
ऐक्य-विजय (Kavita)
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चट्टानों की ठोकर खाकर, बोल उठी लहरों की टोली।
आज हमें किसने टोका है, आज हमें किसने रोका है?
सरल तरल जीवन लेकर, जग को जीवन देने निकली है।
ओ चट्टानों, भूल न जाना, हम लहरें गिरि-राज लली है।
तुम गिरिक के टूटे टुकड़े हो, तुम कुल घालक हो कुल द्रोही!
तुम पर ठोकर मारा करते है, सदैव अनजान बटोही!
एक भयंकर अट्टहास कर उठीं, सुदृढ़ पाषाण-शिलाएँ।
बोली “ओ लहरो, ठहरो, हम तुमको अपनी शक्ति बताएँ!”
हमें है वह चट्टान कि जिनको, विक्रम शाली सत्ता धारी।
सौंपा करते है अपनी, रक्षा की भारी जिम्मेदारी!
हम चट्टानें निर्मित करती, सुदृढ़ दुर्ग के परकोटों को।
हम हंस कर झेला करती है, गोलों की भीषण चोटों को!
सम्भव है, मिट्टी के ढेलों को, प्रवाह में फोड़ सको तुम।
किन्तु असम्भव है मेरे भी, वक्षस्थल तो तोड़ सको तुम!
लहरें बोली “यह सच है, तुम नहीं अचानक हिल सकती हो;
किन्तु हमारी तरह कभी तुम, नहीं एक में मिल सकती हो!
तुम्हें नहीं सहयोग सुहाता, पास तुम्हारे खंडित बल है!
किन्तु हमारी बूँद-बूँद को, सुखद सम्मिलन का संबल है!
हमें अलग करने वाले, पथ के रोड़ों, तुम भूल न जाना!
हमें अलग होकर आता है, अवसर पाते ही मिल जाना॥
दो धारा में बाँट भले दे, पाहन! पथ-अवरोध तुम्हारा।
पर आगे बढ़कर मिल जाना, रहा सदैव स्वभाव हमारा॥
चट्टानें बोली- “देखेंगे, कितनी सत्य तुम्हारी बातें!’
इस घटना को दिन बीते, रातें बीती, बीती बरसातें!!
एक ओर था चट्टानों का, दम्भ भरा दल भारी भरकम!
एक ओर था लहरों का संगठित, और अनवरत परिश्रम॥
चट्टानें बिछ गई धरा पर घिस-घिस कर बन गईं मरुस्थल।
किंतु विजयिनी तरल तरंगें, गीत गा रहीं कल-कल छल-छल!
*समाप्त*
(ले. श्री फूलचन्द्र ‘पुष्पेन्दु’)
(ले. श्री फूलचन्द्र ‘पुष्पेन्दु’)