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Magazine - Year 1952 - Version 2

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सदाचार का तत्व-ज्ञान

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(श्री स्वामी शिवानन्द जी सरस्वती)

आज मानव जीवन इतना अस्त-व्यस्त हो गया है कि सदाचार की ओर उसका ध्यान ही नहीं जाता, लोक कल्याण तथा विश्व शान्ति के लिये अनेकानेक मौखिक-प्रस्ताव पास किये जाते हैं, परन्तु बेपरवाह बन जाऊँ।

इसी तरह दान करना अवश्य ही सत्कर्म है। लेकिन जब तक दान के गुण के सम्बन्ध में दाता ने स्वयं विचार न किया हो और केवल आगत रूढ़ि के कारण, अथवा अमुक स्थान पर फलाँ चीज फलाँ व्यक्ति को देने से एक खास फल की प्राप्ति होती है, इस श्रद्धा के कारण दान दिया हो, तो इसका कोई भरोसा नहीं कि इससे दाता मनुष्य उदार बनेगा ही। रूढ़ मार्गों में उसके दान का प्रवाह बहेगा, लेकिन कई नहीं सकते कि आवश्यक मार्गों में भी वह उसी तरह बहेगा। यह संभव है कि उदारता अथवा रहमदिली के कारण दान में उसकी प्रवृत्ति होने के बदले, उसकी दानशीलता भाल पर के तिलक के समान अथवा आन्तरिक रोग के बाह्य उपचार के समान केवल बाह्य संस्कार मात्र बनी रहे। और अगर किसी कारण से रूढ़ि अथवा श्रद्धा के संस्कारों का उसके हृदय से लोप हो जाय, तो भाल-तिलक की भाँति वह अपने कर्म की आदत को भी मिटा डाले।

सारांश, जब तक मेरे कर्मों के पीछे जिस गुण या इच्छा का बीज रहा हो। उसके सम्बन्ध मेरे अपने मन में विवेकपूर्ण विवाद जागृत न हों तब तक उस गुण को सब कामों में व्यापक बनाने की अथवा कार्य अकार्य के सम्बन्ध में उस गुण में स्थिर रहकर विचार करने की और उसके परिणामस्वरूप आने वाले कष्टों को धैर्यपूर्वक सहने की, संग दोष न लगने देने की तथा दूषित गुण, इच्छा, आदत को टालने की शक्ति मुझमें नहीं आती।

मनःपूर्वक किये हुए समस्त व्यवहारों का मूल सच्चा अथवा झूठा विवेक है। विवेक में चार वस्तुओं का समावेश होता है, अवलोकन, प्रज्ञा, भावना और सावधानता। अवलोकन यानी अनुभव में आने वाले प्रत्येक विषय की शोध। दूसरे शब्दों में किसी एक पदार्थ का स्वरूप क्या है, उसके धर्म क्या हैं और वे क्यों इस तरह के हैं, इसका शोधन ही अवलोकन है।

प्रज्ञा के मानी तुलना-शक्ति के हैं जिस शक्ति के द्वारा हम गुड़ और शक्कर के बीच का, सा और रे के बीच का, दया और प्रेम के बीच का, मान और अपमान के बीच का भेद जान सकते हैं वह अनुभव मूलक शक्ति इन विषयों के बीच का भेद बतलाने वाली शक्ति है।

भावना या भाव उस-2 पदार्थ के प्रति को दृष्टि-बिंदु है। भाव बहुत से प्रतीत होते हैं, लेकिन सब भावों का पृथक्करण करने से उसमें तीन मूल भावों में समावेश हो जाता है। विषम भाव, सम भाव और ऐक्य भाव। इस पदार्थ से मैं जुदा हूँ, इसका हित जुदा है, मेरा जुदा है, यह विषम, या द्वैत भाव है, यह पदार्थ और मैं दोनों समान हैं, जैसा मेरा सुख है वैसा इसका भी-यह सब अथवा विशिष्टाद्वैत भाव है यह और मैं एक हैं, जो इसका हित वही मेरा भी हित है। यह ऐक्य अथवा अद्वैत भाव है।

