
अहिंसा में ही कल्याण है।
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(सन्त टी. एल. वास्वानी)
विभिन्न धर्मों ने भेदों और झगड़ों का सृजन किया है, अब वे आध्यात्मिक जीवन-सम्बन्धी नये विचार, नूतन देश भक्ति और नवीन राष्ट्रीय जीवन का सृजन करें, क्योंकि सत्य असीम है और धर्म का उद्देश्य भिन्नता और झगड़ों का उत्पादन करना नहीं, किन्तु उदारता और प्रेम का पाठ पढ़ाना है।
अहिंसा-यह वस्तु आलस्य और कायरता के परे है। अहिंसा सत्तात्मक है, निरी कल्पना नहीं। यह साधारण गुणों से उच्च श्रेणी की वस्तु है। यह एक शक्ति है। यह शक्ति शान्ति की है-लड़ाकू दुनिया में शान्ति की अन्तः प्रेरणा है।
बहुत दिनों से यूरोप में नित्य ही बलात्कार और हिंसा के नये-नये कार्य-क्रम स्वीकृत हो रहे हैं। आज भारत में भी बहुत लोगों के लिए वे आकर्षण सिद्ध हुए हैं। एक फ्राँसीसी ने अभी हाल में ही प्रकाशित एक पुस्तक में लिखा है—”हमें जर्मनी के नाश की जरूरत है।” एक भारतीय ने भी रशियोद्धार-फंड में सहायता करने के लिये आग्रह किये जाने पर कहा था—”हमें आवश्यकता है-यूरोपियनों के नाश की।” इस तरह की बातें मेरे हृदय को पीड़ा पहुँचाती हैं। फिर मैं भारत के ज्ञानी महात्माओं का चिन्तन करता हूँ, जिन्होंने आज से 25 शताब्दी पहले हिन्दुस्तान के लोगों को वह महान् संदेश—’द्वेष को सहानुभूति और निःस्वार्थता से जीतो’—दिया था।
मैं इतिहास के पृष्ठों को नाश और क्षय से आच्छादित पाता हूँ। युद्ध! नाश! धार्मिक अत्याचार! अपनी जीवन-यात्रा में हमने अहिंसा को अपना लक्ष्य नहीं रखा। हमारे भोजन में, हमारे व्यापार में और सामाजिक जीवन में क्या अहिंसा से हिंसा अधिक है?
और वर्तमान राजनीति में हम क्या देखते हैं, कषायों की मन्त्रणा या अहिंसा की शक्ति ?
इस बात का मैं और भी अनुभव करता हूँ; और वह यह है कि राष्ट्रीय आन्दोलनों को एक नवीन उदार आध्यात्मिक स्पन्दन (प्रोत्साहन) मिल जाना चाहिए। एक भ्रातृत्वमय सभ्यता का निर्माण होना चाहिए। विद्वेष हमारी सहायता नहीं करेगा। आजकल राष्ट्र अपनी मानसिक शक्तियों की सम्पत्ति लड़ाई-झगड़ों में खर्च कर रहे हैं। हमें चाहिए कि हम ईश्वर को अपने राष्ट्रीय जीवन में खींच लावें। मानव-विश्व के पुनर्निर्माण के लिए हमें आध्यात्मिक शक्ति की आवश्यकता है।
यदि कोई मुझ से एक ही शब्द में कहने के के लिये कहे कि भारत की आत्मा क्या है? मैं तो कहूँगा—’अहिंसा’। भारत का अन्तः अन्वेषण अहिंसा को विचार, कला, उपासना को जीवन में समाहृत करता रहा है।
अहिंसा के सिद्धान्त ने भारतवर्ष के साँसारिक सम्बन्धों पर भी प्रभाव डाला। उसने साम्राज्यों और विजयों के स्वप्न नहीं देखे और वह जापान तथा चीन का भी गुरु हो गया। अपनी इस आध्यात्मिक उन्नति के कारण यह अपरिचित देश उन देशों का श्रद्धापात्र हो गया। भारतवर्ष सैनिकवादियों का देश नहीं था। मनुष्यता के प्रति आदर बुद्धि ने ही उसे साम्राज्यवादित्व की आकाँक्षा से बचा लिया। वह महान् राजनीतिक सत्य था, जिसे बुद्ध ने अपने वचनों में व्यक्त किया था कि “विजेता और विजित दोनों ही असुखी हैं। विजित अत्याचार के कारण और विजेता इस डर के मारे कि विजित कहीं फिर न उठ बैठे और उस पर विजय प्राप्त करें।” भारतवर्ष ने कभी किसी देश को गुलाम बनाने का प्रयत्न नहीं किया। गुलाम बनाना ही हिंसाचरण है।
यूरोप इस प्रकार पीड़ित है और संक्षोभ में भटकता फिर रहा है, और प्रायः लोग उसकी शक्ति को भूल से स्वातंत्र्य समझ बैठे हैं। साधनों के बिना और नैतिक नियमों के अभ्यास के बिना स्वातंत्र्य नहीं हो सकता। यूरोप अभी तक राष्ट्रीय और जातीय नियम से अधिक और किसी नियम को नहीं मानता। इसके परिणाम हैं राष्ट्रीय संघर्ष और परिश्रम के राष्ट्रवाद। इनका परिणाम हुआ संसार-व्यापी युद्ध, और युद्ध का अभी तक अन्त नहीं हुआ है।
मुझे मालूम है कि युवकों को हिंसा के मूल्य के विषय में सन्देह है, वे प्रकृति से शक्ति-मदमत्त अनियन्त्रित शासन द्वारा किये गये अपने देश के अपमान के कारण संक्षुब्ध हैं, परन्तु स्वतन्त्रता के युद्ध में शक्ति का रहस्य धर्म युक्त उद्यम और आत्मायज्ञ का अभ्यास है। जिस अहिंसा की चर्चा मैं कर रहा हूँ, वह निर्बलता नहीं है सच्ची अहिंसा मृत्यु का डर नहीं है, किन्तु मनुष्यता के प्रति आदर भाव है—कि ‘अहिंसा यज्ञ है। और यज्ञ अथवा बलदान महान् बल है।’ जब मैं अपने काम के लिये जाता हूँ, तब गीता के एक उद्गार को अपने-आप गुनगुनाया करता हूँ “हे कौन्तेय, मेरा भारत कभी नष्ट न होगा।”