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Magazine - Year 1954 - Version 2

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नरमेध की आवश्यकता

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छुटपुट कार्य-छुटपुट प्रयत्न से पूरे हो जाते है पर महान् कार्यों को पूरा करने के लिये प्रयत्न भी महान् ही करने पड़ते है। छोटे प्रयत्नों से महान् कार्य नहीं हो सकते। अमरता, जीवन मुक्ति अथवा देवत्व का अधिकार प्राप्त करने के लिए सामान्य प्रयत्न से काम नहीं चलता उसके लिये असामान्य त्याग करना पड़ता है। अपना उद्धार करना हो या दूसरों का कल्याण करना हो दोनों का कार्य अपना समुचित मूल्य चुकाना माँगते हैं।

संसार में अनेक महान् पुरुष हुए है उन्होंने अपनी कीर्ति अमर की है, अपनी आत्मा का कल्याण किया है, साथ ही संसार की अनेक आत्माओं को प्रकाश देकर परम शान्तिदायक स्थिति तक पहुँचाया है। पर यह सब उनसे हो तभी सका है जब उन्होंने त्याग किया है। अपनी भावनाओं, इच्छाओं, क्रियाओं, सामर्थ्यों को निरन्तर सात्विक दिशा में अग्रसर करके ही कोई व्यक्ति महान् बन सकता है।

किसी भी राष्ट्र की सच्ची सम्पत्ति उस देश के महान पुरुष ही होते है। धन, दौलत या विद्या बुद्धि से कोई देश महान् नहीं बनता, इन वस्तुओं के आधार पर प्राप्त की हुई चमक कुछ ही दिनों में फीकी पड़ जाती है और उसे नष्ट होने में देर नहीं लगती। पर महान व्यक्ति युग युगान्तरों तक जनता को प्रकाश, साहस, प्रेरणा एवं पथ प्रदर्शन प्रदान करते रहते। संसार में असंख्यों धनी मानी, राजा, रईस होते और मरते रहते हैं। उन्हें कोई जानता तक नहीं पर हरिश्चन्द्र, शिवि, दधीच, मोरध्वज, हकीकत राय, बन्दा वैरागी, शिवाजी, प्रताप, बुद्ध, महावीर, गाँधी, मीरा, सूरदास आदि महानुभावों का यश अमर है। उनका मूल्य पृथ्वी के समस्त धनाध्यक्षों की अपेक्षा अधिक हैं। ऐसे ही नर रत्नों के कारण निर्धन होते हुए भी हम अपना मस्तक गर्व से ऊँचा रखते है।

किसी समय हमारी परम्परा यह थी कि जनता जनार्दन की सेवा द्वारा आत्म कल्याण प्राप्त करने के लिए लोग अपना उत्सर्ग करते थे। जीवन का सबसे बड़ा लाभ यही समझा जाता था। लोग इस मञ्जिल पर एक दूसरे से आगे बढ़ने के लिये इस सड़क पर बाजी लगाकर कदम उठाते थे। जब लोगों की ऐसी मनोवृत्ति थी तो अनेकों महापुरुष यहाँ उत्पन्न होते रहते थे और उन्हीं के बलबूते पर यह देश विश्व का मुकुट मणि होने का दावा करता था। भारत की सबसे बड़ी विशेषता आत्मत्यागी, लोक सेवी, उच्च चरित्र के व्यक्ति पैदा करना रही है। यही हमारी महानता का एकमात्र कारण रहा है।

आज लोगों की मनोवृत्तियाँ पूर्व काल की अपेक्षा उलटी हो गई है। हमारी निर्धनता एवं दुर्दशा का एक कारण यही है। हर आदमी चमड़ी और दमड़ी का मजा उठाने के लिये आतुर हो रहा है। प्राप्त तो जो होता है सो ही होता है पर तृष्णा पर्वत से बढ़कर रहती है। नीति-अनीति, पाप-पुण्य, उचित-अनुचित का विचार छोड़कर के भी लोग भौतिक वस्तुओं के संग्रह और वासनाओं एवं तृष्णाओं की पूर्ति के साधन जुटाने में लगे रहते है। त्याग की बात मूर्खता समझी जाती है। जो लोग कुछ राई रत्ती त्याग भी करते है उनका उद्देश्य यश, प्रतिष्ठा, मान, बड़ाई होता है। तोले भर लगा करके मन भर बड़ाई लूटने की घात लोग लगाया करते है। सार्वजनिक संस्थाओं में पद पाने के लिये तो जूते चलते हैं उनसे स्पष्ट हो जाता है कि यह लोक सेवक बनने का ढोंग करने वालों का वास्तविक उद्देश्य क्या है? इसी प्रकार त्यागी का वेश बनाकर लाखों साधु वैरागी मुफ्त का माल चरते हुए निरुद्देश्य तो घूमते हैं पर जो परमार्थ साधना में श्रम, संयम, त्याग एवं सेवा साधन करना आवश्यक माना गया है उससे दूर भागते हैं तो प्रकट होता है कि इन लोगों की मनोभूमि भी क्या है? राज नैतिक शासक, सामाजिक नेता, धार्मिक सन्त महन्त आदि जो लोग त्याग एवं परमार्थ को अपना लक्ष घोषित करते है उनकी भी जब यह स्थिति है तो सामान्य लोग भौतिक प्रयोजनों पर ही जीवन भर जान देते रहें तो इसमें आश्चर्य की क्या बात है।