सावधानता से तात्पर्य सम्यक् जागृति है-कार्य करने के पहले ही आत्म स्मृति का होना सावधानता है।

इन चारों में से कौन किसका कारण है, यह निश्चित करना कठिन है। प्रत्येक मनुष्य के पास जन्म काल से ही इन चारों की थाती कम या बहुत मात्रा में रहती है, प्रज्ञा के सूक्ष्म होने से भाव स्पष्ट होता है सूक्ष्म प्रज्ञा और स्पष्ट भाव मिलकर सत्य निर्णय के लिये आवश्यक हैं, स्पष्ट अवलोकन सत्य निर्णय के लिये आवश्यक है और सावधानता इन तीनों पर अपना असर डालता है। इन सबके फलस्वरूप जो निर्णयात्मक विचार पैदा होता है वहीं विवेक है। विवेक का उद्बोधन उसकी जागृत धड़कन, अवलोकन, प्रज्ञा, भाव की शुद्धि और सावधानता की पोषक होती है। इन चारों में से जो अंग अपूर्ण रहता है उसके कारण विवेक में कमी आती है।

अगर मनुष्य अवलोकन करने वाला हुआ लेकिन उसके भाव उचित न हुए या प्रज्ञा जड़ हुई तो वह केवल स्थूल व अल्प दृष्टि के अथवा काल्पनिक सिद्धान्तों का रचयिता मोक्ष हो सकता है। तात्विक विचार का मूल बिन्दु उसके हाथ नहीं लगता, वे निरर्थक ही सिद्ध हुए हैं। जिसका कारण यही है कि मनुष्य समाज अपने जीवन के सत्य-सम्मत-पक्ष को नहीं देख पाया है। मरु-मरीचिका को ही जलाशय जानकर, वह व्यर्थ ही दौड़-भाग कर रहा है। इसी लिये हम नित्य प्रति सुनते हैं कि विश्व में विनाश और मृत्यु पाप और दुराचार, असभ्यता तथा नारकीयता का प्राबल्य है। यदि हम कुछ देर तक ध्यानपूर्वक मनन करें तो इसी निष्कर्ष पर पहुँचेंगे कि मानव-धर्म के सदाचार रूपी व्यावहारिक कर्म का विस्मरण करके ही समस्त मानव समाज, अशान्ति का उदयीभूत कर रहा है। हमारा अधः पतित दृष्टिकोण ही हमारे विश्व में अन्याय का साम्राज्य छत्रमान किये हैं। हमारी नैतिक दुर्बलताएँ हमारे भौतिक दुःख और क्लेश को जन्म देती हैं। शास्त्रनिषिद्ध कर्मानुसरण कर निज-निज धर्मानुसारित-कर्त्तव्यों को त्यागते हुये हमारा लौकिक आचरण अपने सत्य युगी अधिष्ठान से नीचे की और पतित किया गया है। यदि समाज अथवा राष्ट्र का प्रत्येक व्यक्ति किसी भी कार्य को करने के पूर्व ही यह विचार करे कि तद्-विचारित-कार्य सदाचार-प्रभूत-धर्म की उपक्रमणिका में आता है कि नहीं- तो वह निश्चय ही अपने जीवन को सफल और कल्याणमय और विमल तथा पवित्र बना सकेगा। यदि परधन-लोलुप व्यक्ति यह सोचे कि वह उचित-कार्य नहीं कर रहा है—यदि मद्य पीने वाला यह सोचे कि मद्यपान तद्विचरित-दृष्ट्या अनुचित है, यदि हिंसातुर-व्यक्ति यह सोचे कि हिंसा सदाचार नहीं और उसके जीवन के आनन्द को विनाश की ओर ले जाने वाली है और महा पाप है, तो वह अपने को इन दुष्कर्मों से विरत रखने की भीष्म चेष्टा करेगा। परिणाम यह होगा कि हमारे संसार में नित्यप्रति जो अमानुषिक-कर्म होते रहते हैं, वे नहीं होवेंगे। किसी की चोरी नहीं होवेंगी, किसी का पुत्र कुचरित्रवान नहीं होवेगा, किसी का सतीत्व-हरण नहीं होगा किसी के प्राणों का अपहनन नहीं होगा। सभी मिलनसार, एक-खिद्धान्ती, दयानुरक्ता, मैत्रीयुक्त , परोपकारी, त्यागी और निस्वार्थ होकर सर्वतोमुखी-शान्ति के लक्षणों का श्री गणेश पायेंगे।

