्षय्यं य एवं विद्वान् अहरहः स्वाध्यायमधीत्॥3॥

-शतपथ 11। 5।7

इस धन-धान्य पूर्ण समस्त पृथ्वी का दान करने से जो पुण्य प्राप्त होता है, उससे तिगुना पुण्य अथवा और अधिक अक्षय पुण्य उस पुरुष को मिलता है, जो प्रतिदिन स्वाध्याय करता है।

यह शास्त्र वचन हमें आदेश करते हैं कि स्वाध्याय नित्य करना चाहिए। अब यह देखना चाहिए कि स्वाध्याय क्या है? स्वाध्याय शब्द के दो अर्थ किये जाते हैं।

(1) स्वयम् अध्ययनम्-अर्थात् अपने आप, बिना किसी दूसरे की सहायता के अध्ययन करना। विचार, चिंतन, मनन द्वारा सामने उपस्थित सर्वतोमुखी समस्याओं को समझना और उनके सुलझाने का मार्ग तलाश करना।

(2) स्वस्यात्मनाऽध्ययनम्- अर्थात् अपने अंदर काम करने वाली देवी और आसुरी वृत्तियों को घटाने एवं दैवी वृत्तियों को बढ़ाते रहने का पथ-प्रशस्त करना।

उपरोक्त दोनों ही प्रकार के स्वाध्याय आवश्यक हैं। दोनों के मिलने में ही एक पूर्ण स्वाध्याय बनता है। अपनी आध्यात्मिक, शारीरिक, सामाजिक, आर्थिक, राजनैतिक सभी समस्याओं पर एकान्त में अपने आप विचार और चिन्तन करना और वास्तविकता का पता लगाकर उपयोगी मार्ग अवलम्बन करना यही स्वाध्याय का तात्पर्य है।

केवल मात्र किसी धर्म पुस्तक के थोड़ी देर पन्ने पलट लेना स्वाध्याय नहीं है। ऐसे स्वाध्याय से कोई ऐसा ऊँचा लाभ नहीं मिल सकता, जिसका संकेत उपरोक्त शास्त्र वचनों में किया गया है। स्वाध्याय का भावार्थ अपनी विचारकता समस्या को सूक्ष्म दृष्टि से देखना और उसे निष्पक्ष और अपनी स्वतंत्र प्रतिभा द्वारा सुलझाना है। दूसरों के पथ-प्रदर्शन से मनुष्य सत्य तक नहीं पहुँच सकता, क्योंकि परस्पर विरोधी विचार वाले शास्त्र और महापुरुष विभिन्न बातों को कहते हैं, एक दूसरे के मत का खण्डन करते हैं। ऐसी दशा में यदि मनुष्य के अन्दर विचारना न हो, उचित-अनुचित का निर्णय करने योग्य बुद्धि बल न हो तो केवल अंधश्रद्धा के कारण मनुष्य अंधकार में गिर सकता है। उचित पथ-प्रदर्शन करने की क्षमता अन्तःकरण में बैठे हुए सच्चे गुरु में ही है। इस गुरु की वाणी स्पष्ट सुन सकें, उसके संकेतों को ठीक तरह समझ सकें, इसके लिए अपनी विचारकता को जागृत करने की आवश्यकता है।

पुस्तकों की सहायता से या व्यक्तियों की सहायता से जो विचारकता जागृत की जा सकती है, वह अध्ययन है। स्वाध्याय वह है कि स्वयं किसी समस्या पर गंभीरतापूर्वक विचार करके निष्पक्ष निर्णय करके अपने विश्वास का मजबूती से निर्माण करें। ऐसा स्वाध्याय बुद्धि का भोजन है। आत्मोन्नति का मार्ग है। अवश्य ही प्रतिदिन मनुष्य को सच्चा स्वाध्याय करना चाहिए।

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