
अन्तर्ध्वनि
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(1)
पीछे मुड़कर देखो न कभी-
इसलिए कि आगे चलना है।
बड़वानल की लपटों को तो-
सागर-जल में भी जलना है,॥
हिम क्यों न हिमालय का भी हो
पर उसको भी तो गलना है,।
असफलता और सफलता तो
मानव के मन की छलना है॥
पाषाणों के सीने पर भी-
निर्झर निर्भय हो बहता है।
मेरा मन मुक्त से कहता है॥
(2)
बुद-बुद पल-पल में मिट जाते-
पर मिट कर कब बनना छोड़ा।
कलियाँ खिलकर मुरझा जातीं,
खिलना न हुआ अब तक थोड़ा॥
युग-युग से लूट रहे मौंरें-
सुमनों ने कब नाता तोड़ा।
इसलिए पराजय के क्षण भी-
मुँह मैंने आज नहीं मोड़ा,॥
मिट्टी का निर्मित मानव ही-
आँधी पानी सब सहता है।
मेरा मन मुझ से कहता है॥
(श्री जगदम्बा प्रसाद जी त्यागी बी. ए.)
(श्री जगदम्बा प्रसाद जी त्यागी बी. ए.)