तब सदाचार की मीमाँसा क्या है? क्या यह मनुष्य की विचारधाराओं पर अवलम्बित है—अथवा वाणी विलास ही इसकी सीमा है? या सदाचार केवल लौकिक-मानव-समाज का सुधार मात्र है? सदाचार, यदि इसे अपने भारतीय-तत्वज्ञान की दृष्टि से देखा जाय तो, मनुष्य के जीवन में उन आध्यात्मिक-व्यवहारों का मौलिक-स्वरूप है जिससे विश्व धर्म या लोक धर्म की मर्यादा का प्रतिष्ठापन होता है। यह समझना हमारी भूल होगी कि सदाचार मनुष्य के किसी ऐसे समय की विचार शृंखला है, अथवा वाणी का कौतुक है, जब कि मानव क्षेत्र परिमित-विज्ञान होने के कारण आदर्शवाद की ही ओर जा रहा था, जब कि उसका सामाजिक भूगोल तथा राजनैतिक प्रश्न कुछ ही परिवारों में सीमित था-क्योंकि सदाचार तथागत शास्त्रों के अनुसार, जिसका क्षेत्र आज से भी विशालतर था, मनुष्य के मन,कर्म और वचन की पवित्र-धारा का वह सुन्दर समन्वय है, जहाँ पर मनुष्य मनुष्य के सम्बन्ध को उचित-रीति से जानता है और उस सम्बन्ध का नियमानुकूल अनुपालन भी करता है तथा तत्फलतः वह दूसरे के विनाश का विचार नहीं करेगा—उसके प्रति कटु-शब्दों का प्रयोग भी नहीं करेगा और तद् निषिद्ध-दुष्कर्म करने को उद्यत भी नहीं होगा। अतः यह प्रत्यक्ष सिद्ध होता है कि सदाचार ही सत्य आचरण है, जो आचरण दूसरे के द्वारा अभिवाँछनीय हों, जो आचरण दूसरे के मनोविज्ञान की कसौटी पर ठीक उसी तरह खरे उतरें, जैसे उनका स्वरूप है। सदाचार, मनोविज्ञान, व्यवहार तथा आध्यात्मिक-कर्मों का केन्द्रीकरण है, जिसका प्रभाव मनुष्य के आजीवनोपरान्त-कर्मों के शत-प्रतिशत के अनुपात सक्रियात्मक रहता है।

हम नित्य प्रति धर्म ग्रन्थ (शास्त्र) का अध्ययन करते हैं, ऐसा प्रतीत होता है कि सदाचार के स्वरूप आध्यात्मिक और व्यावहारिक दोनों हैं और पुराणों में इसे लोक धर्म का सजीव-रूप दिया है। परन्तु तो कुछ भी हो, हम अपने शास्त्रों से यही जान गये हैं कि सदाचार का सूत्रपात हमारे जीवन के ईश्वरीकरण से है—जिसका परिणाम निश्चयतः ऐसा ही होना चाहिये। यदि वट वृक्षारोपण किया जाय तो छाया भी तो मिलेगी ही। तदनुसार यदि जीवन में ईश्वरीय-जीवन की स्फूर्ति कर दी जाय तो कालान्तर में इसका विकास भी ईश्वरीय ही होगा। अतः हम इस परिणाम पर आते हैं कि सदाचार का श्री गणेश मनुष्य की आध्यात्मिक-प्रकृति के जागरण से होती है। जब अनुभूति का अध्यात्मीकरण हुआ तो सदाचार का सूर्योदय हो ही जाता है।