जनता का दृष्टिकोण धन प्रधान होता जाता है। जिनके पास जितना अधिक मादिक पदार्थ, सत्ता, शक्ति, संगठन है वह उतना ही बड़ा माना जाता है। इस दृष्टि कोण का ही फल है कि प्राचीनकाल की भाँति अब सच्चे आत्म त्यागी महापुरुष बनने की आकाँक्षा किसी विरले को ही होती है। जिनकी होती है वे आवश्यक परिश्रम, त्याग एवं सफलता के लिए अभीष्ट धैर्य के अभाव में अधिक आगे नहीं बढ़ पाते। कुछ ही दिनों में हिम्मत हारकर पीछे लौट पड़ते रहे। यह कठिनाई ही वह कारण है कि भारतवर्ष ऊँचा नहीं उठ रहा है। जब तक सच्चे आत्म त्यागी आगे न आयेंगे तब तक नैतिक, बौद्धिक, आत्मिक, चारित्रिक उन्नति नहीं हो सकती और इस उन्नति के बिना कोई पाँच वर्षीय तथा दस वर्षीय योजना लोगों के अगणित कष्टों को दूर नहीं कर सकती। रोटी का प्रश्न महत्वपूर्ण तो है, आर्थिक उन्नति से मनुष्य की सुविधाएँ तो बढ़ती है पर वस्तुतः जनसाधारण को जिन असंख्यों उलझनों का सामना करना पड़ता है उनका कारण मानसिक और नैतिक है, हमारी आँतरिक स्थिति जब तक ऊँची नहीं होती तब तक भौतिक साधनों का प्रचुर परिणाम भी अपने लिए तथा दूसरों के लिए सुख शान्तिदायक नहीं हो सकता। अमेरिका अत्यधिक धनी है पर उसकी स्वार्थपरता समस्त विश्व के लिए और खुद उसके लिए भी सर्वनाश का कारण बनती चली जा रही है।

संसार में शिक्षा बढ़ती जाती है पर वस्तुतः आत्मिक दृष्टि से वह घोर अज्ञान एवं अविद्या में फंसता जा रहा है। कारण कि नैतिक दृष्टि से संसार का प्रभाव पूर्ण पथ-प्रदर्शन कर सकने वाले महान पुरुष अब दीख नहीं पड़ते। बिना प्रकाश के अन्धकार कैसे दूर हो? यह प्रकाश तेल-बत्ती से नहीं अपने आपको जलाने से उत्पन्न होता है। प्राचीन काल के महापुरुषों ने अपने आपको जलाकर ही संसार को प्रकाश दिया था। आज भी उस सत्य एवं तथ्य की आवश्यकता एवं उपयोगिता ज्यों की त्यों बनी हुई है। अपने व्यक्तिगत साधन सुविधाओं को ही नहीं व्यक्तिगत इच्छा आकाँक्षाओं को भी परमार्थ के लिए त्याग करने वाले व्यक्तियों की आत्मा में ही वह अग्नि पैदा होती है जिससे अपना तथा अनेकों का सच्चा कल्याण हो सके।

प्राचीन काल में जब कभी जनता का नैतिक स्तर अधिक नीचा गिर जाता था तो उसे उठाने के लिए “नरमेध यज्ञ” किये जाते थे। नरमेध में मनुष्यों की बलि चढ़ाई जाती थी। वेद ध्वनि के साथ अग्नि भगवान की वेदी पर कुछ व्यक्तियों को सर्वस्व होमा जाता था। ऐसा यज्ञ देखकर जनता की अन्तरात्मा को एक चोट लगती थी, एक रोशनी मिलती थी और वह सम्मुख एक महान आदर्श उपस्थित देखकर अपनी स्वार्थपरता पर लज्जा अनुभव करके मानवोचित आदर्शों की ओर मुड़ती थी। नरमेध का वास्तविक तात्पर्य है किन्हीं व्यक्तियों का आध्यात्मिक आदर्शों के लिये साँसारिक और मानसिक दृष्टि से अपने आपको पूर्णरूपेण समर्पण कर देना और जब तक वह जिये केवल निर्धारित आदर्श के लिए ही सोचना ओर काम करना। मनुष्य को मारकाट कर होम करने की बात मूर्खतापूर्ण है। ऐसा शास्त्रों का आदेश नहीं है। शास्त्र तो नरमेध का यज्ञ पशु उसी को मानते है जो अपनी समस्त इच्छाओं और वस्तुओं का लाभ किसी निर्धारित लक्ष के लिए कर देता है।

