
अपनी अस्थियाँ जलाता चल (Kavita)
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लोहे के पेड़ हरे होंगे, तू गान प्रेम का गाता चल,
नभ होगी यह मिट्टी जरूर, आँसू के कण बरसाता चल।
सिसकियों और चीत्कारों से जितना भी हो आकाश भरा,
कंकालों का हो ढेर, खप्परों से चाहे हो पटी धरा।
आशा के स्वर का भार पवन को लेकिन, लेना ही होगा,
जीवित सपनों के लिए मार्ग मुर्दों को देना ही होगा।
रंगों के सातों घट उड़ेल, यह अँधियाली रंग जायेगी,
ऊषा को सत्य बनाने को जावक नभ पर छितराता चल।
आदर्शों से आदर्श भिड़े, प्रज्ञा प्रज्ञा पर टूट रही,
प्रतिमा-प्रतिमा से लड़ती है, धरती की किस्मत फूट रही।
आवर्त्तों का है विषम जाल, निरुपाय बुद्धि चकराती है,
विज्ञान-यान पर चढ़ी हुई, सभ्यता डूबने जाती है।
जब-जब मस्तिष्क जयी होता, संसार ज्ञान से जलता है,
शीतलता की है राह हृदय, तू यह संवाद सुनाता चल।
सूरज है जग का बुझा-बुझा, चन्द्रमा मलिन सा लगता है,
सबकी कोशिश बेकार हुई, आलोक न इनका जगता है।
इन मलिन ग्रहों के प्राणों में, कोई नवीन आभा भर दे,
जादूगर! अपने दर्पण पर घिसकर इनकी ताजा कर दे।
दीपक के जलते प्राण दीवाली तभी सुहावन होती है,
रोशनी जगत को देने को, अपनी अस्थियाँ जलाता चल।
क्या उन्हें देख विस्मित होना, जो हैं अलमस्त बहारों में,
फूलों को जो हैं गूँथ रहे, सोने-चाँदी के तारों में।
मानवता का तू विप्र! गन्ध-छाया का आदि पुजारी है,
वेदना-पुत्र! तू तो केवल जलने भर का अधिकारी है।
ले बड़ी खुशी से उठा, सरोवर में जो हँसता चाँद मिले,
दर्पण में रचकर फूल मगर, उसका भी मोल चुकाता चल।
काया की कितनी धूमधाम, दो रोज चमक बुझ जाती है,
छाया पीती पीयूष, मृत्यु के ऊपर ध्वजा उड़ाती है।
लेने दे जग को उसे, ताल पर जो कलहंस मचलता है,
तेरा मराल जल के दर्पण में नीचे-नीचे चलता है।
कनकाभ धूल झड़ जायेगी, ये रंग फूली उड़ जायेंगे,
है सौरभ केवल अमर, उसे तू सबके लिए जुगाता चल।
*समाप्त*
(श्री रामधारी सिंह ‘दिनकर’)
(श्री रामधारी सिंह ‘दिनकर’)