इस प्रकार सदाचार के साधारणतः तीन गम्भीर स्वरूप होते हैं, जो हमारे जीवन के सभी कर्मों और सभी अनुभूतियों को अनुयूस्त किये हैं—

सदाचार का प्रथम सत्य आध्यात्मिक-जीवन है, जो सर्वप्रधान तथा सर्वव्याप्त माना जाता है जैसे जल की अति व्याप्ति जल के समस्त-विकारों और विकल्पों में भी मानी जाती है। दैवी सम्पत्-सम्पन्न होना इस जीवन का उपादान कारण है। श्रीमद्भगवद्गीता और मनुस्मृति के सिद्धान्तों में यही प्रतिध्वनि है, प्रत्येक मनुष्य को सर्वप्रथम अपने आध्यात्मिक-क्षेत्र में सद्गुणों की अनुभूति का विकास करना चाहिए। अपनी अपनी अनुभूतियों को सर्वथा सद्गुणों का स्वरूप देकर, सब निश्चयतः उसी का अभिव्याख्यान करेंगे तथा व्यवहार भी कर सकेंगे। जैसी अनुभूति होती है, वैसा ही व्यवहार भी—यह विद्वानों का सर्व-सम्मत सिद्धान्त है और यहाँ हमारी भार-तत्व सदाचार प्रणाली ही है, जो पाश्चात्य सदाचार विज्ञान के विकास के दृष्टिकोण से सहमत भी है। आप लोगों ने सुना तो होगा, जैसी गति-वैसी मति, यही है जग की रीति। इससे स्पष्ट यही अभिव्यक्त हो रहा है कि हमारी अनुभूतियाँ ही हमारे विचार का—तदनुसार व्यवहार का निर्णय कर पायेंगी। यदि हमारी अनुभूति में सर्वात्मभाव तथा एकात्मक-सत्य का अनुभव होगा तो हम अपने सत्य, अहिंसा, आत्मसंयम, निरहंकारिता तथा अन्योन्य शास्त्रोक्त-गुणों के लिये सचेष्ट कर सकेंगे, जिसकी प्रतिच्छाया हमारे व्यावहारिक-स्तर पर अवश्य पड़ेगी ही।

अपनी आध्यात्मिक प्रकृति को आरोग-द्वे-यदि सद्गुणों से अलंकृत करने के उपरान्त ही हम अपने जीवन के प्रत्येक व्यवहार में शान्ति और कल्याण और सर्वभूत हित की रूपरेखा का अवतरण कर सकते हैं। अतः सदाचार का सर्वप्रथम दृष्टिकोण आध्यात्मिकता या ईश्वरीय जीवन है, जहाँ मनुष्य पारस्परिक भेदभाव से परे विश्व को केवल एक परिवार ही नहीं-अपितु अपना स्वरूप ही जानता है और यह अनुभव करता है कि समस्त विश्व निःसन्देह उसका ही जल, बिन्दु, तरंग, सागर तथा वाष्पवत् विकास है और वह सर्व-कार्य अध्यक्ष, सभी जीवों में अधिवास करने वाला तथा सबका आत्मा है। वह किसी का अहित नहीं चाहता वह किसी के प्रति अन्य तथा इतर-भाव से अभिव्यक्ति नहीं करता। वह परहित ही क्यों करेगा, जबकि वह “ईशावास्यमिदं सर्वम्” को अपने सदाचार का सर्व प्रधान-दृष्टिकोण स्थिर किये है। हमारे प्राचीन, वैदिककालीन वीतराग,तपस्वी,, ऋषि-महर्षिगण इसके युग स्मरणीय आदर्श थे।