अब नरमेधों की प्रथा बन्द हो गई है। उसे पुनर्जीवित करने की आवश्यकता है ताकि हमारे देश की हीनता का वास्तविक कारण महापुरुषों का अभाव दूर हो सके। कुछ ऐसी आदर्शवादी, आत्मत्यागी आत्माओं को आगे आने पर ही जनता का नैतिक स्तर ऊँचा हो सकता है। नई इमारतें बनाने पर उसकी नींव में प्राचीन काल में बलि प्रदान की जाती थी। आत्मिक वातावरण तैयार करने के लिए, संसार को सुख शान्ति का प्रकाश देने के लिए जिसे युग निर्माण की आवश्यकता है उसके लिए आज भी ऐसी ही नर बलियों की आवश्यकता है। पीड़ित मानवता के पुनरुद्धार के लिए आज प्राचीन काल जैसे नरमेध रचाने की भारी आवश्यकता अनुभव हो रही है।

गायत्री के अक्षरों में सन्निहित ज्ञान विज्ञान के द्वारा-शिक्षा उपासना द्वारा-आज का दुखदायी युग बदल सकना सम्भव है। आज इस महाशक्ति की शक्तियाँ प्रसुप्त अवस्था में पड़ी हुई है उन्हें जागृत किया जा सके तो संसार के अगणित प्राणियों की समुद्र जैसी अथाह पीड़ा का निवारण हो सकता है। पर ऐसे ‘शक्ति जागरण’ के लिए नरमेध की आवश्यकता पड़ेगी। आत्म दानी आत्माएँ अपने आप की बलि चढ़ाकर ही उस शक्ति को प्रस्फुटित कर सकती है जो संसार के वर्तमान त्रासदायक वातावरण को बदल सके। आज अणु युद्ध के बादल गरज रहे है, पृथ्वी प्रलय की गोद में जाने के भय से काँप रही है, आज मानवता को दानवता ने ग्रस लिया है वह अपने परित्राण के लिए जुहार मना रही है। इस संकट को उतारने के लिए कुछ दधीचि चाहिए जो नरमेध के लिए अपनी बलि देने को प्रस्तुत हों।

जिनके ऊपर पारिवारिक जिम्मेदारियाँ न हों, जो व्यक्तिगत महत्वाकाँक्षाओं और साँसारिक सुविधाओं को लात मारने को तैयार हों, ऐसी निर्मल आत्मा वाले नर नारियों की नरमेध के लिये आवश्यकता है। उन्हें कत्ल करके अग्नि में जलाया तो नहीं जायगा पर शेष जीवन को प्रायः ऐसी ही कष्ट साध्य कसौटी पर कसा जायगा। ऐसे यज्ञ पशु को कुछ समय तक खूब चराकर मोटा करते हैं वैसे ही जो नरमेध के बलि पशु होंगे उन्हें समुचित समय तक शिक्षा एवं साधना द्वारा आत्मिक रूप से परिपुष्ट किया जाएगा। ऐसा बलिष्ठ आत्माओं की बलि ही अभीष्ट परिणाम उपस्थित करेगी।

हम नरमेध यज्ञ का आयोजन करना चाहते हैं। गायत्री माता के पुरश्चरण यज्ञ हो चुके अब बलि देनी शेष है। उसके लिये हमें कुछ प्रकाशपूर्ण आत्माओं की आवश्यकता है। उन्हें ढूँढ़ने के लिए हमारी आंखें चारों ओर घूम रही है, हमारा अञ्चल चारों दिशाओं में पसारा हुआ है। आशा और निराशा के झूले में अन्तरात्मा झूल रही है। निराशा इसलिए कि चमड़ी और दमड़ी का गुलाम इस आज की दुनिया में कोई ऐसे कष्ट साध्य हेतु के लिये अपने को देने का साहस क्यों करेगा? आशा इसलिए कि सर्वस्व त्यागी ऋषियों का रक्त अभी किन्हीं की नाड़ियों में अवश्य बना होगा। उनके कानों में जब यह याचना भरी युग पुकार पड़ेगी तो निश्चय ही वे चुप न बैठे रह सकेंगे।

-श्रीराम शर्मा आचार्य।

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