
भक्ति ही आनन्द का मार्ग है।
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(ले.- ब्रह्मचारी श्री प्रभुदत्त जी शास्त्री. बी. ए)
अपने अभीष्ट स्थान पर पहुँचने के लिए हमें उसका मार्ग खोजना पड़ता है और फिर उसी मार्ग द्वारा हम वहाँ पहुँचते हैं। बिना मार्ग के इच्छित लक्ष्य की प्राप्ति होना अनिश्चित सा है। आनन्द हमारा अभीष्टतम साध्य है अतः उसकी प्राप्ति के लिए कौन-कौन से मार्ग हैं, यह जानना भी आवश्यक है। जान कर उस मार्ग पर तत्परता से चल पड़ने से ही हम अपने लक्ष्य को पा सकते हैं। चलते-चलते चींटी भी महान पथ को पार कर लेती है परन्तु बिना चले गरुड़ भी उद्दिष्ट स्थान पर नहीं पहुँच सकता।
वास्तव में सुख और आनन्द का एक ही लक्ष्य है, स्थायी, व्यापक अधिक सुख को ही आनन्द समझना चाहिए। सुख की प्राप्ति के लिए ही मनुष्य मात्र लालायित है। परन्तु आश्चर्य नहीं है कि लाख चाहने पर भी सुख-निर्बाध सुख नहीं मिलता।
श्रुति भगवती की आनन्दमयी वाणी में- “आनन्दाद्धयेन खल्विमानि भूतानि, जातानि आनन्देन जानाति जीवन्ति।” आनन्द से ही सब प्राणी जन्मते हैं और आनन्द के लिए ही जी रहे हैं। हमारे आत्मा का स्वरूप आनन्द ही है। फिर भी हम आनन्द की न्यूनता अनुभव करते हैं, यही कारण है कि हम आनन्द का मार्ग प्राप्त करने को उत्सुक होते हैं। वेदान्त की परिभाषिक शैली में हमारे पास दो प्रकार की दृष्टियाँ हैं, एक व्यावहारिक दूसरी पारमार्थिक। जब हम व्यावहारिक दृष्टि से देखते हैं तो संसार का स्थूल या मूर्त रूप, दुःख और जब पारमार्थिक दृष्टि से देखते हैं तो सत्, चित् आनन्दघन के अतिरिक्त अन्य कुछ भी दृष्टि नहीं पड़ता। निदान यह सिद्ध हुआ कि यदि हम दो में से पारमार्थिक दृष्टि प्राप्त कर सकें तो निश्चय ही अपने गन्तव्य धाम आनन्द को प्राप्त होंगे। यह सूर्य के प्रकाश के समान ध्रुव सत्य है कि हमारा आत्मा आनन्दघन है। उसी को पाकर हमको कृत-कृत्य होना है। “प्रज्ञान मानन्दं ब्रह्म। अयमात्मा ब्रह्म।”
सत्संग, भजन, ज्ञान, कर्म उपासना आदि-आदि मार्ग सभी आनन्द स्वरूप ‘स्व’ की ओर लक्ष्य करते हैं। सबसे नवीन और सरल, आनन्द का मार्ग भक्ति माना गया है। भक्ति उस क्रिया का नाम है जो आत्मा के महान गुण आनन्द का प्रत्यक्ष अनुभव करा दे। घर में कितना ही खजाना गढ़ा हुआ रखा रहे, जब तक घर वाले को उसका ज्ञान न हो, तब तक वह उस धन का धनी नहीं बन सकता। इसी भाँति हमारी आत्मारूपी आनन्द-निधि स्थूल, सूक्ष्म, कारण शरीर रूपी घर में गुप्त-अज्ञात रखी है। उसको प्राप्त करने के लिए हमें बद्ध परिकर होना चाहिए, तभी हमको उसकी प्राप्ति सम्भव हो सकती है।
आचार्य श्री शंकर भगवान भक्ति की व्याख्या “(स्व स्वरूपातु-सन्धानं भक्ति रित्यभिधीयते।) स्व स्वरूप का अनुसंधान भक्ति है” इस प्रकार करते हैं अन्य सब साधनों का भी यही लक्ष्य है कर्म के द्वारा हृदय को शुद्ध करके पवित्र अंतःकरण ही भक्ति है। यह भक्ति ही आनन्द का राज मार्ग है, जितने-जितने हम दयामयी भक्ति के कृपा पात्र बनते जायेंगे, उतने ही आनन्द के मार्ग के पथिक बन जायेंगे। इसमें किंचित भी सन्देह नहीं है। पारमार्थिक दृष्टि को स्थायी करने के लिए भक्ति ही अमोघ साधन है।