ऐसा मनुष्य या समाज या देश अपने प्रति-वासी के दुःख से दुखित होगा ही, क्योंकि वही तो सबमें हैं अतः वह अपनी प्रतिवासी आत्मा के यत्किंचित् दुःखों के समूल निवारण के लिये प्रयत्न करता रहेगा। स्वभावतः ही दया, मैत्री करुणा, उपकार तथा अन्य मानसिक सदाचार सम्बन्धी सद्गुणों का आविर्भाव उसमें होगा। यदि किसी समाज के ऊपर आर्थिक संकट आया हो तो तत्कथित सदाचरण शील व्यक्ति ही उस संकट निवारण के उपायों के लिए कटिबद्ध जाता है। वह नवीनतर और नवीनतम प्रयोगों द्वारा अपने पराये के हित और कल्याण और शान्ति की विधि के अनुसन्धान में तत्पर हो जाता है। यह सदाचार का मानसिक स्वरूप, जिसे मनोवैज्ञानिक सदाचार भी कहते हैं, द्वितीय श्रेणी का है। महात्मा बुद्ध इसी कोटि के अवतार थे।

सदाचार का तीसरा स्वरूप व्यावहारिक है। इससे यह अर्थ नहीं कि वह स्वतन्त्र अंग हो। व्यावहारिक तथा भौतिक सदाचार सर्वदा आध्यात्मिक अनुभूति तथा मनोवैज्ञानिक आधारों पर ही प्रतिष्ठित रहता है। इसका कारण स्पष्ट है कि जब तक आप अपने जीवन के अनुभवों और विचारों को सत्य के पवित्र मंत्रों में दीक्षित नहीं कर लेंगे, अब तक कैसे सम्भव है कि आज सदाचार परायण हों? आप का आचार आपके विचारों का आतंक है अर्थात् प्रतिबिम्ब है। तात्पर्य यह है कि आपके विचारों के अनुसार ही आपकी क्रिया शक्ति सुकर्म तथा दुष्कर्म का निर्णय करेगी। यदि आप मुझे किसी प्रकार का भीषण कष्ट देना चाहते हैं और यह निश्चय करते हैं कि किसी निकट-भविष्य में उचित अवसर पाकर, आप मेरा तिरस्कार करेंगे या मुझे निश्चित कष्ट देंगे, तो क्या आप व्यवहार करते समय तद्विचारित निश्चय का पालन करने को विवश नहीं होंगे? इसी प्रकार आप यदि किसी अनाथ बालक के दुखों की अनुभूति कर, उसके दुःख निवारण के लिए विचार कर, उसके जीवन की आवश्यक सुविधाओं की व्यवस्था करने को सन्नद्ध होते हैं तो संसार में कोई भी ऐसी शक्ति नहीं जो आप के इन आदर्श विचारों को पलट दे। मैंने कुछ लोगों को कहते सुना है कि “क्या करें, मन में उसकी दशा पर तरस आता है। परन्तु कभी कभी उसकी बातें सहन नहीं हो सकतीं”। जो लोग इस प्रकार के विजातीय सिद्धान्तों को जन्म देते हैं, वे सदाचार के आध्यात्मिक तथा मानसिक स्वरूपों में स्थिर नहीं हो पाये हैं और उनके उपरोक्त कथन से हमें यही समझना चाहिए कि वे सत्यतः अपने मन के अन्दर भी उसी प्रकार का निश्चय किये हैं, जो उन्होंने बाहर प्रकट किया है।

ऐसा व्यक्ति, जिसने तद् वर्णित तीसरे अंग का सद् अनुशीलन कर लिया है, उसे आध्यात्मिक तथा मानसिक सदाचार का व्यावहारिक-आदर्श होना चाहिए। महात्मा गाँधी जी को यदि हम इस समन्वय का व्यावहारिक-आदर्श मानें तो सर्वथा उचित ही होगा।

अतः पाठक समझ गये होंगे कि सदाचार मनुष्य जीवन का एक विशिष्ट विज्ञान है, जिसका यहाँ पर अति संक्षेप में दिग्दर्शन कराया गया है और जिस का विशद् व्याख्यान हमारे धर्म ग्रन्थों में किया गया है। सदाचार जितना व्यावहारिक दीखता है, उतना ही-किसी अवस्था में उससे भी अधिक मात्रा में आध्यात्मिक है। सदाचार के अर्थ केवल समाज सुधार विषयक आधार ही नहीं हैं। समाज सुधार तो इस विराट्-सदाचारवाद का एक रोम मात्र है। समाज सुधार से ही सदाचार की पूर्ति नहीं हो सकती। ईश्वर पर ही विश्वास, कर उसको ही एकमात्र उपास्य मानना तथा उसी को सर्वभूत स्थित जानना, सदाचार की भूमिका है। जप, कीर्तन, सत्संग, योगाभ्यास, आत्म-विचार, सच्छास्त्र मनन, यम-नियमादि का संपालन, सदाचार का प्रथम सोपान है और मैत्री, करुणा, परोपकार, अहिंसा, दयाभाव, आत्मत्याग, निस्वार्थ-व्यक्तित्व, सेवा तथा अन्य सद्गुण ही सदाचार के प्रथम सोपान को पार करके, स्वतः ही आपके जीवन में ओत-प्रोत हो जाते हैं, आपको विशेष श्रम नहीं करना पड़ता। यदि आधार दृढ़ हो गया तो आप विशालतर से विशालतम-भाव का निर्माण आसानी से कर सकते हैं। इसी प्रकार ईश्वर चिन्तन के लिये जपादि नित्य धर्मों का अक्षरशः पालन करते हुए, आप अपने जीवन के सभी कार्यों को यथोचित-रीत्या करते रहें और किसी को दुःख और क्लेश न दें तो आप सहसा एक दिन अनुभव करेंगे कि सदाचार आपके जीवन का अभिन्न अंग हो गया है और आपके आचरण में व्याप्त हो गया है, जिसके अतिरिक्त आप किसी प्रकार के अन्य भौतिक आचरण को श्रेयस्कर नहीं समझते। जिस तरह फिटकिरी धीरे-धीरे आश्चर्यपूर्ण आचरण से जल में मिल जाती है, उसी प्रकार आपका जीवन भी जप और कीर्तन और ईश्वर-प्रेम में धीरे-धीरे आश्चर्यपूर्ण आचरण द्वारा समाधिस्थ होता जायगा और आप काम करते हुए, भोजन करते हुये तथा संसार के प्रापचिक कार्यों को करते हुए भी अपने सदाचरण से विचलित नहीं हो पायेंगे। परन्तु ईश्वर भावना का परित्याग कर, यदि केवल मात्र लौकिक-सामाजिक व्यवहारों का पालन करोगे तो यह सीमित और अस्थायी ही रह जायगा और आप उसमें शाश्वत-जीवन संचरित कर ही नहीं पायेंगे। कभी-कभी तो आप उकता कर, अपनी सदाचरण की निष्ठा को तिलाँजलि भी दे देंगे। यह कोई असम्भव नहीं इसके कई उदाहरण आपको मिलते रहते हैं। परन्तु आपने भगवत् प्रेम, नाम स्मरण तथा अन्य-शास्त्रोक्त-नित्य-विधियों को अपने जीवन क्षेत्र के अनुसार संपादित किया तो आप सच्चे सदाचार की आधार शिला की प्रतिष्ठा कर पायेंगे, जिस पर जन कल्याण का विशाल-प्रासाद बनाया जा सकेगा, प्रत्येक व्यक्ति जिसकी सुदृढ़ ईंट होगा, एकता तथा संभावना जिसको संकलित कर पायेगी तथा सत्य प्रेम, आनन्द, चिर कल्याण और देवत्व हमारे विशाल-प्रासाद की महामहनीय शोभा होंगे। क्या तब भी विश्व शान्ति एक समस्या ही बनी रहेगी?

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